Wednesday, October 12, 2011

... मौत भी इम्तिहां ले रही है !

खटमल, काक्रोच, मच्छर, दीमक, मकडी, बिच्छू
हिस्से-बंटवारे में लगे हैं, लोकतंत्र असहाय हुआ है !
.....
छत चूह रही है, गरीब भीग रहे हैं
अमीरों ने बरसांती की दुकां खोली है !
.....
दीमक, फफूंद, जाले, बढ़ रहे हैं 'उदय'
लोकतंत्र रूपी कोठी, घूरा हुई जा रही है !
.....
उफ़ ! गजब मुफलिसी, और अजब फांकापरस्ती थी
सच ! कोई अपना, और कोई बेगाना था 'उदय' !
.....
आज का दौर है, बहुतों के हांथों में मशालें हैं 'उदय'
भी चाहेंगे, फिर भी किसी हाथ से जल जायेंगे !
.....
सरकारी मंसूबे अमीरों की कालीन पे बिखरे पड़े हैं
कोई बात नहीं, गरीब मरता है तो मर जाने दो !
.....
बहता दरिया हूँ, मत रोको मुझको
जब भी चाहोगे, मुझको छू लोगे !
.....
बेईमानों की बस्ती में, जज्बे और जज्बातों की दुकां खुल गई
मगर अफसोस, सुबह से शाम तक, कोई खरीददार नहीं आया !
.....
किसानों ने खून-पसीना सींच-सींच उगाई है फसल
क्या करें, सरकार और व्यापारियों में एका हो गया !
.....
फर्क इतना ही है, इंसा पत्थर हुए 'उदय'
जज्बात मरने को तो, कब के मर चुके हैं !
.....
जब उत्साह, जज्बातों के टूट के झरने लगें
गिरते कणों को सहेज, उत्साह बढाया जाए !
.....
सात फेरे और सात कश्में, कोई सहेज के बैठा है 'उदय'
उफ़ ! निभाने वाले, सात समुन्दर पार जा के बैठे हैं !
.....
तेरे आंसू, मेरे आँगन में ज़िंदा हैं आज भी
तू सही, अब उन्हें ही देख, जी रहा हूँ मैं !
.....
आलू, टमाटर, प्याज की दुकां शोरूम हो गईं
उफ़ ! मोल-भाव नहीं , कीमती लेबल लगे हैं !
.....
 हमदर्दी की बातें, मौकापरस्ती का आलम है
जिधर देखो उधर, फरेब ही फरेब है 'उदय' !
.....
जिन्दगी, ठिकाने, दीपक, उजाले, जमीं, आसमां
सच ! गिले-शिकवे भुलाकर, चलो मिलकर संवारें !
.....
उफ़ ! मुहब्बत झूठी निकल गई
सच ! चाँद गवाह बना देखता रहा !
.....
किसे अपना, किसे बेगाना समझें 'उदय'
राजनीति है, कहाँ ईमान नजर आता है !
.....
काश आईना मेरा, मुझसा हो जाता
रक्त से सना मेरा, चेहरा छिपा जाता !
.....
गरीबी, मंहगाई, भूख, अब जीने नहीं देती
उफ़ ! क्या करें, मौत भी इम्तिहां ले रही है !
.....
आज आईने में देखा, खुद मेरा चेहरा बदला हुआ था 'उदय'
फिर पड़ोस, गाँव, शहर, विदेशी चेहरों पे यकीं कैसे करते !
.....
खुशियाँ बार बार मुझे निहार रही थीं
और मैं सहमा सा उन्हें देख रहा था !
.....
ताउम्र वह खर्चे के समय, एक एक सिक्के को रोता रहा
सुबह लाश उठाई, बिस्तर पे नोटों की चादर बिछी थी !
.....
पद और पैसे के लिए ईमान बेच रहे हैं
खुदगर्जी का आलम, सरेआम हो गया !
.....
कुछ कहते फिर रहे, फ़रिश्ते खुद को 'उदय'
हम जानते हैं, कल तक वो ईमान बेचते थे !
.....
क्या खूब, खुबसूरती समेटी गई है
सच ! तस्वीर, ख़ूबसूरत हो गई है !
.....
तेरी जुल्फों में जो उलझा हूँ
सच ! वक्त, ठहर सा गया है !
.....
तिरे आगोश में, सिमट गया हूँ मैं
ढूँढता हूँ खुद को, कहीं खो गया हूँ मैं !
.....
प्यार, मोहब्बत, जज्बे, जंग हो गए
सच ! चलो किसी को जीत लें हम !
.....
बाजार बहुत मंहगा हुआ है
चलो वहां कुछ देर घूम आएं !

No comments: