Tuesday, February 22, 2011

चादर हवाओं की !!

सर्द रातें बढ़ रही थीं
शीत भी गिरने लगी थी
जर्द पत्तों को बिछा कर
हमने बिछौना कर लिया था
बदन थक कर चूर चूर
और आँखें भी निढाल थीं
आसमां में दूधिया चाँदनी
चहूँ ओर मद्दम मद्दम
रौशनी बिखरी हुई थी
एक दिव्य स्वप्न
मेरे जहन में अंकुरित था
मुझे उसके खिलने की
लालसा, और बेसब्री थी
धीरे धीरे आँखें
थकान में मुंदने लगीं
मैं जर्द पत्तों के बिछौने पर
निढाल हो पसर गया
और ओढ़ ली चादर
मैंने हवाओं की !
ख़्वाब था, या हकीकत
क्या कहें
हम तो सो रहे थे
सो गए थे, ओढ़ कर
चादर हवाओं की !!

Tuesday, February 15, 2011

अमीर किसान - गरीब किसान !

हमारा देश किसानों का देश है कुछ वर्ष पहले तक एक ही वर्ग के किसान होते थे जिन्हे लोग 'गरीब किसान' के रूप में जानते थे जो सिर्फ़ खेती कर और रात-दिन मेहनत कर अपना व परिवार का गुजारा करते थे लेकिन समय के साथ-साथ बदलाव आया और एक नया वर्ग भी दिखने लगा जिसे हम 'अमीर किसान' कह सकते हैं।

... अरे भाई, ये 'अमीर किसान' कौन सी बला है जिसका नाम आज तक नहीं सुना .....और ये कहां से आ गया ... अब क्या बतायें, 'अमीर किसान' तो बस अमीर किसान है .... कुछ बडे-बडे धन्ना सेठों, नेताओं और अधिकारियों को कुछ जोड-तोड करने की सोची.... तो उन्होने दलालों के माध्यम से गांव-गांव मे गरीब-लाचार किसानो की जमीनें खरीदना शुरू कर दीं... और फ़िर जब जमीन खरीद ही लीं, तो किसान बनने से क्यों चूकें !!! ......... आखिर किसान बनने में बुराई ही क्या है........ फ़िर किसानी से आय मे 'इन्कमटैक्स' की छूट भी तो मिलती है साथ-ही-साथ ढेर सारी सरकारी सुविधायें भी तो है जिनका लाभ आज तक बेचारा 'गरीब किसान' नहीं उठा पाया ।

........ अरे भाई, यहां तक तो ठीक है पर हम ये कैसे पहचानेंगे कि अमीर किसान का खेत कौनसा है और गरीब किसान का कौन सा ? ............ बहुत आसान है मेरे भाई, जिस खेत के चारों ओर सीमेंट के खंबे और फ़ैंसिंग तार लगे हों तो समझ लो वह ही अमीर किसान का खेत है, थोडा और पास जाकर देखोगे तो खेत में अन्दर घुसने के लिये बाकायदा लोहे का मजबूत गेट लगा मिलेगा, तनिक गौर से अन्दर नजर दौडाओगे तो एक शानदार चमचमाती चार चक्का गाडी भी खडी दिख जायेगी ...... तो बस समझ लो यही 'अमीर किसान' का खेत है ।

........... अब अगर अमीर किसान और गरीब किसान में फ़र्क कुछ है, तो बस इतना ही है कि अमीर किसान के खेत की देखरेख साल भर होती है, और गरीब किसान के खेत में साल भर में एक बार "खेती" जरूर हो जाती है ।

Thursday, February 10, 2011

कंजूस खोपडी !

एक दिन ट्रैन में यात्रा के दौरान सामने वाली सीट पर एक महाशय को सूट-बूट मे आस-पास बैठे यात्रियों के साथ टाईमपास करते देखा, वह देखने से धनवान और बातों से धनाढय जान पड रहा था, तभी एक फ़ल्ली बेचने वाला आया, कुछ यात्रियों ने ५-५ रुपये की फ़ल्लियां खरीद लीं तभी उस धनाढय महाशय ने भी फ़ल्ली वाले से २ रुपये की फ़ल्ली मांगी, फ़ल्ली वाले ने उसे सिर से पांव तक देखा और २ रु. की फ़ल्ली चौंगा मे निकाल कर देने लगा तभी महाशय ने व्याकुलतापूर्वक कहा बहुत कम फ़ल्ली दे रहे हो तब उसने कहा - सहाब मै कम से कम ५ रु. की फ़ल्ली बेचता हूं वो तो आपके सूट-बूट को देखकर २ रु. की फ़ल्ली देने तैयार हुआ हूं कोई गरीब आदमी मांगता तो मना कर देता।
वह महाशय अन्दर ही अन्दर भूख से तिलमिला रहे थे फ़िर भी कंजूसी के कारण मात्र २ रु. की ही फ़ल्ली मांग रहे थे फ़ल्ली से भरा चौंगा हाथ मे लेकर २ रु देने के लिये पेंट की जेब मे हाथ डाला तो ५००-५००, १००-१०० के नोट निकले, अन्दर रखकर दूसरी जेब मे हाथ डाला तो ५०-५०,२०-२०,१०-१० के नोट निकले, उन्हे भी अन्दर रखकर शर्ट की जेब मे हाथ डाला तो ५-५ के दो नोट निकले, एक ५ रु का नोट हाथ मे रखकर सोचने लगे तभी फ़ल्ली वाले ने कहा सहाब पैसे दो मुझे आगे जाना है, तब महाशय ने जोर से गहरी सांस ली और नोट को पुन: अपनी जेब मे रख लिया और चौंगा से दो फ़ल्ली निकाल कर चौंगा फ़ल्ली सहित वापस करते हुये बोले- ले जा तेरी फ़ल्ली नही लेना है, फ़ल्ली बाला भौंचक रह गया गुस्से भरी आंखों से महाशय को देखा और आगे चला गया।
महाशय ने हाथ मे ली हुईं दोनो फ़ल्लियों को बडे चाव से चबा-चबा कर खाया और मुस्कुरा कर चैन की सांस ली, ये नजारा देख कर त्वरित ही मेरे मन में ये बिचार बिजली की तरह कौंधा "क्या गजब का 'लम्पट बाबू' है, ..... पेट मे भूख - जेब मे नोट - क्या गजब कंजूस ....... मुफ़्त की दो फ़ल्ली खूब चबा-चबा कर ....... वा भई वाह ..... क्या कंजूस खोपडी है" तभी अचानक उस "लम्पट बाबू" की नजर मुझ पर पडी थोडा सहमते हुये वह खुद मुझसे बोला - देखो न भाई साहब २ रु खर्च होते-होते बच गये एक घंटे बाद घर पहुंच कर खाना ही तो खाना है!!! तब मुझसे भी रहा नही गया और बोल पडा - वा भई वाह क्या ख्याल है ...... लगता है सारी धन-दौलत पीठ पर बांध कर ले जाने का भरपूर इरादा है ।

बाजार !

आज के बदले इस युग मे ,
बाजार बनी ये दुनिया है ,
इंसा का ईमान है क्या ,
इंसा ही खरीदे जाते हैँ ,

अस्मिता बनी एक वस्तु है ,
"शो-केस" मे दिख जाती है ,
अस्मिता का कोई मोल नही ,
बस बिकती है - बस बिकती है !!

खामोशी !

मेरी तन्हाई में आकर
तुम अक्सर मुझसे बातें करती हो
सामने रहकर
खामोश बनकर मुझसे बातें करती हो
तुम चाह कर भी
जुबाँ से कुछ कहती नहीं
विदा होने पर
मिलने का वादा करती नहीं
क्या समझें हम तुम्हें
कि तुम चाहती हो
पर चाहत का इकरार करती नहीं !

सुना है लोग कहते हैं
कि जब तुम उनसे मिलती हो
तो सिर्फ मेरी ही बातें करती हो
पर जब मेरे पास होती हो
तब क्यों खामोश रहती हो !

ऎसा लगता है
कि तुम हर पल अपने आप से
सिर्फ मेरी ही बातें करती हो
पर जब मेरे पास होती हो
तब क्यों खामोश रहती हो !

अब क्या कहें अपने ‘दिल’ से
जब वो हमसे पूछता है
कि ‘उदय’ तेरी आशिकी
पत्थर दिल क्यों है!
अब क्या कहूँ
जब तुने मुझसे कुछ कहा नही !!

नक्सली समस्या !

नक्सली, कौन है नक्सली /
नक्सली समस्या आखिर क्या है /
और कौन है इसके जन्मदाता
और कौन चाहते है इसकी रोकथाम /
रोकथाम के लिए कौन काम कर रहा है /
नक्सली उन्मूलन के लिए कौन दम भर रहा है /
क्या मात्र दम भरने से उन्मूलन हो जायगा /
या बरसों से दम भर रहे लोगो के साथ /
कुछेको का नाम और जुड़ जायगा
नकसली उन्मूलन के लिए उठाए गए कदम /
क्या कारगर नहीं थे /
कारगर थे तो फिर उन्मूलन क्यों न हुआ /
क्यों कदम उठ -उठ कर लड़खडा गए ,
दम भरने वाले कमजोर थे /
या उठाए गये कदम /
या फिर हौसला ही कमजोर था
समय-समय पर नए-नए उपाय /
और फिर वही ठंडा बस्ता /
आखिर उपायों के कब तक ठंडे बसते बनते रहेंगे /
कब तक माथे पर चिंता की लकीरें पड़ती रहेंगी /
कब तक नक्सलियों के हौसले बड़ते रहेंगे
कब तक भोले भाले लालसलाम कहते रहेंगे /
लालसलाम -लालसलाम के नारे कब तक गूंजते रहेंगे
एयर कंडीशन कमरों -गाड़ियों में बैठने वाले /
एयरकंडीशन उड़न खटोलो में उड़ने वाले /
क्या नक्सली समस्या का समाधान खोज पाएंगे /
क्या लाल सलाम को बाय-बाय कह पाएंगे
एयरकंडीशन में रचते बसते लोग ,
तपती धरती की समस्या को समझ पाएंगे /
सीधी- सादी सड़कों पर दौड़ते लोग /
उबड खाबड़ पग डंडियों पर चलने के रास्ते बना पाएंगे /
सरसराहट से सहम जाने वाले लोग /
क्या नक्सली खौफ को मिटा पाएंगे /
या फिर नक्सली उन्मूलन का दम ......
क्या हम नक्सली समस्या समझ गए है /
क्या हम इसके समाधानों तक पहुँच गए है /
क्या हम सही उपाय कर पा रहे है /
शायद नहीं .......................आख़िर क्यों ?
क्योकि तपती धरती , ऊबड खाबड़ पग डंडियों /
में रचने बसने वालों के सुझाव कहाँ है /
कौन सुन -समझ रहा है उनकी ,
कौन आगे है -कौन पीछे है /
एयर कंडीशन ...................तपती धरती /
................और नक्सली समस्या ?
साथ ही साथ यह प्रशन उठता है /
की नक्सली चाहते क्या है ,
क्या वे लक्ष्य के अनुरूप काम कर रहे हैं /
या फिर सिर्फ मार- काट ............... /
........लूटपाट.......बारुदी सुरंगें /
ही नक्सलियों का मकसद है !!

नेकी !

नेकी, कौन-सी नेकी /
शायद वही तो नहीं /
जिसे लोग कहते हैँ /
नेकी कर दरिया में डाल,
आज के समय में नेकी /
किसके लिये नेकी /
शायद उनके लिये /
जिन्हें नेकी का मतलब पता नहीं /
या फिर उनके लिये /
जिन्हें ज़रूरत तो है /
पर जिनकी नज़रें बदल चुकी हैं
अब नेकी करने वाले /
'ख़ुदा के बन्दों' को भी /
मतलबी समझने लगे हैं लोग
नेकी, अब छोड़ो भी नेकी /
अब वो समय नहीं रहा /
जब नेकी करने वालों को /
'ख़ुदा का बन्दा' कहा करते थे लोग /
अब ज़रूरत मन्दों की /
नज़रें बदल रही हैँ /
ज़रूरत तो है /
सामने ख़ुदा का बन्दा भी है
पर क्या करेँ /
हालात ही कुछ ऐसे हैं /
देखने वालों को /
ख़ुदा के बन्दे भी /
मतलबी दिख रहे हैँ
अब समय नहीं रहा /
नेकी करने का /
दरिया में डालने का /
लोग अब नेकी करने का मतलब /
कुछ और ही समझने लगे हैं
सामने 'ख़ुदा का बन्दा' तो क्या /
ख़ुद "ख़ुदा" भी आ जाये /
तब भी . . . . . . . . . . . . . . ।

उदय !

मैं थका नहीं हूं, तू हमसफ़र बनने आजा
अंधेरे की घटा लंबी है, मेरे संग दीप जलाने आजा

भटकों को राह दिखाना कठिन है 'उदय'
पर जो भटकने को आतुर हैं, उन्हें राह दिखाने आजा

गर बांट नही सकता खुशियां
तो बिलखतों को चुप कराने आजा

'तिरंगे' में सिमटने को आतुर हैं बहुत
पर तू 'तिरंगे' की शान बढाने आजा

अब जंगल में नहीं, भेडिये बसते हैं शहर में
औरत को नहीं, उसकी 'आबरू' को बचाने आजा

मेरे संग दीप जलाने ..............।

दोस्ती !

वो रहनुमा 'दोस्त' बनकर,
हमसे मिलते रहे
और हम उन्हें,
अपना हमदम समझते रहे
चलते-चलते,
ये हमें अहसास न हुआ
कि वो दोस्त बनकर,
दुश्मनी निभा रहे हैं
एक-एक बूंद 'जहर',
रोज हमको पिला रहे हैं !

अब हर कदम पर
देखता हूं, उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर ,
अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते, तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता !

संतोष कर लेता,
देखकर खरोंच सीने की
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
वो निशान पीठ के
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त', और दुश्मन किसे कहें !!

हार-जीत !

हर पल, पाने की चाह
कुछ पल के लिये अच्छी है
समर्पण की भावना
सदा के लिये अच्छी है

जरा सोचो
हमने क्या खोया - क्या पाया
और जरा सोचो
तुमने क्या पाया - क्या खोया

जिंदगी की राहों में
जीत कर भी हारते हैं कभी
कभी हार कर भी जीत जाते हैं

भावना हार-जीत की नहीं
समर्पण की देखो
जीतने वाले को
और हारने वाले को देखो
खुशी को देखो
और अंदर छिपी मायूसी को देखो

फ़िर जरा सोचो
कौन जीता - कौन हारा
कौन हारा - कौन जीता

मत हो उदास जीत कर भी तू
संतोष कर देख कर मुझको
हारा नही हूं, हारा नही हूं ।

Wednesday, February 9, 2011

वेलेन्टाईन डे !

किसी का दिया फ़ूल
हाथों में सजाये हैं
तेरे लिये "वेलेन्टाईन डे" पर
झूठी बहार लाये हैं

दिलों में कुछ नही है उनके
इसलिये हाथों मे फ़ूल सझाये हैं
नजर दौडायेगी
तो हर हाथों में फ़ूल पायेगी

उठा नजर
मत देख मेरे हाथों को
देख सकती है, तो देख
"दिल" ही "गुलाब" है मेरा।

मदिरा !

वह सामने आकर,
मुझको लुभा गई
फ़िर धीरे से,
मुझमें समा गई
रोज सोचता हूं,
छोड दूं उसको
शाम हुई , उसकी याद
फ़िर से आ गई !

दूर भागा तो
सामने आ गई
मैं पूछता हूं ,
क्यों छोडती नहीं मुझको
वह "बेजुबां" होकर भी,
मुझसे लड गई
क्यूं भागता है,
डर कर मुझसे
तू सदा पीते आया है मुझे
क्या आज मै तुझे पी जाऊंगी !

ये माना,
तेरे इस "सितमगर" शहर में
हर कदम पर
"बेवफ़ा" बसते हैं
डर मत
मै बेवफ़ा नहीं - मै बेवफ़ा नहीं।

प्रार्थना !

तेरा - मेरा
अंजाने में एक रिश्ता बनता है
हर पल मैं तुझको -
और तू मुझको भाते हैं

मैं चाहूं तू साथ मेरे हो
तू भी चाहे मेरे संग-संग रहना
फ़िर क्यूं
मुझसे तू - तुझसे मैं
तन्हा-तन्हा रहते हैं

मैं पुकार रहा हूं तुझको
तू आजा मेरे "सूने दिल" में
मेरे दिल में रहकर
तू अपना ले मुझको

फ़िर जब देखे ये जग सारा
तो मुझमें तुझको देखे
मुझमें "तुझको" देखे ।

जज्बात !

कौन मिलता है, कब मिलता है
किन हालात में मिलता है
क्या होते हैं "जज्बात" उसके
क्या हम समझते हैं !

क्यों आया है वो सामने अपने
क्या तमन्ना है दिल में उसके
क्या सोचा हमने !
क्या समझना चाहा हमने !

शायद नहीं, क्यों ?
क्योंकि हमें अपनी पडी थी

हम बोलते गये -
थोपते चले गये उस पर
कभी हंसकर, कभी मुस्कुरा कर
और कभी खामोश बनकर

क्या हम सही थे
ऎसा नहीं कि हम गलत थे !

शायद उसके "जज्बात"
हमसे बेहतर होते
इस जहां से बेहतर होते
पर हमने उसे खामोश कर दिया
वह खामोश बनकर
खडा रहा, सुनता रहा
क्या कहता, खामोश बनकर ।

लम्हें !

अंधकार से इस जीवन में
तुम रोशनी बन कर आ जाओ
मेरे मन के अंधियारों में
एक प्रेम का दीप जला जाओ

खामोश ही बनकर कुछ कहना है
तो अपनी सुन्दर आंखों से, हां कह दो
फ़िर मैं तेरे मन के शब्दों को
खुद-ब-खुद पढ लूंगा

तुम अपने जीवन के कुछ "लम्हें"
मुझको दे दो
उन लम्हों से
मैं अपना जीवन जी लूंगा

हर लम्हे का, एक-एक जीवन कर
इस जीवन में, कई जीवन जी लूंगा

तुम कुछ लम्हें ..................।

होली !

होली आई, आई होली
लेकर आई, खुशियां होली

रंग-गुलाल, छेड-छाड
गली-चौबारे, घर-आंगन
गुजिया-सलोनी, लडडू-पेडे
मौज-मस्ती, हंसी-ठिठौली

बूढे-बच्चे, नौकर-मालिक
साहब-बाबू, गुरु-चेले
महिला-पुरुष, दोस्त-दुश्मन
खेल रहे हैं, मिलकर होली

आन-मान-शान, तिरंगा है पहचान
जात- धर्म, रंग हैं ईमान

तेरा- मेरा, रंगों का है मेला
गोरा- काला, होली है पर्व निराला

होली आई, आई होली
लेकर आई, खुशियां होली

परिवर्तन !

आज नहीं, तो कल
होगा "परिवर्तन"

चहूं ओर फ़ैले होंगे पुष्प
और मंद-मंद पुष्पों की खुशबू
उमड रहे होंगे भंवरे
तितलियां भी होंगी
और होगी चिडियों की चूं-चूं
चहूं ओर फ़ैली होगी
रंगों की बौछार

आज नहीं, तो कल
होगा "परिवर्तन"

न कोई होगा हिन्दु-मुस्लिम
न होगा कोई सिक्ख-ईसाई
सब के मन "मंदिर" होंगे
और सब होंगे "राम-रहीम"

न कोई होगा भेद-भाव
न होगी कोई जात-पात
सब का धर्म, कर्म होगा
और सब होंगे "कर्मवीर"

आज नहीं, तो कल
होगा "परिवर्तन"।

भारत की पहचान !

एक छोटी सी बात अलग है
भारत की पहचान अलग है

कुंभ का स्नान अलग है
हिमालय की शान अलग है
फ़ौजों का आगाज अलग है
रिश्तों में मिठास अलग है

एक छोटी सी ............

होली की गुलाल अलग है
दीवाली की रात अलग है
दोस्ती का मान अलग है
दुश्मनी की घात अलग है

एक छोटी सी ............

इंसा का ईमान अलग है
नारी का स्वाभिमान अलग है
सर्व-धर्म की बात अलग है
भारत की पहचान अलग है

एक छोटी सी बात अलग है
भारत की पहचान अलग है ।

औरत !

'औरत' के श्रंगार को देखो
और उसके व्यवहार को देखो
मन में बसे प्यार को देखो
और अंदर दबे अंगार को देखो

देखो उसकी लज्जा को
और देखो उसकी शर्म-हया को
देखो उसकी करुणा को
और देखो समर्पण को

'औरत' के तुम रूप को देखो
और रचे श्रंगार को देखो
देखो उसकी शीतलता को
और देखो कोमलता को

मत पहुंचाओ ठेस उसे तुम
मत छेडो श्रंगार को
रहने दो ममता की मूरत
मत तोडो उसके दिल को

उसने घर में "दीप" जलाये
आंगन में हैं "फ़ूल" खिलाये
बजने दो हांथों में चूंडी
और पैरों में पायल

मत खींचो आंचल को उसके
मत करो निर्वस्त्र उसे तुम
रहने दो "लक्ष्मी की मूरत"
मत बनने दो "कालिका"

अगर बनी वो "कालिका"
फ़िर, फ़िर तुम क्या ........!

ईश्वर !

मैं चलता हूं
अपनी राहों पर
आवाज देकर न बुलाऊंगा

तुझको आना है
तो आजा मुझ तक
तुझे भी, तेरी मंजिल
पर पहुंचाऊंगा

तेरी मंजिल पर
शुभकामनाएं देकर तुझको
मैं अपनी राहों पर निकल जाऊंगा ।

कर्म !

मैं
निर्माण करूंगा
भाग्य का

मेरे विचार
कर्म का रूप लेंगे
कर्म का प्रत्येक अंश
मेरे भाग्य की आधारशिला होगी

हर पल
मेरे विचार - मेरे कर्म
ही मेरे भाग्य बनेंगे
और मैं ................. ।

सत्य-अहिंसा !

सत्य-अहिंसा के पथ पर
आगे बढने से डरता हूं
कठिन मार्ग है मंजिल तक
रुक जाने से डरता हूं

हिंसा रूपी इस मंजर में
कदम पटक कर चलता हूं
कदमों की आहट से
हिंसा को डराते चलता हूं

झूठों की इस बस्ती में
फ़ंस जाने से डरता हूं
'सत्य' न झूठा पड जाये
इसलिये "कलम" दिखाते चलता हूं

सत्य-अहिंसा के पथ पर
आगे बढने ......................।

छोटी सी ज्वाला !

एक समय था जल रही थी
ऊंच-नीच की 'छोटी सी ज्वाला'
कुछ लोगों ने आकर उस पर
जात-पात का तेल छिडक डाला

भभक-भभक कर भभक उठी
वह 'छोटी सी ज्वाला'
फ़िर क्या था कुछ लोगों ने
उसको अपना हथियार बना डाला

न हो पाई मंद-मंद
वह 'छोटी सी ज्वाला'
अब गांव-गांव, शहर-शहर
हर दिल - हर आंगन में
दहक रही है 'छोटी सी ज्वाला' ।

मंजिल !

अगर चाहोगे
मुश्किलें हट जायेंगी
हौसला है लडने का
हर जंग जीत जाओगे

मत देखो पहाडी को
कदम बढाओगे
चोटी पर पहुंच जाओगे

हौसला है मजबूत
आग के दरिया को
तैर कर निकल जाओगे

गर डर गये काटों से
तो फ़ूल कहां से पाओगे
चाह बनेगी दिल में
तो राह मिल जायेगी

मत रुको डर कर
मत रुको थक कर
चलते चलो, बढते चलो
"मंजिल" को पा जाओगे
अगर चाहोगे ........... ।

पुलिस का डंडा !

पुलिस का डंडा कहां है
पुलिस वाले तो निहत्थे खडे हैं
अब कोई डरे, क्यों डरे
निहत्थों से भला कोई डरता है क्या !

पुरानी कहावत है -
जिसकी लाठी उसकी भैंस
जब डंडा नहीं तो काहे की भैंस

मैंने पूछा एक पुलिस वाले से
क्यों भाई आपका डंडा कहां है ?
वह मुस्कुरा कर बोला, साहब जी
डंडा "अलादीन" का "जिन्न" ले गया

तो रगडो "चिराग" को
वह बोला - चिराग बडे लोगों के पास है
उनसे कहो रगडने के लिये
उनसे कहने की जुर्रत किसकी है !!!

अगर कोई कह भी दे
तो उनके हाथ खाली कहां हैं
दोनों हाथों में "कुर्सी"
और पैरों में "चिराग" उल्टा पडा है

उन्हें डंडे की कहां, अपनी कुर्सी की पडी है
मतलब अब निहत्थे ही रहोगे
निहत्थे रहकर
कानून और जनता की रक्षा कैसे करोगे

पुलिस वाला बोला - साहब जी
खेत में खडा "बिजूका" भी तो निहत्था खडा है
सदियों से खेत की रक्षा करता रहा है
हम भी "बिजूका" बन कर रक्षा करेंगे

जो डरेगा उसे डरा देंगे
जो नहीं डरा उसे .......

हमारा क्या होगा
ज्यादा से ज्यादा कोई "भैंसनुमा" मानव
धक्का मार कर गिरा देगा
कानून और जनता की धज्जियां उडा देगा

मतलब अब कानून और जनता की खैर नहीं
नहीं साहब जी
कानून, जनता और पुलिस तीनों की खैर नहीं ।

हालात !

तेरी एक निगाह ने
फ़िर तेरी मुस्कान ने
कुछ कहा मुझसे

क्या कहा-क्या नहीं
मैं समझता जब तक
तेरे 'हालात' ने कुछ कह दिया मुझसे

इस बार शब्द सरल थे
पर 'हालात' कठिन थे

वक्त गुजरा, 'हालात' बदले
फ़िर तेरी आंखों ने कुछ कहा मुझसे
हर बार कुछ-न-कुछ कहती रहीं

क्या समझता - क्या नहीं
क्या मैं कहता - क्या नहीं

एक तरफ़ तेरी खामोशी
एक तरफ़ मेरी तन्हाई
खामोश बनकर देखते रहे
तुझको - मुझको
मुझको -तुझको ।

कलयुग का आदमी !

अब सोचता हूं
क्यों न "कलयुग का आदमी" बन जाऊं
कलयुग में जी रहा हूं
तो लोगों से अलग क्यों कहलाऊं

बदलना है थोडा-सा खुद को
बस मुंह में "राम", बगल में छुरी रखना है
ढोंग-धतूरे की चादर ओढ के
चेहरे पे मुस्कान लाना है
झूठी-मूठी, मीठी-मीठी
बातों का झरना बहाना है
"कलयुग का आदमी" बन जाना है

फ़िर सोचता हूं
कलयुग का ही आदमी क्यों !
अगर न बना, तो लोगों को
"पान" समझ कर "चूना" कैसे लगा पाऊंगा
एक औरत को पास रख कर
दूसरी को कैसे अपना बना पाऊंगा

क्या कलयुग में रह कर भी
खुद को बेवक्कूफ़ कहलवाना है
अगर न बने कलयुगी आदमी
कैसे बन पायेंगे "नवाबी ठाठ"
कहां से आयेंगे हाथी-घोडे
कैसे हो पायेगी एक के बाद दूसरी ...
दूसरी के बाद तीसरी ..... शादी हमारी

कैसे ठोकेंगे सलाम मंत्री और संतरी
कैसे आयेगी छप्पन में सोलह बरस की
कैसे करेंगे लोग जय जय कार हमारी
यही सोचकर तो "कलयुग का आदमी" बनना है

लोगों से अलग नहीं
खुद को अपने से अलग करना है
मौकापरस्ती का लिबास पहनकर
झूठ-मूठ के फ़टाके फ़ोडना है
बस थोडा-सा बदलना है खुद को
एक को सीने से लगाकर
सामने खडी दूसरी को देखकर मुस्कुराना है
"कलयुग का आदमी" का आदमी बन जाना है !

Wednesday, February 2, 2011

मोहब्बत हो गई, शायद !

प्यार किसे कहते हैं
क्या होता है
सच, मैं जानता नहीं था
लोग बातें करते
मुझे कुछ समझता नहीं था
फ़िल्में भी देखीं
किन्तु कुछ अहसास नहीं जगा
एक मित्र तो रोज
कुछ कुछ मुझसे ही
प्रेम की बातें बतियाता
फिर भी कुछ समझ सका
पर आज, सच, कुछ हुआ है मुझे
बेचैन सा हुआ हूँ
जाने क्या हुआ, क्यूं हुआ !

काश ! तुम
मेरे पास से गुज़री होतीं
गुजर भी जातीं
तो कोई बात होती
पर गुजरते गुजरते
तुम्हारा दुपटटा
काश ! मुझे
छुए बगैर निकल जाता
दुपट्टे ने, मुझे छुआ
मैं सिहर सा गया
शायद अभी तक, सिहरन है
मेरे जहन में
क्यूं, कुछ समझ से परे है !

मैं बेचैन, व्याकुल
इधर - उधर निहारता
कुछ तलाशता, शायद
मैं थम सा गया
दुपट्टे के इर्द-गिर्द
इन्हीं हालात में, मैं
एक मित्र से घंटों बातें
जाने क्या क्या !
उसने मुझे पकड़
हिलाया, झकझौर दिया
और चिल्ला के बोला
बता, किससे मोहब्बत हुई
कब हुई, कैसे हुई
मैं भौंचक्का सा, देखता रहा
पूछा, मोहब्बत, मुझे
हाँ, छलक रही है
उफ़, सच, मुझे
मोहब्बत हो गई, शायद
दुपट्टे ने ........ !!

हाईप्रोफाइल लाईफ !

राहुल, तुम क्यूट हो, सुन्दर हो
हाँ, जानती हूँ, तुम मुझसे प्यार
अनजाने में, प्यार, करने लगे हो
पर तुम, शायद, मुझे, मेरे बारे में
अनजान हो, पता नहीं है तुमको
मैं कौन हूँ, कैसा जीवन है मेरा
शायद, कुछ भी नहीं जानते
जानते हो, तो सिर्फ, मेरा रंग-रूप
शान-शौकत, हाईप्रोफाइल लाईफ !

सच ! तुम, कुछ भी नहीं जानते
या फिर, चाहत के अंधेपन में
कुछ जानना ही नहीं चाहते
मैं देख रही हूँ, तुम कई महीनों से
मेरे इर्द-गिर्द हो, उत्सुक हो
मुझे आभास है, तुम्हें, मेरे जिस्म
की भूख, भी नहीं है, तुम्हारा प्यार !

उफ़ ! आओ, मेरे पास बैठो, सुनो
इस शहर में, जीवन नहीं है
भावनाएं, जज्बात, इच्छाएं,
यहाँ, एक अलग ही दस्तूर है
हैं तो सब, पर नहीं भी हैं
मेरी सैलरी, बीस हजार, और खर्च
शायद, पचास हजार से भी ज्यादा हो
कैसे जीती हूँ, क्या करती हूँ
तुम्हें कुछ पता नहीं है, फिर भी तुम !

ये गाडी, जिसका खर्च, पंद्रह हजार
ये फ़्लैट, खर्च, बीस हजार
मोबाइल, कपडे, होटलिंग, बगैरह
ये सब आसान, सरल नहीं है
एक सौदा है जिन्दगी, समझौता है
गाडी के एबज में, बॉस के साथ
महीने में तीन-चार रातें, टूर पर
फ़्लैट के एबज में, एक व्यापारी मित्र
महीने-दो महीने में, दो-तीन दिन
आता, साथ रहता, फिर चला जाता !
इन सब में, उनका कोई जोर नहीं
मेरी मजबूरी भी नहीं, मात्र समझौता है
जिन्दगी की रेस में, दौड़ है मेरी
कम्प्रोमाइस, एडजस्टमेंट, तालमेल
यही हाईप्रोफाइल लाईफ है !

ये सब जानकर भी, तुम, मुझसे, प्यार
सुनो, सोच, समझकर, पंद्रह दिन बाद
यदि, तुम, फिर भी चाहोगे, मुझे
तो मेरी, हाँ, होगी, जैसा तुम चाहोगे
तुम्हारे अनुरूप ढल जाऊंगी
लेकिन, मुझे, तुम्हारे
प्यार, उत्तर, हाँ, का जवाब
आज नहीं, पंद्रह दिन बाद चाहिए
ताकि तुम्हें कोई, गलतफहमी रहे ... !!