Friday, September 30, 2011

नक्सलवाद, सरकार ... जय हो !!

गर सरकार, सरकारें
चाहती हैं
कि -
नक्सलवाद, नक्सली समस्या
ख़त्म हो
तो होनी ही चाहिए !

पर, कैसे
क्या समाधान की दिशा में
कोई सार्थक
पहल, उपाय हो रहा है
शायद ! नहीं !!

यदि सरकारें
खुद ही, नहीं चाहतीं
समाधान
तब, फिर, नक्सलवाद
अपने आप में
कोई समस्या ही नहीं है !

और जब समस्या नहीं है
तो समझो नहीं है
गर होती समस्या
तो निश्चित ही, कोई न कोई
चिंतित जरुर होता !

जब कोई चिंतित नहीं
मतलब
नक्सलवाद ...
कोई समस्या नहीं
नक्सलवाद, सरकार ... जय हो !!

उफ़ ! ये कैसी सरकार है !!

गरीब, किसान, मजदूर
मरते हैं मर जाने दो
किसी को कोई नहीं दरकार है !

न सर है, न सरकार है
चहूँ ओर
फिर भी मची जय जयकार है !

गरीब, किसान, मजदूर
का जीवन दुश्वार है
फिर भी सरकार असरदार है !

पेट्रोल, डीजल, गैस, दूध
की कीमतें छू रही आसमान हैं
फिर भी सरकार की खूब शान है !

चहूँ ओर से हो रही पुकार है
सुनने को कोई नहीं तैयार है !
उफ़ ! ये कैसी सरकार है !!

डगमगाए कदम !

सच ! मर कर भी
कहीं
मैं
न ज़िंदा हो जाऊं
शायद, इसलिए ही
कदम उनके
डगमगाए हुए हैं !
वो जानते हैं
मानते हैं
कि -
मेरे वादे
पत्थर पे लकीरों से रहे हैं !
कहीं ऐसा न हो
मर कर
दफ्न होकर भी
वापस आ जाऊं !
एक वादा
उन्हें मिटाने का -
अधूरा जो रह गया है
शायद ! इसलिए ही
मेरे दोस्त, मुझे दफ्न कर
भी घवराये हुए हैं !
और कदम उनके
खुद-ब-खुद डगमगाए हुए हैं !!

दास्ताँ-ए-मोहब्बत

मरने को तो मर गए हैं लेकिन
फिर भी हम जिए जा रहे हैं !

बुझ तो गई हैं लकडियाँ सारी लेकिन
अंगार अब भी दहके जा रहे हैं !

जर्रा जर्रा जिस्म का जल गया है लेकिन
रूह वहीं पे खड़ी मुस्काये जा रही है !

भुलाना चाहा है तुमने हमको लेकिन
फिर भी हम याद आ रहे हैं !

ये कैसी मुहब्बत की थी तुमने हमसे
जो मर कर भी हम तुम्हें याद आ रहे हैं !

जर्रा जर्रा तुमने है भुलाना चाहा लेकिन
जर्रा जर्रा हम याद आ रहे हैं !!

Friday, September 23, 2011

उफ़ ! ये एयर कंडीशन !!

हमारे मंत्रियों और अफसरों को ...
एयर कंडीशन
बंगला, आफिस, कार
की बुरी लत लग गई है, इसलिए
सरकार ने फैसला लिया है
कि -
एयर कंडीशन
आगे से प्रोवाइड न किये जाएं
सांथ ही सांथ
पूर्व से लगे हुए समस्त एयर कंडीशन
वापस निकलवा कर, कबाड़ में बेच दिए जाएं !

यदि
समय रहते ऐंसा नहीं किया गया तो -
वह दिन दूर नहीं
जब अपना मुल्क कबाड़खाना बन जाए !
इसलिए
इस स्वयं-भू सरकार ने
देशहित में यह फैसला लिया है,
पालन हो
सांथ ही सांथ, यह फैसला
अपील, विचार, पुनर्विचार योग्य नहीं होगा !

सामान्य तौर पर देखा गया है
कि -
एयर कंडीशन के आदि हो चुके
मंत्री, नेता, अफसर
एयर कंडीशन से बाहर नहीं निकलते हैं
इसलिए ही
गरीब, किसान, मजदूर
की सही दशा, मालुम नहीं पड़ पा रही है
शायद यही कारण है कि -
खाने-पीने के खर्च के सही आंकड़े ...

कौन गरीबी रेखा के नीचे जी रहा है
और कौन नहीं !
यह भी स्पष्टत: ज्ञात नहीं हो पा रहा है !

इसी कारण से
आलू, प्याज, मिर्ची, टमाटर, दूध
का भी असल भाव
सरकार को पता नहीं चल पा रहा है
सांथ ही सांथ
यह भी ज्ञात नहीं हो पा रहा है
कि -
मुल्क में
सड़कें, स्कूल भवन, अस्पताल, इत्यादि
हैं भी या नहीं !

आज जारी यह आदेश -
तत्काल प्रभाव से लागू हो
यदि कोई
इस आदेश के पालन में
किसी भी प्रकार की आना-कानी करता है
तो उसे तत्काल प्रभाव से
नजदीकी जेल में डाल दिया जाए !
ये एयर कंडीशन
बेहद भयाभय व जान लेवा है
जो नक्सलवाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, से भी -
कहीं ज्यादा खतरनाक है, उफ़ ! ये एयर कंडीशन !!

Thursday, September 22, 2011

सरकारी रोटी

न जाने कब तलक
ये मौन की भाषा चलेगी
सुनेगा कौन, बोलेगा कौन
और कौन होगा
जो
ये फैसला करेगा
कि -
एक रोटी थी, जो
रखी थी, सरकारी मेज पर
मौक़ा मिला
आमने-सामने बैठे, दोनों ने
गुप-चुप तरीके से
दो तुकडे किये
और दोनों ने, एक-एक टुकड़ा
फटा-फट सूत लिया !
अब
दोनों मिलकर, हल्ला कर रहे हैं
और लड़-लड़ पड़ रहे हैं
कि -
किसने खाई रोटी -
कहाँ गायब हुई रोटी !
पहला बोलता है
दूजा सुनता है
दूजा बोलता है
पहला सुनता है
रोटी, रोटी, सरकारी रोटी ...
जनमानस, जनसंसद, मूकबधिर ... !!

मोहब्बत के चिराग

वो खामोशी में गुस्सा जता रहे थे
बात दिल की दिल में छिपा रहे थे !

हमने जब पूंछा सबब उनसे
तो रूठे-रूठे ही मुस्कुरा रहे थे !

हम इतने नादां थे, फिर भी
उनके दर को खट-खटा रहे थे !

रोज दे देकर तसल्ली दिल को
हम खुद को आजमा रहे थे !

कैसे टूटेगी अब ये उलझन मेरी
यही सोच सोच के घवरा रहे थे !

आस के मोहब्बती चिरागों को
बार बार बुझने से बचा रहे थे !!

Wednesday, September 21, 2011

औरत ...

कभी गुलाब
कभी रात-रानी हूँ मैं
फूल हूँ
फूलों में खुशबू भी हूँ मैं !

कभी मुहब्बत
कभी मुहब्बत की रश्में हूँ मैं
भोर की किरणें
रात की चांदनी हूँ मैं !

कभी धरा
कभी खुला आसमां हूँ मैं
सिर्फ तुलसी नहीं
पीपल की छाँव भी हूँ मैं !

कभी सब
कभी जन्नती शाम हूँ मैं
लम्हें लम्हें में
सुकूं की अमिट रात हूँ मैं !

बिखरी बांहों में
सिमटती आस हूँ मैं
सागर हूँ मैं
समाती नदिया भी हूँ मैं !

जमीं के जर्रे जर्रे
और सारी फिजाओं में हूँ मैं
दिलों की धड़कन हूँ
रगों में बहता लहु भी हूँ मैं !

मैं सुनती हूँ अक्सर
तुम ही तो कहते हो
मैं सारा जहां हूँ
सिर्फ औरत नहीं हूँ मैं !!

Monday, September 19, 2011

... वरना लोग यूं ही, फना न हुए होते !

काश ! हमारे देश का मुखिया गूंगा, बहरा, या मूकबधिर होता
पर जो होता, जैसा होता, हमारे सामने तो होता !!

...
कूदने
को कूद जाओ, क्या फरक पड़ता हमें
रंज
मत करना कभी, क्यों हमने रोका नहीं !
...
नहीं होता मैं थोड़ा बुरा, तो फिर भला होता कैसे
मेरी सूरत से ज्यादा, कहीं मेरी सीरत भली है !!

... 
 सच ! जब से आए हैं हम, तेरे पल्लु के साये में
सिर्फ मुजरिम नहीं, 'निगरानीशुदा' भी हुए हैं !
...
इस दौर में हदें तो वाकई बहुत पार हुई हैं
कभी तुम से, कभी हम से, हद तो हुई है !
...
 
हर ओर, चंहू ओर, खासम-खासों की खूब चर्चा है 'उदय'
उफ़ ! उनका क्या होगा, जो तल्ख़-तीखे-कंटीले हुए हैं !!
...
 
सच ! चंहू ओर कातिलों की मौज है 'उदय'
हाँथ हथकड़ियों से भी ज्यादा मजबूत हुए हैं !
...
हम कौन हैं, कहाँ जा रहे हैं, ये हमको नहीं है खबर
और तुम हो कि - हम से ही हमारा पता पूंछते हो !

...
हे 'सांई', इरादे मेरे इतने बुलंद कर दे
कदम चलते रहें, और भीड़ बढ़ती रहे !! 
... 
दिल, दिलवर, दिलदार, खुश और खुशहाल हो
चंहू ओर, आँगन-आँगन, तेरी - मेरी ईद हो !!

...
जिन्होंने खुद को जला-जला कर बस्ती में उजाले किये हैं
उफ़ ! आज उन्हीं पे बस्ती जलाने के इल्जाम थोपे गए हैं !
...
खुद से, खुद का, रूठकर बैठ जाना कहाँ मुमकिन
पल दो पल के तराने हैं, खुद-ब-खुद आने-जाने हैं !
...
किसी ने खुद को, क्या खूब छिपा कर रक्खा है 'उदय'
होता तो है सामने, पर आँखों से छिपा होता है !
...
आज कर ही दो तारीफ़ मेरी, कि ये सारे शेर मेरे हैं
भले चाहे ये निकले हों, तेरी कातिल अदाओं से !!
...
हम पहले सही थे, या आज सही हैं
अब इसका फैसला होना है 'उदय' !
...
सच ! कहीं कुछ तो हैं, अदाएं कातिलाना
वरना लोग यूं ही, फना न हुए होते !!
...
आँख होकर भी जिन्हें, कुछ भी नहीं दिखता यारो
उनकी सीरत में, हमें खोट ही खोट दिखाई देता है !
...
सच ! चलो अब तोड़ भी दो, तुम खामोशियाँ अपनी
है 'ईद' का मौक़ा, तुम्हारी न भी, हमें मंजूर होगी !!
...
कुछ हैं जो चाहते हैं, देश में बे-वजह झगड़े-फसाद हों
पर हम नहीं चाहते, फूलों की चाह में, कांटे नसीब हों !

Sunday, September 18, 2011

मुख्यमंत्री जी

हमारे मुख्यमंत्री जी कुछ सोच रहे हैं
कि -
क्या नया किया जाए
परिणाम स्वरूप
हम भी सुर्ख़ियों में रहें, बने रहें
हमारी भी जय जयकार हो
जैसे
अन्य मुख्यमंत्रियों की हो रही है !

कुछ न कुछ तो ...
नहीं तो ...
पर क्या करें, कोई तो सुझाए
हमारे रणनीतिकार, सलाहकार
अब क्या कहने उनके, शुभान-अल्लाह ...
कुछ न कुछ तो करते हैं
पर कुछ भी हट के नहीं करते
ऐसे, कैसे, कब तक, यूं ही चलते रहेगा !

उनकी चिंता जायज थी
मुख्यमंत्री जो हैं
ये बात, उनके चेले-चपाटे, शुभ-चिंतकों के -
बीच से, उड़ती-उड़ाती, मुझ तक आ पहुँची थी
क्या करता, चुप रहना भी जायज ...
आखिर मैं भी तो राज्य का ही ...
फिर मैंने, बैठे बैठे, गुन्ताड लगाया
सोचा, समझा, विचारा, और तय किया
कि -
हमारे मुख्यमंत्री जी ...
चुप नहीं रहेंगे, करेंगे, कुछ-न-कुछ जरुर करेंगे
मैंने, बैठे बैठे, मांसिक तरंगों से -
'सिक्स्थ सेन्स' के माध्यम से सन्देश भेज दिया !

अब हमारे मुख्यमंत्री जी -
नशाबंदी
बेरोजगारी
भ्रष्टाचार निवारण
नक्सली उन्मूलन
स्कूली निशुल्क शिक्षा
बस्ताविहीन पाठ्यक्रम
पारदर्शी स्थानान्तरण नीति
कार्यों की जवाबदेही व समयसीमा
सशक्त लोकायुक्त व्यवस्था
पलायन प्रथा की जड़ों पर ...
गंभीर से गंभीर चिंतन-मनन कर रहे हैं !

इन सब के बीच -
भ्रष्ट मंत्रियों
भ्रष्ट नौकरशाहों
भ्रष्ट ठेकेदारों
पर नकेल कसने की भी तैयारी है !

सांथ ही सांथ -
भ्रष्ट, झूठे, फरेबी, मौकापरस्त
सलाहकारों, रणनीतिकारों पर भी गाज गिरने वाली है !

बस
दो-चार दिन, या दो-चार हफ़्तों में ही
हमारे मुख्यमंत्री जी ...
की भी जय जयकार होने वाली है
विचार, चिंतन, मनन, विमर्श, गहमा-गहमी जारी है !!

अनशन ...

आज
लोकतंत्र का
एक अजीबो-गरीब चेहरा
सामने नजर आया है
पक्ष - विपक्ष
दोनों अनशन पर हैं
और मकसद
अबुझ पहेली है
बूझो तो जानो, जानो तो बूझो !
शायद
शो गेम, पावर गेम
या फिर
अपनी डफली, अपना राग !
कोई
समझाए तो समझें
न समझाए तो न समझें !
क्या करें
जनमानस अचंभित है !
क्या हुआ है
क्या हो रहा है
क्यों हो रहा है
चंहू ओर
अनशन की जय जयकार है !
लोकतंत्र की, जय हो, जय हो, जय हो !!

Saturday, September 17, 2011

हम ...

हम
उस ओर देखते हैं
जिस ओर आरजू है !

हम
उस ओर दौड़ते हैं
जिस ओर जिन्दगी है !

हम
उस ओर पलटते हैं
जिस ओर रास्ते हैं !

हम
उस ओर ठहरते हैं
जिस ओर ज्ञान है !

हम
उस ओर लपकते हैं
जिस ओर चाहतें हैं !

हम
उस ओर उमड़ते हैं
जिस ओर आसरे है !

हम हैं
ये हम हैं
सच ! ये हम ही है !!

गुरु की महिमा

सत्य के पथ पर
चलते चलते
मिलते
कुछ अंधियारे हैं !
सांथ गुरु की कृपा हो
तब
हो जाते उजियारे हैं ...
गुरु की महिमा
गुरु ही जाने
भक्त तो बढ़ते रहते हैं
चलते चलते
बढ़ते बढ़ते
मंजिल में मिल जाते हैं !!

Friday, September 16, 2011

मंहगाई, सरकार, जनसंसद ... जय हो !

मंहगाई, उफ़ ! जानलेवा मंहगाई
अभी अभी, कुछ देर पहले
मैं सोच रहा था, सोच रहा हूँ
सच ! सोचने के लिए मजबूर हूँ !!
कि -
यदि, इसी तरह
पेट्रोल, डीजल, तेल, गैस, सब्जी, दूध के दाम बढ़ते रहे
तब
जनता, जनमानस, जनसंसद
क्या करेगी, क्या कर पायेगी ...
शायद ! कुछ भी नहीं, कुछ कर भी नहीं सकती !!

क्यों, क्योंकि
जनता, आदि हो गई है, उसे आदत पड़ गई है
कुछ नहीं करने की, कुछ नहीं कर पाने की !
क्यों, क्योंकि, कुछ कर भी नहीं सकती, वो इसलिए
कि -
उसके पास कुछ करने लिए कोई 'पावर' ही नहीं है
चुनाव ! जी नहीं, बहुत दूर की बात है, तत्कालीन तौर पर
जनता, जनमानस, जनसंसद
असहाय है, और असहाय रहेगी, लेकिन कब तक
तब तक, जब तक
इन विकट, विकराल, परिस्थितियों से लड़ने के लिए
कोई संवैधानिक अधिकार नहीं होगा !

अब सोचने वाली बात तो ये है
कि -
ये अधिकार कैसे आयेगा, कहाँ से आयेगा
जिससे की इन परिस्थितियों से निपटा जा सके
नहीं तो, हर बार की तरह, इस बार भी -
और इस बार की तरह, अगली बार भी, इसी तरह
दाम बढ़ते रहेंगे, कीमतें बढ़ती रहेंगी, मंहगाई बढ़ती रहेगी !
और जनता, जनमानस, जनसंसद
हाँथ पे हाँथ धरे, चीख-चिल्ला कर, बोल-बतिया कर
अपनी खीज उतारते रहेगी
पर, ऐसा कब तक चलेगा, कब तक चलते रहेगा
यह सोचनीय, विचारणीय पहलु है ...
मंहगाई, सरकार, जनसंसद ... जय हो !!

Thursday, September 15, 2011

क्या नक्सलवाद एक समस्या है !

क्या नक्सलवाद एक समस्या है !
जी हाँ
जी नहीं
हाँ, है तो, पर वैसी नहीं है
जैसी
अन्य समस्याएं होती हैं
तो फिर कैसी है !

ये समस्या तो है
पर समस्या नहीं है
गर होती समस्या, तो समाधान भी होता
या निकाला जाता
या निकालने का प्रयास किया जाता
मतलब
समस्या है, पर वैसी नहीं है
जिसका समाधान निकाला ही जाए !

इसलिए, इसलिए तो
चल रहा है
धक् रहा है
कोई गंभीर, अति-गंभीर नहीं है !
होना भी नहीं चाहिए
जब समस्या नहीं
गंभीर नहीं
तो फिर किस बात की गंभीरता !
गंभीरता नहीं
तो फिर, समाधान, क्यों, किसलिए !!
कहीं ऐसा तो नहीं, नक्सलवाद ... समस्या ही ... !!!

रंज

घड़ी-दो-घड़ी तुम मुझसे
मुंह मोड के देखो
दो-चार दिन के लिए
मुझे तुम छोड़ के देखो
गर न हो जाए रंज
खुदी को खुद से
तब कहना, नहीं है यकीं
तो जाओ, चले जाओ
मेरा दिल तोड़ के देखो !!

'हिन्दी'

'हिन्दी' है
जो हमें आज भी
घर-आँगन
खेतों-खलियानों
बाग़-बगीचों -
में कलियों सी खिलती लगे है
लगे तो है लगे, पर
कहीं ज्यादा 'पूजा की माला' लगे है !


'हिन्दी' है
जो हमें आज भी
चन्दन
गुलाब
कस्तूरी
में महकती खुशबू लगे है
लगे तो है लगे, पर
 
कहीं ज्यादा 'हवन की खुशबू' लगे है !

'हिन्दी' है
जो हमें आज भी

माँ के गुस्से
बाप की डांट
गुरु की लताड़ -
में भी कुछ न कुछ देती लगे है
लगे तो है लगे, पर
कहीं ज्यादा 'मिश्री सी मीठी' लगे है !


'हिन्दी' है
जो हमें आज भी

दोस्ती
मुहब्बत
भाईचारे -
में कदमों संग कदम बन चलती लगे है
लगे तो है लगे, पर
कहीं ज्यादा 'जिन्दगी का साया' लगे है !


'हिन्दी' है
जो हमें आज भी
दिल की
मन की
ख्यालों की
ख़्वाबों की -
'दुल्हन' लगे है
लगे तो है लगे, पर
कहीं ज्यादा 'मंदिर की मूरत' लगे है !!

... कहीं-न-कहीं तो ये डगर जाएगी !

भ्रष्टाचारियों को शर्म भी आए, तो भला क्यों आए
बेशर्मी ने ही तो उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है !
...
क्या खूब चाहतें हैं, भले चुप-चाप ही सही
उफ़ ! कोई वेपर्दा है, तो कोई पर्दे में है !!
...
सच ! चलो जाने भी दो, किसी मासूम का दिल है
कभी गुमसुम रहता है, कभी ये हंस भी लेता है !!
...
हाई अलर्ट पे हाई अलर्ट, क्या खूब हाई अलर्ट है
एक के ऊपर एक रखते-रखाते, खूब हाई हुआ है !
...
सच ! अब क्या कहें, हमें होश कहाँ रहता है
लिखते लिखते 'शेर', 'बब्बर शेर' हो जाता है !!
...
अब तो ख्याल भी करता हूँ तो दो-चार मर जाते हैं
सच ! कोई बहुत खुश है, मेरे काम-धंधे से !!
...
सच ! अब कोई इस तरह मुझ पे इल्जाम लगाए
लिखता तो 'मीठा' ही हूँ, लोगों को 'कडुवा' लगे है !
...
अब कोई इन दलालों पे, भला क्यूं तोहमत लगाए
ये जिस्म, ईमान, और अब मुल्क के सौदागर हुए हैं !
...
अब क्या कहें, हम क्या हैं, क्या नहीं हैं
फिलहाल तो फकीरी शान, जिंदाबाद है !! 
... 
शायद कहीं कहने-सुनने, देखने-समझने में चूक हुई होगी
वरना ! आँखों का क्या, सदा ही डब-डबाई होती हैं !!
...
था कुछ अंधेरा वहीं पर, जहां से उजाला था
बुझ गया चिराग, फिर अंधेरा ही अंधेरा था !
...
कच्चे, खट्टे, पिलपिले, अधपके, नादां कलाकार
उफ़ ! कौन जाने, कब, कौन, क्या गुल खिला दे !
...
मेरे मुल्क में, मेरे ही लोग, चोर, खुदगर्ज, भ्रष्ट हुए हैं
सच ! कम से कम अंग्रेज भ्रष्ट तो नहीं थे !!
...
कभी समेटने, तो कभी सहेजने में वक्त गुजर जाता है
'उदय' तुम ही बताओ, किस घड़ी तुम्हें मैं प्रेम करूं !!
...
जब तलक धरती के भीतर, धधकते आग के शोले रहेंगे
सच ! तब तक गांधी, सुभाष, आजाद, जन्म लेते रहेंगे !
...
बात कड़वी जो कही, तीर-सी जा घुस बैठी
बात मीठी, जानें, क्यूं बेअसर हो जाती है !
...
जिन हांथों से करता रहा मैं गुनाह हर घड़ी
आज उन हांथों से, कैसे मैं इबादत कर लूं !
...
'उदय' जाने, किस ओर, कहाँ तक, मेरी नजर जाएगी
पर इतना तो तय है, कहीं--कहीं तो ये डगर जाएगी !
...
भीड़, जुनून, सुकून, थकान, और ये आराम के पल
उफ़ ! जाने कौन था, जो नजर डाले हुए था !!
...
पप्पू बेगुनाह था, पप्पू के पापा बेगुनहगार थे
फिर कौन गुनहगार था, कौन गुनहगार है !

... मरने को तो हम कब के मर चुके हैं !

देर से सही, बात दिल की, जुबां पे आई तो सही
क्या वजह थी शायरी की, समझ आई तो सही !
...
आज ये सफ़र, मुंबई लोकल सा लगे है
उतरते-चढ़ते, धक्के-पे-धक्का लगे है !
...

हम ! शायद कुछ भी तो नहीं हैं
सिर्फ एक मुसाफिर के सिवा !!
...
सच ! बात कड़वी लगे, तो लगने दो
कम से कम आईना तो झूठ न बोले !
...
'खुदा' जाने क्यों लोग खुद को तीस मार खां समझते हैं
आलोचना में क्या रखा है, दम है तो समीक्षा की जाए !
...
बा-अदब जो कह दिया, स्वीकार है
कौन जाने फन बड़ा, या बड़ा फनकार है !
...
गर फर्क होता भी तो हम समझते कैसे
जब भी देखा, अदाएं कातिलाना रहीं !
...
 
हम आईने बदल बदल के खुदी को देखते फिरे
उफ़ ! कोई भी आईना, चेहरा बदल नहीं पाया !
...

कल तक जो खामोश खड़े थे, हांथ बांध कर हांथों में
आज उन हांथों का जोश देख लो, हर जलती मशालों में ! 
... 
किताबों में नहीं था, सितारों में नहीं था
मैं कुछ तो था मगर, कुछ भी नहीं था !

...
कभी चमगादड़, कभी गीदड़, कभी डोगी होता है
ये किस नस्ल का है, घड़ी-घड़ी सूरत बदलता है !
...
जो खाए थे, वो अंगूर बहुत मीठे निकले
जो चखे नहीं, 'खुदा' जाने वो कैसे खटटे निकले !
...
तुम चंद घंटों में ही नींद-नींद चिल्ला रहे हो
और एक हम हैं, जो सदियों से जागे हुए हैं !
...
क्या लिखूं, क्या नहीं, चहूँ ओर शोर है
झूठ की मंशा है जीत जाए, पुरजोर है !
...
जन्नती हूरों की उमर होगी लाख बरस लेकिन
ये न भूलें कि - जिस्म सोलह सा करारा होगा !
...
रोज खतों को देते-लेते, मुझको उससे प्यार हुआ है
अब खतों को देख-देख के, हम दोनों हंस लेते हैं !!
...
रश्म-ओ-रिवाज अब तुम इतने भी न कड़े करो यारो
मोहब्बत हमारी, तुम तक जाते जाते न दम तोड़ दे !
...
बिना देखे, हम ये कैसे फैसला कर लें
जन्नत है, जन्नत की हकीकत देखें !
...
कभी आशाएं, कभी अभिनव प्रयोग, हमें ज़िंदा रखे हैं 'उदय'
वरना मरने को तो हम कब के मर चुके हैं !

Wednesday, September 14, 2011

हिंद की शान है हिन्दी ...

सच ! कहीं ऐसा न हो, स्वर्ण मूर्तियाँ सहेज ली जाएँ
और पत्थर की मूर्तियाँ शोध के लिए छोड़ दी जाएँ !
...

आज उनके क़त्ल का इल्जाम, हम पे लग गया यारो
सच ! जिनसे बच-बुचा कर हम खुद जीते रहे थे !
...
जिनके वादों से मौत का ये मुकाम है आया
न तो वो, और न ही उनका पैगाम है आया !
...
सच ! किसी को खूब, बहुत खूब भाने लगे हैं हम
सुना है कुर्बानी के बकरे नजर आने लगे हैं हम !
...
आज हमने एक फरेबी से हाँथ मिला लिया है
उफ़ ! करते भी क्या, कोई चारा नहीं था !!
...
सबा होकर, फना होकर, मुहब्बत में हम 'खुदा' हो गए
कल तक थे सभी के, आज खुद से भी जुदा हो गए !
...
उफ़ ! आज हमने उन्हें ही सलाम ठोक दिया
जो शिखर पे पहुंचते ही गूंगे-बहरे हुए थे !
...
कोई बे-वजह हमसे मुंह फेर के बैठा था
हमें प्यार था तो, पर किसी और से था !
...
खौफ में इस कदर कदम डगमगाए हुए हैं
मुझे दफ्न कर के भी दोस्त घवराए हुए हैं !
...
न मुहब्बत का सुरूर, न माशूक की बेरहमी थी जेहन में
'उदय' जाने, बिना आशिक हुए, हम कैसे शायर हो गए ! 
... 
हिंद की शान है हिन्दी, मेरा अभिमान है हिन्दी
देश हो, विदेश हो, हमारा स्वाभिमान है हिन्दी !
...

अभी अंजान है दुनिया, मेरी आँखों की फितरत से
सच ! जिसे चाहे, मैं जब चाहूँ, उसे मैं लूट लेता हूँ !
...
कब तक करते शर्म, अब गर्व कर रहे हैं
भ्रष्ट-घोटालेबाज देश में राज कर रहे हैं !
...
 
कब्र में लटके हैं पैर, फिर भी शेर हैं
खुद हो रहे शिकार, फिर भी शेर हैं !
...
मामी, काकी, भुआ, मासी, अब ये बातें बहुत पुरानी हुई हैं
सच ! आज नारी, कदम संग कदम, कंधे संग कंधा हुई हैं !
...
 
परदे की आड़ से, मुझे देख मुस्कुरा रहा था कोई
उफ़ ! दो कदम के फासले से, डर रहा था कोई !!
...
जंग मुश्किल नहीं, तो आसां भी नहीं है 'उदय'
कदम कदम पे भ्रष्टाचारियों की पैंतरेबाजी है !
...
हमें तो चेहरे चेहरे में अनेक चेहरे दिख रहे हैं
उफ़ ! यकीं हो तो किस पे, न हो तो किस पे !
...
 
पुराने दौर में सच और झूठ में भ्रम हो जाता था
उफ़ ! आज तो कोई मुगालते में नहीं दिखता !!
...
'हिन्दी' है जो आज भी, हमें 'दुल्हन' लगे है
कभी आँगन, कभी 'मंदिर' की मूरत लगे है !

Tuesday, September 13, 2011

स्वामी रामदेव जी, जय हो !

बाबा जी
आई मीन स्वामी जी
अरे यार, मेरा मतलब
स्वामी रामदेव जी, जय हो !
भ्रष्टाचार
कालाधन
विदेशी बैंक
विदेशों में जमा कालाधन
आप, धन्य हो, बाबा जी
आपने जो दम-ख़म दिखाया
सच ! वह झन्नाटेदार था !!
पर, क्या करें, आई मीन क्या कहें
कुछ खुरापातियों ने
दांव-पेंच में, उलझा कर
उलटे, आपको ही पटकनी दे दी
खैर, कोई बात नहीं !
अभी भी मौक़ा है
खुरा पातियों
पैंतरे बाजों
दांव पेंचियों
हथकंडे बाजों
शतरंज बाजों को
सबक सिखाने ...
और खोई हुई प्रतिष्ठा
पुन: स्थापित ...
बस, इस बार
एक सूत्रीय कार्यक्रम के स्थान पर
पांच सूत्रीय कार्यक्रम
प्रयोग में, अमल में लाना होगा
तब कहीं जा कर
पुराना हिसाब-किताब ...
और, शान-मान-आन
जी हाँ, स्वामी जी, आपकी
उसे -सम्मान, पुन: स्थापित कर
विजयी परचम ...
पर वो पांच सूत्रीय कार्यक्रम ... क्या ... कैसा ...
... जय हो, जय जयकार हो !!

Sunday, September 11, 2011

जज्बात

तुम
जब जब आते हो
सामने मेरे
मैं खोल देती हूँ
खोल कर रख देती हूँ
सब कुछ, ताकि, तुम्हें
दिक्कत न हो
देखने, समझने में !

मैं
यह भी नहीं चाहती
कि -
तुम्हें, ज़रा भी संकोच हो
मुझे, समझने में 

इसलिए
कुछ छिपाती नहीं हूँ
अब, छिपाऊँ भी
तो, क्या छिपाऊँ, तुमसे
जो है, जैसा है
सब का सब सामने है !

तुम चाहो तो
देखकर
छूकर
पढ़कर
डूबकर
टटोल कर, उलट-पलट कर
जान लो, समझ लो
मेरे जज्बात ...
फिर, मत कहना
कि -
छिपाए थे
जज्बात ...
मैंने ... तुमसे !!

Saturday, September 10, 2011

इंतज़ार

पिता ने पुकारा
कहा आता हूँ
इंतज़ार जारी है !

माँ ने कहा
फलां सामान ले आना
इंतज़ार जारी है !

पत्नि ने कहा
आज जल्द आ जाओ
इंतज़ार जारी है !

गर्ल फ्रेंड ने चाहा
आज पिक्चर चलते हैं
इंतज़ार जारी है !

दोस्त ने बुलाया
आ बैठ के पीते-खाते हैं
इंतज़ार जारी है !

साहब ने कहा
एक मिनट को वापस आ जाओ
इंतज़ार जारी है !

सुनते सुनते सिर चकराया
धडाम से गिर गया
अब सारे लोग, सामने हैं, अस्पताल में !!

आडवाणी जी ...

आडवाणी जी, नमस्कार
मुझे लगता है, बहुत हुआ
राजनैतिक खेल
क्यों कुछ नया किया जाए
रथ-वथ, यात्रा में कुछ नहीं रखा है
वही, थोड़ी-बहुत सहानुभूति
जो आपको पहले भी मिलते रही है
पर, अब, कुछ नया
कर गुजरने का समय है
राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं
कुछ नहीं रखा है, अब, इन, राजनैतिक ... !

मुझे तो यह लगता है
कि -
अब आपको 'ट्रैक' बदल लेना चाहिए
राजनैतिक हलके की अपेक्षा
सामाजिक हलके में कदम रख कर
कुछ जन कल्याणकारी
कदम उठाकर, अभी भी
कुछ सुनहरे एतिहासिक पन्ने
लिखे जा सकते हैं
जो राजनैतिक दांव-पेंचों से लिखे जाने
मुश्किल, असंभव जैसे हैं !

बहुत हुआ, बहुत हो चुका
राजनैतिक खेल
अब, आप, देख तो रहे हैं
राजनैतिक -
पैंतरेबाजी, दांव-पेंच, पटका-पटकी
वर्त्तमान, भूतपूर्व
प्रधानमंत्रियों तक के नाम
एतिहासिक पन्नों में दर्ज होते होते भी
सुनहरे रहकर, स्वमेव, काले हो जा रहे हैं !

गर, आप
प्रधानमंत्री बनने की
महात्वाकांक्षा रखते हैं
और प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं
तब भी, इस बात की कोई गारंटी नहीं
कि -
आपका नाम इतिहास के पन्नों पर
सुनहरे अक्षरों में ...
पर, खैर, जैसी आपकी मर्जी
बस, मुझे तो लगा कि -
उम्र के इस पड़ाव पर
क्यों
, एक पारी, जन कल्याणकारी ... !!

Friday, September 9, 2011

... अन्ना हजारे / प्रिंट मीडिया पर !!


नैतिक जिम्मेदारी

रोज रोज
भ्रष्टाचार, घोटाले, बम धमाके
देख देख कर
कुछ न कुछ तो, मेरी भी
नैतिक जिम्मेदारी बनती है
आखिर
मैं भी अपने देश का -
सर्वप्रथम एक नागरिक हूँ
फिर भले चाहे -
राष्ट्रपति हूँ
प्रधानमंत्री हूँ
मुख्यमंत्री हूँ
सांसद सदस्य हूँ
राज्यसभा सदस्य हूँ
विधायक हूँ
कहीं अध्यक्ष हूँ
तो कहीं सदस्य हूँ
पर, हूँ जरुर
कहीं न कहीं, कुछ न कुछ, तो जरुर हूँ
इस नाते
इन, ऐंसे, विकट, हालात में
मुझे भी कुछ
नैतिक जिम्मेदारी तय करते हुए
कुछ न कुछ, देश हित में, जनहित में ... !!

Thursday, September 8, 2011

हमारी सरकार

छोटे, बड़े, गरीब, अमीर
सख्त, पिलपिले, और मुस्टंडों
सब को, सभी प्रकार के
विक्रेताओं को
खरीद-खरीद कर
हमने
ये सरकार बनाई है
अब बनाई है, तो बनाई है
जग-जाहिर है !
देश के
एक एक आदमी को
सिर्फ यकीन नहीं
वरन पूर्ण विश्वास भी है
कि -
हमारी सरकार
ले-दे कर, खरीद-फरोख्त कर
बनी है, बनाई गई है
फिर, क्यों, लोग
हमसे यह उम्मीद करते हैं
कि -
हम, ईमानदारी से
बिना भ्रष्टाचार और घोटाले के
काम करेंगे
क्यों, भला क्यों ... !!

घडियाली आंसू

दिल्ली ...
कहीं ऐसा तो नहीं
खंड खंड पर
पाखंडियों का कब्जा हुआ है
तब ही
पहले धमाके
फिर जमीनी झटके लगे हैं !
वजह चाहे जो हो
पर, हुआ अच्छा नहीं है
देश अपना है
लोग अपने हैं
जो मर गए, जो तड़फ रहे हैं
और जो दहशत में हैं
वे अपने हैं, हम सब के हैं
पाखंडियों का क्या
उनके कानों पे, जूँ भी कब रेंगी है
कब पीड़ा हुई है उन्हें
शायद नहीं
गर हुई होती तो
वे धमाके होने पर
घडियाली आंसू
न बहा रहे होते, धन्य हैं
सारे के सारे पाखंडी
और उनके, घडियाली आंसू !!

बम धमाके और राजनैतिक रोटियाँ !!

कब तक बम धमाके
हमें
धमकाते रहेंगे
कब तक
हम एक-दूजे पे
लानत मढ़ते रहेंगे !
और कब तक
जनमानस को झूठे-सच्चे
दिलासे देते रहेंगे !
क्या
लानत मढ़ने
और झूठे-सच्चे दिलासों से
बम धमाके थम जायेंगे !
या फिर
आमजन, यूं ही
बम धमाकों की चपेट में आते रहेंगे
क्षित-विक्षित होते रहेंगे
बेवजह मरते रहेंगे !
और, हम, कोई
सशक्त कदम न उठाते हुए
ऐसे ही ढुल-मुल
व्यानबाजी कर-कुरा कर
राजनैतिक रोटियाँ सेंकते रहेंगे
कब तक, आखिर कब तक ... !!

Wednesday, September 7, 2011

मीडिया ...

कभी इधर,
कभी उधर हुए थे,
कुछ सच्चे, कुछ झूठे थे !
कहने को तो,
निष्पक्ष ही थे,
पर,
कुछ तेरे, कुछ उसके थे !
बात आई,
जब मतलब की,
तब, तेरे, उसके थे !
पक्ष
विपक्ष
समकक्ष
निष्पक्ष, ये बातें
कुछ मीठी, कुछ तीखी हैं !
जाने भी दो, रहने भी दो
मीडिया ... !!

सिस्टम ...

क्या हमें
अपनी आजादी के लिए
अधिकारों के लिए
हर पल, हर घड़ी
संघर्ष करना होगा
क्यों, किसलिए
क्या, कोई, एक ऐसा सिस्टम
नहीं हो सकता
हम नहीं बना सकते
जिसमें, हमें
हर घड़ी, हर पल
न लड़ना पड़े
अपने अधिकारों के लिए
सिस्टम ... !!

आज या कल

चल आजा
मैं जा रहा हूँ
फिर
किसी और को आना है !
कल
परसों
नरसों
किसी न किसी को
फिर किसी को
फिर किसी और को
फिर
पुन: मुझे वापस आना है !
यह सिलसिला
आने-जाने का
आना और जाना है
कभी तुझे
कभी मुझे
आ कर चले जाना है
आज या कल ... !!

Tuesday, September 6, 2011

एक चिटठी अन्ना हजारे के नाम ...

अन्ना जी, अरविंद जी
जय हिंद
१ - "राईट टू रिजेक्ट" के सांथ सांथ आपके एजेंडे में एक सुझाव और शामिल करने हेतु आग्रह है -
"एक व्यक्ति एक स्थान से ही चुनाव लड़ सके ! अक्सर देखा गया है कि कुछेक प्रत्याशी ( मंजे हुए नेता जिन्हें चुनाव हारने का भय होता है ) २-२, ३-३ चुनाव क्षेत्रों से नामांकन दाखिल कर चुनाव लड़ते हैं तथा कहीं-न-कहीं से तिकड़म कर चुनाव जीत जाते हैं ! नए प्रस्तावित प्रावधान के तहत ऐसा होना चाहिए कि - एक व्यक्ति सिर्फ एक स्थान से ही चुनाव लड़ सके, ऐसी स्थिति में खुद को बहुत बड़ा नेता समझने वाले नेताओं को वास्तविक जनाधार का सामना करना पडेगा जो लोकतंत्र के लिए सकारात्मक व हितकर होगा !"
२ - सांथ ही सांथ एक मुद्दा और - यदि कोई भी चुनाव जीता हुआ प्रत्याशी विधायक / सांसद अपने पद पर रहते हुए पुन: कोई भी आगामी या मध्यावधि चुनाव लड़ना चाहता है तब उसे अपने वर्त्तमान पद सांसद / विधायक से सर्वप्रथम 'रेजिगनेशन' देना आवश्यक कर दिया जाए, इसके पश्चात ही वह चुनाव लड़ सके ! ऐसी स्थिति में 'रेजिगनेशन' देने उपरांत उस "पर्टीकुलर सीट" पर कोई मध्यावधि चुनाव न हो, जो पिछले चुनाव में निकटतम प्रत्याशी रहा हो उसे ही आगामी निर्धारित चुनाव तक के लिए "विधिवत चुना हुआ जन प्रतिनिधी" संवैधानिक रूप से घोषित कर दिया जाए ! इस प्रस्तावित प्रक्रिया के पालन से यह होगा कि जनमत का सम्मान बना रहेगा तथा बेवजह जन्में मध्यावधि चुनाव के बोझ से सरकार व जनता दोनों बचे रहेंगे, परिणाम स्वरूप लालच में आकर कोई भी जीता हुआ प्रत्याशी जन भावनाओं के सांथ खिलवाड़ नहीं कर सकेगा!
३ - सांथ ही सांथ "राईट टू रिकाल" रूपी मुद्दा पुनर्विचार योग्य है !
उक्त मुद्दे जनहित में विचार हेतु ...
शेष कुशल !
शुभकामनाएं, जय हिंद !!

टुडेज लव : गुरु दक्षिणा

देश के नामी-गिरामी मीडिया हाऊस के एक एयरकंडीशन आफिस रूम में ...
आशुतोष - आओ, स्मिता आओ ... बैठो ... कैसी हो !
स्मिता - जी, ठीक हूँ, आपके रहते किस बात की चिंता !

आशुतोष - हाँ, वो तो है ... आज क्या मिशन रहा !
स्मिता - कुछ ख़ास नहीं, आज 'टीचर्स डे' था उसी पर एक स्टोरी लगाई है !

आशुतोष - बहुत सुन्दर ... 'टीचर्स डे' ... वेरी गुड ... अरे स्मिता, तुम्हारा भी तो कोई 'गुरु' होगा ... कौन है !
स्मिता - हाँ, जरुर है ... सच बोलूँ ... मेरे तो आप ही 'गुरु' हैं, मैंने आज तक जो कुछ भी सीखा-समझा है वह सब आप से ही सीखा है, आज लगभग ८-९ साल हो गए इस लाइन में काम करते हुए, जब कभी कुछ उलझन लगी मन में, आपके काम करने के तौर-तरीके को याद करते हुए उलझन को सुलझाया ... सच कहूं - आपकी सोच, क्रियाशीलता, फुर्ती, नजरिया, और लगातार घंटों काम करने की आपकी आदत से मैंने बहुत कुछ सीखा है ... आप मेरे 'गुरु' हैं, इसे स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है !

आशुतोष - क्या बात है ... लो आज तक मुझे ही पता नहीं था कि कोई मेरा 'शिष्य' भी है, आई मीन मुझसे कुछ सीख रहा है ... वो भी बिना 'गुरु दक्षिणा' के ... !
स्मिता - इसमें आश्चर्य क्यों ... वो भी 'गुरु दक्षिणा' के लिए ... मांगिये, क्या मांगते हैं आप 'गुरु दक्षिणा' में ... आप जो मांगेगे, वो आपको मिलेगा ... ये मेरा वचन है, मेरी जुबान नहीं पलटेगी ... मैं यह मान लूंगी कि - आज मेरी अग्नि परीक्षा है और मुझे एक 'आदर्श शिष्य' के नाते इस परीक्षा को पास करना है ... आप "जो चाहे" मांग सकते हैं अपनी इस 'शिष्या' से !

आशुतोष - तुमने इतना कह दिया ... बस यही मेरी 'गुरु दक्षिणा' है ... मुझे गर्व है तुम पर ... और अपने आप पर भी कि मेरे पास तुम्हारे जैसी 'शिष्या' है !
स्मिता - सर, आप बात को टालने की कोशिश कर रहे हैं ... अभी तक मैंने जो कुछ भी सीखा है वह अप्रत्यक्ष तौर पर सीखा है, हो सकता है प्रत्यक्ष रूप में भी कुछ सीखने का मौक़ा मिल जाए ... आप ये समझ लीजिये कि - आज आपके माँगने और मेरे देने की परीक्षा है 'गुरु दक्षिणा' ... बताइये, क्या चाहते हैं !

आशुतोष - स्मिता, तुम भी बहुत जिद्दी हो मेरी तरह ... जो ठान लेती हो तो बस ठान लेती हो ... जाने दो, फिर कभी देखेंगे ... !
स्मिता - सर, मैंने कहा न, आज हम दोनों की परीक्षा है ... अब तो आपको मांगना ही पडेगा ... !

आशुतोष - जाने दो ... हो सकता है मैं कोई ऐसी-वैसी "चीज" मांग लूं जो तुम दे न पाओ !
स्मिता - मैंने कहा न सर, यह भी एक परीक्षा है ... या तो आप, या तो मैं, या फिर हम दोनों ही पास होंगे !

आशुतोष - ऐसा है क्या ... ( कुछ देर सन्नाटे का माहौल रहा फिर आशुतोष की जुबान से धीरे धीरे कुछ निकला ) ... ऐसा है तो सुनो ... यदि तुम कह रही हो कि यह परीक्षा है तो समझ लो परीक्षा ही है ... सुनो - यह एक पहेली है, मैं इसमें कुछ मांग रहा हूँ और तुमको समझना है कि मैं क्या मांग रहा हूँ ... सुनो, गौर से सुनो - "तुम मुझे कोई ऐसी "चीज" दो, जो तुम मुझे दे भी दो, मुझे मिल भी जाए, और वह "चीज" तुम्हारी ही बने रहे !"
( आफिस में सन्नाटा पसर गया ... क्या पहेली है ... क्या माँगा है ... एक 'गुरु' ने एक 'शिष्या' से ... लगभग ४०-४५ मिनट सन्नाटा पसरा रहा ... दोनों ओर से खामोशी बिखरी रही ... इस बीच दोनों ने थर्मस से निकाल निकाल कर दो-दो कप ब्लेक-टी भी पी ली ... फिर स्मिता ने आशुतोष की आँखों में आँखे डालते हुए चुप्पी तोडी ... )
स्मिता - सर, मानना पडेगा आपको, आप सचमुच महान हैं, मैं जितना सोचती थी आप उससे भी कहीं ज्यादा बुद्धिमान हैं ... मैं आपकी बुद्धिमता को 'सैल्यूट' करती हूँ ... यह सिर्फ एक पहेली नहीं वरन आपकी बुद्धिमता की एक झलक है ... आपको जो गर्व मुझे एक 'शिष्या' के रूप में पाकर महसूस हुआ है, निसंदेह आपको साक्षात 'गुरु' के रूप में पाकर तथा आपको 'गुरु दक्षिणा' देकर मुझे भी उतना ही गर्व होगा ... यहाँ 'ताज', 'ओबेराय' या और कहीं समय खराब करने से बेहतर होगा कि - 'गुरु-शिष्य' दोनों 'गुरु दक्षिणा' के लिए २-३ दिनों के लिए सिंगापुर, न्यूजीलैंड, स्वीटजरलैंड या कहीं और ... जहां आप चाहो ... !
( बात पूरी होते होते, कहते कहते, सुनते सुनते ... दोनों अपनी अपनी कुर्सी से उठकर 'टीचर्स डे' की बधाई देते हुए एक-दूसरे के गले लग गए ! )

Monday, September 5, 2011

'शिक्षक दिवस'

दो मित्र शाम - ७.३० बजे अचानक मिलने पर ...
राम - अरे यार संतोष कैसा है, आज बहुत दिन बाद , बहुत खुशी हुई मिलकर, और सुना क्या नया चल रहा है !
संतोष - कुछ ख़ास नहीं, तुझे तो पता ही है कि - स्कूल में पढ़ाने लगा हूँ, उसके अलावा कुछ ट्यूशन वगैरह कर लेता हूँ, बस और कुछ नहीं, तू सुना कैसी चल रही है तेरी नौकरी ... खूब माल कमा रहा होगा !

राम - माल कमाने जैसी कोई बात नहीं है, तू तो जानता है अपुन इस लफड़े से दूर रहता हूँ, और रही नौकरी की बात - नौकर तो नौकर ही होता है, उसकी क्या मर्जी और क्या वह मर्जी का मालिक ... खैर छोड़, सुना कल की क्या तैयारी चल रही है !
संतोष - कल बोले तो ... क्या मतलब है तेरा !

राम - अरे यार ... कल 'शिक्षक दिवस' है, और तू जाने-मानें स्कूल का शिक्षक है यार ... इसलिए पूंछ लिया ... मेरा मतलब 'शिक्षक दिवस' की तैयारी से है !
संतोष - अरे यार ... तू भी ... तूने तो मुझे चौंका ही दिया था ... ठीक है 'शिक्षक' हूँ, अब इसका ये मतलब तो नहीं कि कुछ तैयारी-सैयारी करनी पड़ेगी ... अपने को क्या करना है, कुछ भी तो नहीं, जो कुछ भी करना है स्कूल मैनेजमेंट को और बच्चों को करना है ... तू भी यार !

राम - नहीं यार ... फिर भी कुछ तो ... 'शिक्षक दिवस' अपने देश का एक पूज्यनीय पर्व है और तू ओवर आल एक टीचर है आई मीन 'गुरु' है ! ... यार हम राजेन्द्र प्रसाद, राधा कृष्णन, लाल बहादुर शास्त्री, मदर टेरेसा, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, सांई बाबा, जैसे महान व एतिहासिक पुरुष नहीं बन सकते, पर क्या उनके बताये रास्ते पर भी नहीं चल सकते ... ठीक है जैसी तेरी मर्जी ... पर अपुन ने तो ये डिसाइड किया हुआ है कि - कल गरीब बस्तियों में जा-जा कर बच्चों को उनके महत्त्व की शिक्षाप्रद व ज्ञानवर्धक किताबें, चार्ट, नक़्शे, पोस्टर, स्लेट-पेन्सिल, इत्यादि बाँट - बाँट कर 'शिक्षक दिवस' मनाएंगे ... !
( कुछ देर सन्नाटा-सा पसरा रहा ... फिर राम अपने मित्र संतोष को मिलते हैं कहते हुए ... 'जय हिंद' कह कर चला गया )

Sunday, September 4, 2011

राजाओं के राजा

हम तो कह रहे हैं
आओ, चलो, लड़ लो, भिड़ लो
चुनावी अखाड़े में ...
पर
ये -
अनशन
आन्दोलन
नारेबाजी
भीडबाजी
चक्कर
घनचक्कर
जंतर-मंतर
रामलीला मैदान
जन लोकपाल बिल
पास-फ़ैल
अच्छी बात नहीं न है !

रोज-रोज
हमें
डराते-धमकाते फिरते हो -
कालेधन
विदेशी बैंक
भ्रष्टाचार
जन लोकपाल
राईट टू रिजेक्ट
राईट टू रिकाल
जनसंसद
ये नौकर - हम राजा
जैसे, दांव-पेंच, फार्मूले, टिका-टिका कर !

चलो, माना, मान लेते हैं
कि -
तुम, सही हो
सही हो तो इसका मतलब ये तो नहीं है
कि -
तुम, हमें
सुबह-शाम, रात-दिन, हर पहर
यूं ही, डराते-धमकाते ...
गर
दम-ख़म है
तो आओ, आ जाओ
लड़ने को, पटका-पटकी को
हम तैयार हैं, चुनावी अखाड़े में ...
तुम राजा हो, तो हम भी, राजाओं के राजा हैं ... !!

'हाईटेक लेखक'

एक सज्जन कुर्ते-पैजामे पहने हुए ट्रेन में मेरी सामने वाली सीट पर नजर आए स्वभाव से बेहद शांत व सरल स्वभाव के लगे उनसे बात-चीत करते-करते हुए सफ़र जारी था कि अगली स्टेशन पर एक जींस-टीशर्ट पहने हुए सज्जन भी चढ़ गए और वो सज्जन भी आकर सामने वाली खाली सीट पर बैठ गए, अब चूंकि सांथ में बैठ ही गए थे तो हम लोगों की आपस में दुआ-सलाम भी होना तय थी, जो हो गई ! फिर जींस-टीशर्ट वाले सज्जन ने अपना बैग उठाकर उसमे से लैपटाप कंप्यूटर निकाल लिया और खटर-पटर करने लगे, मुझे लगा कि बहुत ही पंहुचे हुए महाशय जान पड़ रहे हैं बिना लैपटाप के ट्रेन में भी सफ़र नहीं करते हैं, मैंने मन में सोचा - जय हो ! थोड़ी देर बाद दोनों सज्जन आपस में चर्चा-परिचर्चा करने लगे, क्या करते हो, कहाँ रहते हो, बगैरह-बगैरह ... अपना भी सफ़र उनकी बातें सुनते-सुनाते कट रहा था अचानक मैंने देखा कि दोनों महाशय कवि, कविता, और कविताओं पर गहन चर्चा कर रहे हैं, दोनों की बातें सुनने से ऐसा लगा कि दोनों एक ही मिजाज के हैं शायद दोनों कवि ही हैं ... थोड़ी देर बाद ही कुर्ते-पैजामे वाले सज्जन ने अपने कंधे पे लटके थैले में से निकाल कर स्वयं की लिखी हुई किताबें दिखाने लगे तो दूसरे सज्जन फटा-फट अपने लैपटाप में अपनी वेबसाईट, ब्लॉग बगैरह-बगैरह दिखाने लगे ... दोनों ओर से बिलकुल साहित्यिक समा जैसा बंध गया और दोनों ही प्रसन्न मुद्रा में नजर आने लगे, यह सब देख कर मुझे भी आनंद की अनुभूति हो रही थी मेरा भी सफ़र, जो आनंद में कट रहा था ... कुछ देर बाद दोनों ही तनिक मायूस से नजर आए, मैंने पूछा - क्या हो गया महाशयो, अभी तक तो बहुत ही रोचक-रोमांचक माहौल चल रहा था, फिर अचानक ये मायूसी ! ... दोनों एक सांथ बोल पड़े, क्या बताएं भाई साहब आजकल अच्छे लेखन की कोई क़द्र ही नहीं है ... मैंने कहा - सो तो है, ऐसा मैं भी सुनते-पढ़ते रहता हूँ ... अच्छा ... अच्छा ... आप क्या करते हैं .. भाई, मैं तो एक छोटा-मोटा पत्रकार हूँ ... अच्छा हाँ ... हाँ ... तब ही आप यह सब समझते हैं, लेखन क्षेत्र की इस पीड़ा को आपके जैसा छोटा-मोटा आदमी ही समझ सकता है, भाई साहब ये बताइये - अपने देश में अच्छे लेखन की कद्र क्यों नहीं है ? ... मैंने कहा - अब क्या बोलूँ, सच्चाई तो ये है कि 'हाईटेक' ज़माना है और 'हाईटेक सेटिंग' से ही काम चलता है और चल रहा है, अब भला अच्छे लेखन को कौन पूंछता है जो सामने - जी, हाँ, हूँ, यश, भईय्या, दादा, प्रणाम, चरण स्पर्श करते नजर आते हैं सही मायने में वे ही अच्छे लेखक हैं, फिर भले चाहे - लेखन अच्छा हो या न हो, आप लोग भी अच्छे लेखन के चक्कर को छोड़ 'हाईटेक लेखक' बनने के बारे में सोचिये !! ( कुछ देर सुन्न-सन्नाटे सा माहौल रहा, इसी दौरान अपुन का स्टेशन आ गया और ... नमस्कार ... नमस्कार ... नमस्कार ... कहते-सुनते अपुन ट्रेन से उतर गया !)

Saturday, September 3, 2011

कविता और कवि

मैं अक्सर सोचता हूँ
दूर रखूँ, खुद को
कविता से, कविताओं से
कविता लेखन से ...
पर, ऐसा हो नहीं पाता
चाहते हुए भी, चाहकर भी
मैं, समा जाता हूँ, कविता में !

बहुत कोशिश की, बार बार कोशिश की
दूर रहने की
अपने आप को दूर रखने की
पर, मैं असफल ही रहा !

मैं जानता हूँ, महसूस करता हूँ
भली-भाँती समझता हूँ
कि -
कविता का भारतीय साहित्य के व्यवसायिक जगत में
उतना महत्त्व नहीं है, जितना होना चाहिए !

इसकी वजह चाहे जो हो
पर, मैं ऐसा मानता, जानता, महसूस करता हूँ
कि -
कविताएं
हर किसी के पल्ले भी नहीं पड़ती हैं
एक तो समूचे लोग, पढ़ना ही नहीं चाहते
दूजे, यदि कोई पढ़ता भी है, तो उसे
कविता के भाव, पूर्णत: समझ में, नहीं आते !

देखा है, मैंने, महसूस भी किया है
अपने मित्रों को
जो
अच्छे-खासे पढ़े-लिखे होने के बाद भी
कविताओं को, भावों को
समझ नहीं पाते हैं
इसकी वजह यह नहीं है
कि -
वे बुद्धिजीवी नहीं हैं, हैं, वे बुद्धिजीवी हैं
फिर भी ... !

शायद
एक वजह यह हो सकती है
मेरे दूर भागने की
लेकिन, फिर भी, मैं अपने आप को
चाहकर भी, ज्यादा समय, दूर नहीं रख पाता हूँ
कविता से, कविताओं से
कविता लेखन से !

अक्सर
कविता रूपी विचार
मेरे मन में उमड़ने लगते हैं
उद्धेलित होने लगते हैं, उद्धेलित हो जाते हैं
पता नहीं, ऐसा क्यों होता है
कि -
मैं, चाहकर भी, खुद को, रोक नहीं पाता हूँ
कविता लेखन से !

मुझे, यह भी पता है, महसूस भी करता हूँ
कि -
ऐसे बहुत से लोग हैं
जो
पत्र-पत्रिकाओं के उस हिस्से को देखना भी नहीं चाहते
जहां कविता विराजमान होती हैं
पढ़ना तो बहुत दूर की बात, कही जा सकती है !

फिर भी, जाने क्यों
मैं, खुद को, रोक नहीं पाता हूँ
कविता से, कविताओं से
कविता लेखन से !
मुझे पता है, महसूस होता है
कि -
बहुत से कवि, जीवन भर फटेहाल रहे
और फटेहाली में ही चल बसे
उनके जीते जी, उनके लेखन को
जो मान-सम्मान मिलना चाहिए था, नहीं मिला
मरने के बाद, भले चाहे ... !

मैं यह भी जानता, मानता, महसूस करता हूँ
कि -
कविता
साहित्यिक सागर का
एक ऐसा मोती है
जो -
अनमोल
बेजोड़
अद्भुत
अकाट्य
अजर-अमर है !
शायद, यही एक वजह हो सकती है
कि -
मैं, खुद को, रोक नहीं पाता हूँ
कविता लेखन से ... !!

Friday, September 2, 2011

राजनीति : भीड़ बनाम मुद्दे !

हमारे देश में दिन व दिन बढ़ रही आबादी हमें कहाँ लेकर जायेगी अभी यह स्पष्ट नहीं है किन्तु यह तो जान ही पड़ता है कि यह बढ़ती आबादी राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं को निसंदेह प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्षतौर पर सपोर्ट कर रही है, मेरे कहने का तात्पर्य बहुत ही सीधा व सरल है कि यह बढ़ती आबादी मुद्दा विहीन राजनैतिक महात्वाकांक्षी व्यक्तित्व को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी राजनीति को हरा-भरा रखने में बेहद सहायक है अर्थात जिन राजनैतिक व्यक्तित्वों व दलों के पास सार्थक व प्रभावी मुद्दे नहीं हैं वे भी अपने छोटे-मोटे प्रयासों से भीड़ जमा करने में सफल हो जाते हैं ! अब इस भीड़ के जमा होने के पीछे कोई ठोस बजह नहीं होती सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस भीड़ के पीछे बढ़ती आबादी और बेरोजगारी एक बजह मानी जा सकती है या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आर्थिक मैनेजमेंट के आधार पर भी यह भीड़ इकट्ठा की जा रही है ! यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा कि यदि राजनैतिक व्यक्तित्वों के निकटतम नुमाइंदे भीड़ जुटाने का प्रयास जोर-शोर से न करें तो संभव है राजनैतिक व्यक्तित्वों व दलों की जगहंसाई हो जाए, यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि ऐसा मेरा व्यक्तिगत आंकलन है कि यदि भीड़ जुटाने के लिए धन व व्यक्तिगत संसाधनों का प्रयोग न हो तो भीड़ जुटा पाना बेहद कठिन होगा क्योंकि वर्त्तमान में बड़े से बड़े राजनैतिक नैतृत्व मुद्दों की नहीं वरन भीड़ की राजनीति को प्राथमिकता दे रहे हैं !

यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि मेरा मकसद किसी भी राजनैतिक व्यक्तित्व या राजनैतिक दल को आहत करने का नहीं है वरन वर्त्तमान राजनैतिक नैतृत्व का ध्यान भीड़ बनाम मुद्दों की राजनीति की ओर आकर्षित करने का है, मैं यह भी भलीभांति जानता और महसूस करता हूँ कि वर्त्तमान राजनैतिक नैतृत्व भी यह भलीभांति जानते व समझते हैं ! इन गंभीर हालात में भी यदि राजनैतिक नैतृत्व व राजनैतिक दलों के एजेंडों में अमूल-चूल बदलाव नहीं आता है तो वह दिन दूर नहीं जब आम जनता का इन दलों पर से विश्वास पूर्णत: उठ जाए, आम जनता का वर्त्तमान राजनैतिक कार्य प्रणाली से दिन व दिन उठ रहा विश्वास बेहद चिंतनीय ही कहा जा सकता है ! वर्त्तमान राजनैतिक सोच व जनमानस की सोच में बढ़ रहा अविश्वास आने वाले दिनों में गंभीर राजनैतिक व सवैधानिक बदलाव को इंगित कर रहा है यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि अब समय आ गया है कि वर्त्तमान राजनैतिक नैतृत्व गंभीरतापूर्वक चिंतन व मनन कर उपयोगी कदम उठाएं !

एक ओर जहां राजनैतिक व्यक्तित्वों व राजनैतिक दलों को भीड़ जुटाने के लिए आर्थिक मैनेजमेंट का सहारा लेना पड़ता है अर्थात लोगों के घर घर तक गाडी पहुंचवा कर तथा आने-जाने के समय भीड़ की व्यक्तिगत जरूरतों का भी ख्याल रखते हैं तब कहीं जाकर उतनी भीड़ इकट्ठी हो पाती है जिससे वे जगहंसाई से बच सकें ! वहीं दूसरी ओर जन लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के नैतृत्व में आयोजित आन्दोलन अपने आप में एक मिसाल हैं जिनमें लोगों की भीड़ खुद-ब-खुद उमड़ रही थी, एक दिन - दो दिन नहीं वरन आन्दोलन के अंतिम पड़ाव तक लोगों का हुजूम देखते बन रहा था, इन दोनों आन्दोलनों ने - चाहे वह जंतर-मंतर का हो या रामलीला मैदान का, यह स्पष्ट कर दिया है कि लोगों की भीड़ या दूसरे शब्दों में कहें जनसैलाव किसी प्रायोजित कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था वरन एक गंभीर मुद्दे को लेकर संजीदा लोगों का स्वस्फूर्त समर्थन था, भ्रष्टाचार विरोधी जन लोकपाल रूपी क़ानून की मांग को लेकर जो जनसैलाव देखने को मिला वह निश्चित ही एक ऐतिहासिक अध्याय कहा जा सकता है ! वर्त्तमान राजनैतिक नैत्रत्वों व दलों को यह मनन व चिंतन करना ही होगा कि अब समय भीड़ की राजनीति का नहीं वरन मुद्दों की राजनीति का आ गया है तथा इस दिशा में सकारात्मक पहल ही आवश्यकता है जो न सिर्फ राजनैतिक दलों वरन लोकतंत्र के लिए भी प्रभावकारी व हितकर है !

... राईट टू रिजेक्ट / प्रिंट मीडिया पर !


Thursday, September 1, 2011

अन्ना टोपी

अभी
इनकी नश-नश में
फितरत में
कूट-कूट के भरी है
आदत
टोपीबाजी की !

शायद, इन्हें
यह कला
गुरु-शिष्य रूपी
परम्परा में
विरासत में मिल रही है !

ये जब भी
ज्वाईन करते हैं
राजनीति -
राजनैतिक पार्टी
तब, इन्हें
पहनाई जाती है, टोपी !

अब, जब
पहन ही ली टोपी
इन्होंने
तो समझ लो
मिल गई इन्हें, कला
विरासत में
टोपीबाजी की !

नहीं
ये बाज नहीं आएंगे
खुद--खुद
टोपीबाजी से
कौन !
अपने नेता
तब तक, जब तक
कोई इन्हें
अन्ना टोपी का
पाठ नहीं पढ़ायेगा !!

इकबाल की ईद

इकबाल जिसकी उम्र महज १९ साल थी जो साफ़ दिल का नेक व ईमानदार बालक था किन्तु आज उसके मन में बार बार यह सवाल गूँज रहा था कि कल 'ईद' के दिन उसे अपनी छोटी बहन 'खुशी' को 'ईदी' के रूप में एक बेहद ख़ूबसूरत 'परी ड्रेस' तोहफे में देना है और उसने ड्रेस भी पसंद कर रखी थी जिसकी कीमत ७५ रुपये थी, वह जब भी दुकान के पास से गुजरता तो ड्रेस को देखकर रुक-सा जाता था, ऐसा नहीं था कि वह अपने अम्मी-अब्बू को कह कर उनसे वह ड्रेस नहीं खरीदवा सकता था, खरीदवा सकता था किन्तु वह ऐसा करना नहीं चाहता था वरन वह अपनी मेहनत से कमाए रुपयों से ही 'परी ड्रेस' खरीद कर अपनी बहन 'खुशी' को 'ईद' पर तोहफे के रूप में देना चाहता था !

इसलिए ही वह स्वयं पिछले ४-५ हफ़्तों से प्रत्येक रविवार के दिन सुबह जल्दी उठकर अपने बगीचे से 'गुलाब' के सारे फूल तोड़कर उन्हें बेचने 'सांई दरबार' जाकर उन्हें बेच-बेच कर रुपये इकट्ठे कर रहा था इस तरह उसने धीरे-धीरे ६५ रुपये इकट्ठे कर लिए थे उसके पास महज १० रुपये कम थे ! संयोग से कल रविवार के दिन ही 'ईद' आ गई थी, इसी कारण उसे सारी रात बेचैनी थी कि किसी भी तरह जल्दी उठकर 'सांई दरबार' जाकर फूल बेच कर 'परी ड्रेस' खरीद कर 'ईद का पर्व' अम्मी, अब्बू व 'खुशी' के सांथ हंसी-खुशी मना सके, इसी बेचैनी के सांथ उसने सारी रात बिस्तर पर करवट बदल-बदल कर गुजारी और जैसे ही सुबह के चार बजे वह उठ कर जल्दी जल्दी तैयार होकर बगीचे में पहुंचा तथा उसने सारे 'गुलाब' के फूल तोड़ लिए, अब इसे संयोग कहें या दुर्भाग्य कि - आज बगीचे में उसे महज चार फूल ही मिले, इसे दुर्भाग्य इसलिए कह सकते हैं कि - वह दो-दो रुपयों में एक एक फूल बेचा करता था, इस तरह उसे चारों फूल बेच कर मात्र आठ रुपये ही मिलने वाले थे जो ड्रेस की कीमत से दो रुपये कम हो रहे थे !

इस कश-म-कश की स्थिति में वह 'सांई राम' का ध्यान करते हुए 'सांई दरबार' पंहुच कर द्वार के पास सड़क किनारे खड़े होकर फूल बेचने लगा, अभी दो फूल ही बिके थे कि उसकी नजर सड़क की दूसरी तरफ पडी, एक व्यक्ति का कार में बैठते बैठते पर्श जमीं पर गिर गया, इकबाल दौड़ कर जैसे ही वहां पहुंचा कार निकल चुकी थी उसने पर्श हाँथ में उठाकर देखा उसमें एक एक हजार व पांच पांच सौ के ढेर सारे नोट रखे थे तथा पर्श में ही उसे एक टेलीफोन नंबर लिखा हुआ मिल गया, इकबाल कुछ देर वहीं खड़े होकर सोच-विचार में डूब गया उसकी चिंता टेलीफोन करने पर दो रुपये खर्च करने को लेकर हो रही थी क्योंकि वैसे ही सारे फूल बेचने के बाद भी दो रुपये कम पड़ने वाले थे किन्तु सोच-विचार में ज्यादा न उलझते हुए उसने 'सांई राम' का नाम लेकर दो रुपये खर्च करते हुए टेलीफोन लगाया तथा सामने वाले व्यक्ति को उसके पर्श के गिरने व उसे मिल जाने की खबर देकर वह उस व्यक्ति का इंतज़ार करते हुए पुन: फूल बेचने खडा हो गया !

लग-भग ५-७ मिनट बाद ही कार उसके पास आकर रुकी और वह सज्जन निकले जिनका पर्श गिरा था इकबाल ने उनके आने पर ही पर्श उन्हें सौंप दिया, पर्श में सब कुछ सही सलामत देख कर वह सज्जन अत्यंत ही प्रसन्न हुए तथा इकबाल की नेक-नीयत से बेहद ही प्रभावित हुए, बातचीत में इकबाल के बारे में उन्हें सारी जानकारी मिल गई तथा वह समझ गए की इकबाल 'खुदा' का एक नेक बंदा है उसे किसी भी तरह के रुपयों का इनाम देकर दुखित करना उचित नहीं होगा इसलिए उन्होंने १० रुपये का नोट देकर दोनों फूल खरीदते हुए अनुरोध किया कि वह इसका प्रतिरोध न करे, कुछ देर चुप रहते हुए इकबाल ने 'सांई महिमा' समझ प्रतिरोध नहीं किया !

इकबाल हंसते-मुस्कुराते 'सांई' का शुक्रिया अदा करते हुए अपनी पसंद की 'परी ड्रेस' खरीद कर घर पहुंचा और परिवार के सांथ 'ईद' की खुशियों में शामिल हो गया, अपनी बहन को ड्रेस भेंट कर अम्मी-अब्बू की दुआएं लेकर खुशियाँ मना ही रहा था कि उन्हीं सज्जन को जिनका पर्श गिर गया था उन्हें अपने घर पर देख वह आश्चर्य चकित हुआ इकबाल के अम्मी-अब्बू उस सज्जन के सेवा-सत्कार में लग गए गए तो वह और भी ज्यादा अचंभित हुआ, हुआ दर-असल यह था कि वह सज्जन कोई और नहीं वरन बम्बई फिल्म इंडस्ट्री के जाने-मानें निर्माता-निर्देशक थे जो इकबाल की नेक-नीयत से अत्यंत ही प्रभावित होकर उसे अपनी आगामी फिल्म में बतौर हीरो साइन करते हुए नगद एक लाख रुपये की राशि भेंट कर 'ईद' की मुबारकबाद देकर चले गए, इकबाल के घर में 'ईद' की खुशियों का ठिकाना न रहा इकबाल व परिवार ने 'ईद का पर्व' बेहद हर्ष-व-उल्लास के सांथ मनाया, इकबाल की नेक-नीयत व मेहनत ने उसे ४-५ सालों में ही एक सफल कलाकार के रूप में स्थापित कर दिया !!