Saturday, November 19, 2011

बेचैनी

कुछ अजब
कुछ गजब
सन्नाटा सा था
चंद रातें
कभी सोतीं
कभी जागतीं
खुली आँखों से कभी
कभी मूंदकर आँखें
मैं देखता सा था !
क्या था
क्यों था
कुछ तो था
जिसने मुझे
बेचैन किया था !
थी अजब सी
कुछ बेचैनी
क्या थी
क्यों थी
यह सवाल बन
मेरे जहन में
घूमता सा था
चंद रातें
बेचैनी, सवाल
और मैं !!

हवस

हवस की आग से
चाहे जैसे भी हो, तुम
बाहर निकल आओ
कहीं ऐंसा न हो
कि -
खुद ही -
जल के ख़ाक हो जाओ !

Saturday, November 12, 2011

हॉट सीट पर प्रेमी !

प्रेमिका ने -
सामने हॉट सीट पर बैठे
अपने प्रेमी के सामने अंतिम प्रश्न रखा
मुझसे शादी करने के पीछे तुम्हारी लालसा क्या है ?

आप्शन -
- तुम मुझसे सच्चे दिल से प्यार करते हो !
बी - तुम मेरी दौलत से प्यार करते हो !
सी - तुम मेरे सांथ सोने की जिद में शादी करना चाहते हो !
डी - तुम्हारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है !

सवाल सुनकर-पढ़कर, प्रेमी सन्न रह गया -
सामने रखा एक गिलास पानी उठाकर पी गया !

प्रेमिका ने कहा -
तुम चाहो तो आख़िरी लाइफ लाइन "डबल डिप" ...
"डबल डिप" की शर्त तो तुम्हें मालुम ही है कि -
यदि गलत हुए तो -
हमेशा-हमेशा के लिए हमारा सांथ छूट जाएगा !
जीत गए तो फिर कोई बात ही नहीं है !!

प्रेमी ने गहरी सांस ली, और "डबल डिप" का आप्शन चुना
प्रेमिका ने कहा - अब तुम गेम क्विट नहीं कर सकते
बताइये - आपका पहला जवाब क्या है ?
प्रेमी ने कहा - आप्शन -
कंप्यूटर जी - यह गलत जवाब है आपका !

प्रेमी के माथे पर पसीना टपका -
और उठाकर दूसरा गिलास पानी भी गटका !!

प्रेमिका ने कहा - सोचिये और सोच कर जवाब दीजिये
आपका दूसरा आप्शन क्या है ?

प्रेमी ने खुद को गंभीर संकट में घिरा पाया
पर, जवाब देने के अलावा कोई अन्य विकल्प नजर नहीं आया
आँख बंद की, गहरी सांस ली, फिर आँख खोलकर
जवाब दिया - आप्शन - डी
कंप्यूटर जी - "आप्शन - डी" पर ताला लगाया जाए !

कंप्यूटर जी ने ब्रेक के बाद जवाब दिया -
यह भी - गलत जवाब है आपका !

जवाब सुनते ही प्रेमी पसीने से तर-बतर हो गया
आँखों के सामने घुप्प अंधेरा छा गया !
प्रेमिका भी जवाब सुनकर अचंभित हुई
और कंप्यूटर जी से सही जवाब माँगा -
सही जवाब - आप्शन - सी ...

प्रेमी और प्रेमिका दोनों सन्न रह गए
और खुद--खुद दोनों, माथा पकड़ के रह गए !!

साहित्य की दुनिया

सुनते हैं, लोग
जीते जी -
उतने बड़े नहीं होते हैं
जितने बड़े -
मरने के बाद
खुद-ब-खुद हो जाते हैं !

मरने के बाद -
कोई कैसे बड़ा हो जाता है
यह सवाल मेरे जेहन में -
कूद रहा है
हिलोरें मार रहा है
गोते लगा रहा है
हुत-तू-तू कर रहा है !

काश ! मैं समझ पाता, जान पाता
कि -
मरने के बाद
ऐंसा क्या हो जाता है
कि -
साहित्यकार
खुद-ब-खुद बड़ा हो जाता है !!

साहित्य के सूरज

ये कैसी दुनिया है 'उदय'
जहां डूबते सूरज -
खुद ही सुनहरे हो रहे हैं !

ऊगते सूरज -
और चिलचिलाती धूप से
मूँद के आँख -
डर के किनारे हो रहे हैं !

आग, ताप, तेज, वेग
और ज्वलनशीलता
डूबता सूरज कहाँ से दे हमें !

जो दे सके है, उसी से
पीठ कर -
ओट में खड़े ये हो रहे हैं !!

सवाल

सवाल यह नहीं है
कि -
क्या मिला है मुझे, तुमसे !
सवाल यह है
कि -
मैंने, क्या दिया है तुम्हें ?

सवाल -
उत्तर का भी नहीं है
सवाल है -
सोचने
समझने
महसूस करने
और मनन करने का !

यदि आज भी हम, निरुत्तर रहे
तो फिर हम
खोये रहेंगे, उलझे रहेंगे
इन्हीं
छोटे-मोटे सवालों में
कि -
क्या दिया तुमने मुझे
और क्या दिया मैंने तुम्हें !!

प्रेम

जी ने, तो न चाहा था कभी
आज खुद-ब-खुद सवेरा हो गया
भोर की किरणों में -
मेरा वसेरा हो गया
रात तो सोये थे समय पर ही 'उदय'
नींद का खुलना बहाना हो गया
प्रेम होना था सुबह से हमें
नींद खुलते ही हमें वो हो गया !!

कहाँ हूँ, कहाँ नहीं हूँ मैं !

कुछ हौसले
कुछ ख्याल
कुछ मंजिलें
टटोल के देख ज़रा
कहाँ हूँ, कहाँ नहीं हूँ मैं !
आज, इन हालात में
गर तुम
आके मिल लोगे मुझसे
तो तुम्हारा
क्या चला जाएगा ?
आखिर
जो कुछ भी है
तुम्हारे पास
सब
मेरा दिया हुआ ही तो है !!

Friday, November 11, 2011

बटुआ ... 'सांई महिमा' अपरम्पार है !

'सांई दरवार' में बिखरे पड़े कागज़ के तुकडे, फूल के पत्ते, पंखुड़ियां, अगरबत्ती, इत्यादि के रेपर को सेवा भाव से समेटते समय अनिल को वहीं पडा हुआ एक 'बटुआ' मिला, 'बटुआ' को देखकर अनिल अचंभित हुआ, उसने उसे जेब में रख लिया तथा परिसर की सफाई में लग गया, फैले समस्त कचड़े को उठा उठा कर उसने ले जाकर डस्टबिन में डाल दिया !

फुर्सत होते ही उसने जेब से 'बटुआ' निकाल खोलकर देखा उसमें एक-एक हजार के ढेर सारे नोटों की भरमार थी, सांथ ही कुछ छोटे छोटे नोटों के सांथ कुछ महत्वपूर्ण कार्ड व कागज़ भी रखे थे उन्हें देखते देखते - उसकी नजर एक पर्ची पर गई जिसमें पता लिखा था तथा यह भी लिखा था कि यदि जाने-अनजाने किसी को यह पर्श मिले तो कृपया नीचे लिखे पते पर संपर्क करे !

लिखे पते को पढ़कर अनिल यह तो समझ गया था कि यह 'बटुआ' उन्हीं सज्जन का है किन्तु दिमाग में उथल-पुथल इस बात को लेकर हुई कि वह पता वहां से कोसो दूर था और उसके पास वहां जाने के लिए जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी किन्तु उसने 'सांई बाबा' के चरणों में सिर झुका कर आशीर्वाद लिया तथा 'बटुआ' में रखे रुपयों की मदद से टिकिट ले ले कर वह उस सज्जन के पास पहुँच गया !

उक्त सज्जन को 'बटुआ' सौंपते हुए अनिल ने सारा किस्सा सुनाया, किस्सा सुनकर महाशय की आँखे फटी-की-फटी रह गईं, अनिल की उम्र महज सत्रह साल थी जिसकी नेक-नियती ने महाशय को अपना भक्त बना दिया ... अजब संयोग देखिये अनिल अनाथ था तथा 'सांई मंदिर' में ही सेवा कर जीवन यापन कर रहा था और दूसरी ओर जिनका 'बटुआ' उसे मिला, वह मुंबई के जाने-मानें हीरों के व्यापारी थे जो बेऔलाद थे !

कहने को तो महज एक 'बटुआ' था किन्तु किसी चमत्कार से कम नहीं था उसमें रखे नोट दोनों के लिए महत्व नहीं रखते थे क्योंकि सेठ जी तो अपने आप में सेठ थे तथा अनिल, वह तो 'सांई भक्ति' में लीन था उसे भी उन रुपयों की कोई दरकार नहीं थी ... किन्तु इस संयोग से अरवपति सेठ को बेटा और एक अनाथ को बाप मिल गया तथा इसे 'सांई महिमा' समझ दोनों एक-दूसरे की सेवा में लग गए !!

एक सिक्के के दो पहलु : जायज-नाजायज !

एक पहलु ...
---------
जिनसे मुझे कुछ, या यूँ कहूँ
कोई उम्मीद होती है
तब
मैं खुद-ब-खुद -
वहां पहुँच जाता हूँ !

वहां पहुच कर -
मैं यह भी नहीं देखता
कि -
मेरा आना -
जायज है या नहीं !

जहां उम्मीदें अपनी हों
वहां क्या जायज -
और क्या नाजायज !!

दूसरा पहलु ...
-----------
जिनसे मुझे, या यूँ कहूँ
कुछ उम्मीदें हैं
उनके पास मुझे, खुद-ब-खुद
पहुँच जाना चाहिए !

वहां पहुच कर
मुझे यह भी नहीं देखना चाहिए
कि -
मेरा आना, जायज है या नहीं !
जहां, उम्मीदें अपनी हों
वहां -
क्या जायज, क्या नाजायज ?

पर, मेरे ख्याल
मेरे ही जीवन में -
हकीकत रूप नहीं ले पाते हैं
क्यूँ, क्योंकि -
मैं, खुद के सामने, कभी भी
नाजायज को, जायज नहीं ठहरा पाता हूँ !!

जीवन धारा

अब तो
जिस दिन तुम, कह दोगे
खुद को मेरा !
तब ही हम
खुद को अपना कह पाएंगे !
वरना
इस बहती जीवन धारा में
हम खुद को
संग संग तेरे
पीछे पीछे बहता पाएंगे !!

ग़मों का हमसफ़र

न जाने क्यूं
किसी ने खुद को
ग़मों का -
हमसफ़र बना रक्खा है 'उदय'
कोई समझाए उसे
जिंदगी का दौर
ग़मों के -
इस पार भी है
ग़मों के उस पार भी है !!

खामोश मुहब्बत ...

कालेज में बीए अंतिम वर्ष के बाद विदाई समारोह के दौरान ...

निधी - राम हम तीन वर्ष एक सांथ पढ़कर निकल रहे हैं, आज कालेज का अंतिम दिन है शायद कल के बाद हमारी मुलाक़ात हो, या ना भी हो, यह हम नहीं जानते हैं !
राम - हाँ, सच कहा तुमने निधी ... पर शायद मुलाक़ात संभव भी हो क्योंकि दुनिया गोल है !

निधी - राम हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त रहे हैं ... शायद दोस्ती के दौरान मुझे तुम ... मुझे तुमसे प्यार भी हो गया है किन्तु मैंने कभी तुमसे कहा नहीं, आज हिम्मत कर कह रही हूँ यदि तुम्हारी हाँ हो तो हम एक सांथ जीवन भी गुजार सकते हैं !
राम - हाँ एक-दो बार मुझे एहसास हुआ है कि तुम मुझे चाहने लगी हो किन्तु ... किन्तु मैं अनदेखी करता रहा ... वजह भी तुम जानती हो, मेरे लिए पढ़ाई कितनी जरुरी थी !

निधी - पर अब पढ़ाई पूरी हो चुकी है, मेरी दिली इच्छा है कि मैं जीवन भर के लिए तुम्हारी हो जाऊं !
राम - मैं जानता हूँ मुझे तुमसे अच्छी लड़की नहीं मिल सकती, और शायद सारे जहां में कोई दूसरी लड़की तुम जैसी होगी भी नहीं ... पर शादी करना मुमकिन नहीं है !

निधी - हाँ, मैं जानती हूँ तुम्हारी पारिवारिक परिस्थितियों को तथा तुम्हारे दायित्वों को ... फिर भी अगर तुम चाहो तो हम दोनों सांथ मिलकर ...
राम - निधी, शायद मुमकिन नहीं है !

निधी - ठीक है, मैं समझती हूँ, ... मेरी शादी कब होगी यह तो मैं नहीं जानती, पर ... शादी के फेरे पड़ने के पहले तक मुझे तुम्हारा इंतज़ार रहेगा ... जैसे ही हालात बदलें तुम निसंकोच चले आना !
राम - 'रब' जानता है क्या होगा, क्या नहीं ... फिलहाल तो मैं कुछ नहीं कह सकता !

निधी - राम, क्या हम विदा होने के पहले एक बार गले लग सकते हैं ?
राम - आज नहीं, 'रब' ने चाहा तो हम जरुर गले लगेंगे ...
( दोनों एक-दूसरे को कुछ देर देखते रहे ... तथा अगले पल ... दोनों एक-दूसरे को नम आँखों से शुभकामनाएं देते हुए विदा हो गए ... )

Thursday, November 10, 2011

इंटरव्यू ...

गाँव का युवक - राम कड़ी मेहनत लगन से पीएससी की लिखित परीक्षा पास कर इंटरव्यू में पहुंचा ...

अधिकारी - ( राम की फ़ाइल देखते हुए ) पढ़ाई के अलावा आपका और क्या क्या शौक है ?
राम - सर, क्रिकेट खेलना !

अधिकारी - अच्छा, बहुत अच्छा, ये बताओ वर्त्तमान में क्रिकेट कितने फारमेट में खेला जा रहा है ?
राम - सर, टेस्ट, वंडे तथा ट्वेंटी-ट्वेंटी !

अधिकारी - वंडे में किस खिलाड़ी ने एक ओवर में : छक्के का रिकार्ड बनाया है ?
राम - सर, नहीं जानता !

अधिकारी - गुड, ट्वेंटी-ट्वेंटी में किस खिलाड़ी के नाम एक ओवर में : छक्के मारने का रिकार्ड दर्ज है ?
राम - सर, नहीं जानता !

अधिकारी - ओह हो, अच्छा ठीक है आप जा सकते हो !
राम - सर, क्षमा सहित कुछ बोलना चाहता हूँ !

अधिकारी - हाँ, बताएं क्या कहना चाहते हैं !
राम - ( राम अपने हाँथ में रखी फ़ाइल से दो सर्टिफिकेट निकाल कर देते हुए ) सर, मैं गाँव के एक साधारण गरीब परिवार का लड़का हूँ, मेरे घर पर तो टेलीविजन है और ही समाचार पत्र-पत्रिका जैसी सुविधा वहन करने की क्षमता है इसलिए आपके दोनों सवालों के जवाब मेरे लिए कठिन थे ... किन्तु ये जो दो सर्टिफिकेट अभी आपको दिए हैं वह मेरे हैं जो पिछले दो माह के दौरान आयोजित संभाग स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के दौरान मुझे प्राप्त हुए हैं ... पहला सर्टिफिकेट - ट्वेंटी-ट्वेंटी फारमेट में मेरे द्वारा मारे गए एक ओवर में : छक्के के परिणाम स्वरूप मिले "मैन आफ मैच" पुरूस्कार का है ... तथा दूसरा सर्टिफिकेट - वंडे फारमेट में एक ही ओवर में मेरे द्वारा मारे गए : छक्कों के परिणाम स्वरूप मिले "मैन आफ मैच" पुरूस्कार का है !

अधिकारी - ( अपनी चेयर से उठकर राम से हाँथ मिलाते हुए ) वेल, वेलडन ... यू आर सिलेक्टेड राम, मुझे तुम पर गर्व है, बधाई शुभकामनाएं !!

छुअन ...

एक दिन
छूने से उसके
दिल ने मेरे
अलग राग ही छेड़ दिया !
उस दिन से रहा नहीं -
ये दिल अपना
तब से
हमने खुद को
अपना कहना छोड़ दिया !!

जगहंसाई का शौक

एक बड़े अफसर हैं, बहुत बड़े !
प्रदेश के एक विभाग के जिम्मेदार अफसर हैं
हाँ भई, कप्तान हैं
वो भी पुलिस जैसे महत्वपूर्ण विभाग के
जी हाँ
पुलिस विभाग के ही, जिले के कप्तान हैं !

पर, सुनते हैं उन्हें जगहंसाई -
जी हाँ, जगहंसाई की आदत है
समय समय पर
वे कुछ न कुछ ऐंसे निर्णय -
लेते हैं, ले ही लेते हैं
जिससे, उनकी जगहंसाई, खुद-ब-खुद हो जाती है !

अब क्या कहें, क्या न कहें, एक बार -
उन्होंने जगहंसाई की एक नई मिशाल पेश कर दी
आश्चर्यजनक, किन्तु सत्य ...
हुआ दरअसल यह कि -
उनके प्रदेश में, सिर्फ उनके प्रदेश में ही नहीं
वरन देश के चार-छ: प्रदेशों में भी
विधानसभा चुनावों की तैयारी, जोर-शोर से चल रही थी
बस चुनाव तिथि की घोषणा होनी शेष थी
अब शेष बोले तो, चुनाव आयोग की तरफ से हरी झंडी !

रोज, हर रोज, टीव्ही चैनल्स, न्यूज पेपर्स में
चर्चा-परिचर्चा जोरों पे थी
और लो हो गई घोषित - चुनाव की डेट
चुनाव आचार संहिता लागू -
सारे के सारे अधिकार, सभी विभागों के -
हस्तांतरित हो गए, चुनाव आयोग के पास !

भाई साहब, इसमें नया क्या है ?
होता है, यही होता है
हरेक चुनाव में, सब जानते हैं !
जी हाँ जनाब, बिलकुल यही होता है, सब जानते भी हैं
कोई नई बात नहीं है
अगर कोई नई बात है तो वो ये है
कि -
कप्तान साहब ने खुद-ब-खुद, खुद की जगहंसाई करवा ली
पूछो, वो कैसे ?

हुआ दरअसल यह कि -
उनके जिले में चार-पांच थाने -
थानेदारों की पोस्टिंग के लिए खाली पड़े थे
और उनके पास -
दस-ग्यारह थानेदार भी सामने लाइन में खड़े थे
पर, सुनते हैं कि - कप्तान साहब ने
पोस्टिंग की सूची तो बनाकर
अपनी जेब में रख ली थी
और रखकर सप्ताह भर तक इधर-उधर घूमते भी रहे थे
पर ... पर क्या ?

कप्तान साहब ने दस्तखत नहीं किये थे
सूची उनकी जेब में धरी की धरी रह गई
धरी इसलिए रह गई कि -
अब सारे अधिकार कप्तान साहब से छिन कर
चुनाव आयोग के पास चले गए !
और कप्तान साहब, खुद-ब-खुद, खुद का मुंह तकते रह गए !

ये तो कप्तान साहब की जगहंसाई का -
एक मामूली-सा किस्सा है
असली जगहंसाई तो, इसी किस्से में छिपी है यारो
जो अपने आप में, जगहंसाई का एक बेजोड़ नमूना है
वो नमूना -
इनके जिले के इकलौते महिला थाने में -
थानेदार की पोस्टिंग का है ... उफ़ ! क्या कहें !!

ऐंसा नहीं था कि खाली पड़े महिला थाने में
पोस्टिंग के लिए महिला थानेदार नहीं थे
थे, तीन-चार महिला थानेदार भी थे
किन्तु, परन्तु, अब क्या कहें ...
कप्तान साहब को जगहंसाई की आदत जो पडी थी
कैसे आ जाते बाज, पैदाइसी आदत से ...
इसलिए साहब ने - वहां भी किसी की पोस्टिंग नहीं की !

और जब पोस्टिंग हुई, चुनाव आयोग से
तो महिला थाने में, पुरुष थानेदार की हुई
सुनते हैं, वो भी, कप्तान साहब की मेहरवानी से !
दुखद, किन्तु आश्चर्यजनक ...
कप्तान साहब की जगहंसाई की आदत की कीमत
बुजुर्ग, रिटायरमेंट के कगार पे खड़े
एक पुरुष थानेदार को पोस्टिंग से चुकानी पडी !

जब पत्रकारों ने कप्तान साहब से पूंछा -
तो वे हंस कर सवाल को टाल गए
और मुस्कुराते-मुस्कुराते वहां से चले गए
पत्रकार भी अचंभित हुए, और बोले -
कैसा कप्तान है यार ?
वहीं पे खड़े एक थानेदार ने कहा -
जाने दो यारो ...
कप्तान साहब को जगहंसाई का पैदाइसी शौक है !!

आजादी की दरकार

पुरुष धरा
तो औरत आकाश है
पुरुष नदी
तो औरत सागर है
पुरुष पवन
तो औरत संसार है
पुरुष फूल
तो औरत श्रृंगार है
चंहू ओर
औरत ही औरत है
फिर भी
न जाने क्यूं उसे -
आजादी की दरकार है !!

अस्तित्व

तुम क्यूँ बता रहे हो
कि -
देर से आओगे
तुम्हारा जब जी चाहे, चले आना
घर है तुम्हारा
किसने रोका है, तुम्हें
कौन रोक सकता है तुम्हें !

तुम हमेशा से
अपनी मर्जी के मालिक रहे हो
आज भी हो
जब चाहे तुम्हारी मर्जी -
आते हो
और जब चाहे, चले जाते हो !

उफ़ ! मैं कौन हूँ !!
शायद -
बिस्तर से जियादा कुछ भी नहीं !
तुम आने पर
मुझे झटकारना भी नहीं चाहते
सीधे आकर गिर पड़ते हो
और, सो जाते हो !

भले चाहे समाज मुझे -
तुम्हारी धर्मपत्नी समझता है
और भले चाहे धर्म मुझे -
तुम्हारी अर्धांग्नी मानता है
पर, मैं जानती हूँ
मेरा अस्तित्व -
बिस्तर से जियादा कुछ भी नहीं है !!

यात्राएं बनाम कुर्सी यात्रा

जन्म से लेकर, अब तक
पद,
बैलगाड़ी,
साईकल,
मोटर,
रेल,
हवाई जहाज
सब की सब यात्राएं की हैं हमने !

और तो और
समय समय पर, जब जब मौक़ा मिला
सदभावना
स्वाभिमान
जन चेतना
जैसी महत्वपूर्ण यात्राओं में भी -
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पे शरीक रहा हूँ !

काश ! हमने
एक-दो सामाजिक व जन कल्याणकारी -
यात्राएं भी कर ली होतीं
उफ़ ! मर जायेंगे तब ...
शायद ! हम ही हमारी
अंतिम यात्रा - शव यात्रा में
शरीक न हो पायें !

वजह ...
शायद ! उस समय भी हमारी आत्मा
"कुर्सी यात्रा" के मोह में
राजधानी की गलियों, चौक-चौराहों पर
किसी न किसी कुर्सी के -
सच ! इर्द-गिर्द भटकती रहे !!

पीठ की सर्जरी

एक नेता अफसर से -
और वही बात, अफसर नेता से
सीना तान के -
आपस में शान से कह रहे थे !

यारो अपुन ने भी -
पीठ की सर्जरी करवाई है
एक 'चाबी' और एक 'पर्ची' -
पीठ पे 'फिट' करवा के फुर्सत पाई है !

चाबी 'तिजोरी' की है
और पर्ची में -
स्वीस बैंक का 'कोड' लिखा है !

अब मर भी जाएं -
तो क्या फर्क पड़ता है
सारा खजाना और धन-दौलत तो अपुन -
पीठ पे बाँध के चलता है !!

"राईट टू रिकाल"

कौन कहता है
कि -
"राईट टू रिकाल"
अपने देश में सफल नहीं हो सकता
बताओ, बोलो ?

अच्छा, चलो ये बताओ -
कनिमोड़ी, राजा, कलमाडी ...
जैसे लोग -
जो भ्रष्टाचार घोटालों के लिए
जेल में हैं, जो -

तो स्वयं: स्तीफा देने वाले हैं !
ही इनकी पार्टी इन्हें -
स्तीफे के लिए मजबूर करने वाली है !
और ही -
संसद इन्हें बर्खास्त करने की सोच रही है !

फिर, इन हालात में ???
जनता ही तो, इन्हें -
"राईट टू रिकाल" का इस्तमाल कर
सबक सिखाएगी -
और इन्हें असली औकात पे लाएगी !

अब बोलो, कौन बोलता है
कि -
"राईट टू रिकाल"
अपने देश में सफल नहीं हो सकता !!

... कब तक अंजान रखेगा खुद को !

सच ! 'खुदा' के करम पे, यारों यकीं रखना
वो खट से सुन लेगा, दुआ में रहम रखना !
...
एक दिन हमने उन्हें, इन नज़रों से क्या छू लिया
वो, उस दिन से आज तक, सहमे सहमे हुए हैं !!
...
यादों के साये में, जिंदगी यूँ ही कटती रहे 'उदय'
कभी वो हमें याद आते रहें, तो कभी हम उन्हें !
...
कदम बढ़ रहे हैं, और हम चल रहे हैं
'सांई' जाने, कब मंजिलें मिल जाएं !
...
तेरे मखमली जिस्म को छूकर, नजर फिसल गई मेरी
सच ! 'खुदा' जाने, तुझे छूकर, मेरा हाल क्या होगा !!
...
खुद को चेतन करना छोड़, जन चेतना में उलझे हैं
उफ़ ! सत्ता का मोह, क्या से क्या न करा दे !
...
आज मौक़ा मिला था, मगर अफसोस
वो भी खामोश थे, हम भी खामोश थे !
...
भड़वागिरी का हुनर, तारीफ़-ए-काबिल है इनका
ये दूजों को सुलाते सुलाते, खुद भी सो जा रहे हैं !
...
कयामती मंजर से बचने का हुनर, 'खुदा' ही जाने है
हम तो खुद ही कयामती आहटों से डरे सहमे हुए हैं !
...
बहुत हो गई, पूजन गंगा की 'उदय'
क्यूँ न खून की नदियाँ बहाई जाएं !
...
आओ लगकर गले, गुलज़ार कर दें ये जहां
दिल से कहें, जाँ से प्यारा है हमें हिन्दोस्तां !
...
सच ! ईद थी, पर 'ईद' में तन्हाई थी
वो उधर, और हम इधर, खामोश थे !
...
तेरी चौखट पे, खुद ब खुद सिर झुक गया है
सच ! अब तू ही बता, क्या तेरा ईशारा है !!
...
सच ! कल और आज में, कोई फर्क नहीं है 'उदय'
ये दिल की बातें हैं, तुम जानें हो या हम जानें हैं !
...
अहम भी खुबसूरती को बा-अदब सलाम करता है
जाने कौन है वो शख्स, जो तुम पे नहीं मरता !
...
आज हर उस मुर्दे में, मुझे जान नजर आई है
कल तक जो ज़िंदा थे, जीते जी मुर्दा बन कर !
...
सच ! तुमसे मिलकर, मिजाज बदल गए मेरे
शायद यह वजह होगी, मौसम बदलने की !!
...
सुना है कुछ ख़्वाब, खुली आँखों में ही आते हैं 'उदय'
सच ! चलो अच्छा हुआ, जो नींद से झगड़ा हुआ है !
...
उम्मीदों के चिराग मत बुझने देना 'उदय'
'सांई' जाने, कब वो जगमगा जाएं !!
...
नेक नियती हो तो परम्पराएं बदल जाएं
सच ! हों, तो फिर क्या कहने !!
...
लोगों ने तो सरकार को बपौती समझ रक्खा है
उफ़ ! फिर भी, ये तो फेसबुक है !!
...
प्यार के फूलों को खिलने दो, खुशबू बिखरने दो
देखें, माशूक कब तक अंजान रखेगा खुद को !!
...
कुछ राज हैं छिपे दिल में, धड़कनों को संभालो तुम
रोता हुआ दिल है तो क्या, चेहरे को संभालो तुम !!
...
आशिकी में, हवा के झौंके भी, झटके दे देते हैं 'उदय'
अब कर ही ली है मुहब्बत, तो ज़रा संभल के चलो !
...
सच ! किसी न किसी दिन, मुझे भी 'रब' हो जाना था
आज खौफ के मंजर में, उसी ने चुन लिया मुझको !!
...
तेरा जी चाहे, उतने इल्जाम लगा दे मुझ पे
सच ! पर 'रब' जाने है, मुजरिम नहीं हूँ मैं !

Monday, November 7, 2011

अमिताभ बच्चन को कोई कुछ नहीं कहता ...

अमिताभ बच्चन जैसी शख्सियत
जब कंप्यूटर को -
"कंप्यूटर जी" कह के बुलाते हैं
तब कोई बात नहीं होती
और, उन्हें कोई कुछ नहीं कहता !

शैलेश लोढ़ा जैसे कवि
जब टेलीफोन को -
"टेलीफोन भईय्या" कह के
सम्बोदन करते हैं
तब भी कोई बात नहीं होती !

उफ़ ! आज हमारी ही सामत आई थी
जो फेसबुक को -
"फेसबुक यार" कहते हुए -
जुबां फिसल गई
बीबी ने -
सारा मोहल्ला सिर पे उठा लिया है !

अब कैसे समझाएं हम 'उदय'
कि -
फेसबुक से -
हमारा सिर्फ याराना है
कोई मुहब्बत का तराना नहीं है !

"जी" और "भईय्या" जैसी भी
कोई बात नहीं है
बस घड़ी दो घड़ी को बैठ जाते हैं
कभी उसकी सुन लेते हैं -
तो कभी अपनी कह देते हैं !
सच ! "फेसबुक" से हमारा -
इससे जियादा कोई अफसाना नहीं है !!

सरदार, असरदार !

हमारा सरदार, असरदार है
थोड़ा गूंगा -
थोड़ा बहरा है !

न सुनता है
न कहता है
बस मौन रहता है !

मतलब की बातें -
सुन लेता है
कह लेता है
और बीच-बीच में -
मुंडी, इधर-उधर हिला लेता है !

बिना सिर का सरदार है
लेकिन -
फिर भी असरदार है !

कोई, कहे या न कहे
माने या न माने
भ्रष्टाचार की तो बात छोडो
जब चाहे तब -
मंहगाई बढ़ा देता है

हमारा सरदार, असरदार है !!

बंधन

तुम औरत हो
मैं तुम से पूंछता हूँ -
कहाँ हैं बेड़ियाँ !
कहाँ हैं हथकड़ियाँ !
कहाँ हैं जंजीरें !
बंधन -
कहाँ नहीं हैं ?
जीवन में, संसार में !

रात बंधन में है
दिन बंधन में है
चाँद-सूरज भी तो बंधन में हैं
अपने अपने समय पे -
निकलते हैं, और डूब जाते हैं !

आदमी भी कहाँ स्वछंद है
जो
औरत को -
आजादी की जरुरत है !
सिर्फ औरत नहीं -
आदमी भी बंधन में है !

चाँद, तारे, फूल, खुशबू
सूरज, पवन, गगन, जीवन, मृत्यु
सब के सब -
कहीं न कहीं, कुछ न कुछ
बंधन में है !
सिर्फ औरत नहीं -
ये सारा संसार बंधन में है !!

चमचों का सरदार

एक भाई साहब
आज सुबह सुबह बिना ब्रेक की गाडी की तरह
आकर मुझ से भिड़ पड़े
बोले - क्यूँ भाई साहब -
आपको चमचों से इतनी एलर्जी क्यों है ?
मैंने कहा - आपको किसने कह दिया
कि -
मुझे चमचों से एलर्जी है !

अब इसमें कहने-सुनने की, क्या बात है
जब देखो तब -
पिल पड़ते हो अपने लेखन में चमचों पे
आपने, उनका जीना दुभर कर रक्खा है
बेचारे -
चैन से चमचागिरी तक नहीं कर पा रहे हैं !

मैंने कहा - सुनिए हुजूर
चमचे और चमचागिरी तो मेरे आदर्श पात्र हैं
देखना इक दिन इन्हीं आदर्श पात्रों पे
लिख लिख के, कलम घसीटी कर कर के
मैं भी गुरु बन जाऊंगा
वह दिन दूर नहीं, जब -
मैं भी चमचों का सरदार कहलाऊंगा !!

साइलेंस प्लीज

ईश्वर मुझे देख रहा था
मैं ईश्वर को देख रहा था
वो भी खामोश था
मैं भी चुपचाप था
उसकी तो, वो ही जाने
पर मैं करता भी क्या ?
वो ईश्वर, तो मैं इंसान था !
वो परीक्षा ले रहा था
मैं परीक्षा दे रहा था
परीक्षा पटल पे लिखा था
साइलेंस प्लीज
परीक्षा चल रही है
शोर-गुल पर
रेस्टीगेशन संभव है !!

Saturday, November 5, 2011

बेटी : कहीं तुलसी, तो कहीं पीपल हुई है ...

बाबुल के गाँव की -
तुलसी
पिया घर पहुँच के -
पीपल हुई है !

हुआ करती थी जो
खुद आँगन की रंगोली
पहुँच ससुराल वह -
पांव की मेंहदी हुई है !

दमकती थी जो
बन माथे की बिंदिया
पिया घर पहुँच के -
करधन में लटकी चाबी हुई है !

पूजी जाती थी जो
खुद गाँव में देवी की तरह
पिया घर पहुँच के -
वो आज पुजारिन हुई है !

फर्क देखो
बेटी और बहु में तुम 'उदय'
कहीं तुलसी -
तो कहीं पीपल हुई है !!

पुरुष्कृत कवि की कविताएँ

एक दिन
मैं
एक पुरुष्कृत कवि से टकरा गया
अरे नहीं, उनसे नहीं, उनकी कविताओं से
अब चूंकि -
एक पुरुष्कृत कवि कि -
कविताएँ थीं
इसलिए पढ़ना भी जरुरी था !

पढ़ते पढ़ते कविताएँ -
थकान सी
ऊबान सी
आने लगी थी, जी ने चाहा
कि -
बीच में ही छोड़ के निकल जाऊं
फिर सोचा, नहीं, ऐंसा उचित नहीं होगा
यह पुरुष्कृत कवि का नहीं
पुरुष्कार देने वालों का अपमान होगा !

जबरदस्ती पढ़ते रहा
पढ़ते पढ़ते नींद गई
नींद जब टूटी, तो सन्नाटा-सा पसरा था
मैं डर गया, सहम गया
इधर उधर देखने लगा, कुछ नहीं सूझा
फिर, आँखें मींड कर देखा
सामने
एक पुरुष्कृत कवि की कविताएँ रखी थीं !
और वहीं नीचे, उनके चेलों-चपाटों -
तथा
पुरुष्कृत करने वालों के द्वारा
कविताओं की तारीफ़ के पुल बांधे गए थे !!

अपनी अपनी धुन

सर्द रातें आ गई हैं
अब कौन निकाले -
कम्बल
रजाई
आओ, इधर आओ
सिमट कर
लिपट कर
हम ही सो जाएं ...
उन रातों की तरह
जब होती थी -
कड़कडाती ठंड बाहर
और हम
बिना कम्बल -
बिना रजाई के
लिपटे, सिमटे
सोये रहते थे ...
अपनी अपनी धुन में !

लेखन के शौक़ीन

मैं उनके लिए नहीं लिखना चाहता
जिन्हें
दूसरों का लिखा भाता नहीं है !

मैं उनके लिए भी नहीं लिखना चाहता
जिन्हें
खुद के सिबा -
किसी और की तारीफ़ पसंद नहीं है !

सच ! मैं उनके लिए तो
कतई ही नहीं लिखना चाहता
जिन्हें
किसी न किसी ने -
पंदौली देकर ऊपर पहुंचाया है !

मैं लिखना चाहता हूँ
लिखता हूँ
सिर्फ उनके लिए
जिन्हें
न सिर्फ पढ़ने की समझ है -
वरन जो -
अच्छे लेखन के शौक़ीन भी हैं !!

... कोई हिसाब-किताब नहीं है !

सारा शहर आतुर है फना होने को तुम पर
उफ़ ! और आज भी हम, जस-के-तस हैं !
...
आज मेरे मुल्क में, शैतानों की हुकूमत है 'उदय'
इंसान दर्द सह तो ले लेकिन, उसे छिपाए कहाँ !
...
तुमने दिल तोड़ के, हिसाब चुकता कर लिया
अब न कहना, कि कुछ उधार रह गया मेरा !
...
क्या हुआ जो उसने कातिल कहा मुझे
देखते ही देखते, रुतबा जो बढ़ गया !!
...
जीत के भाव, गर जज्बे में समा जाएं 'उदय'
कौन-सी जंग है, जो जीत में आसां न लगे !
...
रंज होगा तुम्हें, जानकर वजह खुश होने की
तुम्हें रोते देखे बगैर, प्यार उमड़ता कब है !!
...
वक्त की मार, जब पड़ती है मासूम रूह पे 'उदय'
नंगे पैरों को भी, काँटों पे चलना सिखा देती है !
...
सच ! जोकर समझ के मुझको, हंसने लगा शहर
करते भी क्या, मातमी शहर हमें भाता नहीं था !
...
माथे पे टीका लगा के, आज पंडित वो हो गया
कल तक सुना था हमने, कातिल हुआ था वो !
...
वो मेरी मौत की खबर सुन, खुशियों से झूम उठे थे 'उदय'
'रब' जाने, देख ज़िंदा मुझे, उनपे कैसी क़यामत होगी !!!
...
वो सूने कोने में बैठ, शायरी लिख रहा था 'उदय'
और हम भीड़ में, दाद पे दाद दिए जा रहे थे !!!
...
चरखे की चकरी बन के, घन-घना रहे हैं लोग
न सूत है, न कपास, फिर भी बज रहे हैं लोग !
...
न दर है, न छत है, और न ही दीवार है 'उदय'
उफ़ ! तम्बू को ही, हवेली समझ रहे हैं लोग !
...
चलते चलते धरने, प्रदर्शन, यात्राएं हो जाएं यारो
सच ! 'सांई' जाने, किस घड़ी बुलावा आ जाए !!
...
काश ! सबब दोस्ती का वो समझ गए होते
कभी इस, तो कभी उस, दर पे नहीं होते !!
...
कितना भी, क्यूँ न अंधकार हो, चले चलो
दिन दूर नहीं, जब उजाले ही उजाले होंगे !
...
मरने के बाद सारा शहर गुणगान कर रहा है 'उदय'
ज़िंदा थे, तब शहर में शमशानी सन्नाटा क्यूं था !!
...
उत्तर प्रदेशी अखाड़े में, खूब चहल-पहल है यारो
सच ! लगे है कि दंगल में भी खूब मजा आयेगा !
...
क्या खूब सौदागिरी चल रही है मेरे मुल्क में 'उदय'
सरकार, सरकार नहीं, व्यापारिक संस्थान हुई है !
...
सच ! वो सरकार में हैं, पर सरकारी नहीं हैं
ये कैसी सरकार है, जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं है !

जन लोकपाल रूपी बवंडर : साहित्यिक जमात संशय में !

जन लोकपाल रूपी बवंडर को देश में उड़ता देख साहित्यिक मठों में भी खल-बली मच गई तथा आनन्-फानन में एक मीटिंग का आयोजन किया गया, मीटिंग की खबर सुनते ही सारे मठाधीश और उनके चेले-चपाटे जो जिस हालत में थे उसी हालत में तत्काल मीटिंग स्थल पर पहुँच गए ! मठाधीशों, उनके चेले-चपाटों तथा भाई-भतीजों की भीड़ लग गई, चूंकि मुद्दा बेहद संवेदनशील था इसलिए आपस के मन मुटावों को भुला कर सभी एक-दूसरे के मुंह को आशा भरे भाव से निहारने लगे !

मीटिंग के शुभारंभ में कोई भूमिका बांधने, मान-सम्मान जैसे प्रोटोकाल को दर किनार करते हुए सीधे मुद्दे को छेड़ा गया तथा माइक को हाँथ में लेकर चेले-चपाटों के गुरु - गुरुघंटाल ने बोलना शुरू किया - मेरे मन और मस्तिक में वास करने वाले पूज्यनीय, आदरणीय, सम्माननीय, देवी-देवताओं आप को बताते हुए मेरे मन में संशयरूपी हलचल सी मची हुई है फिर भी बताना अत्यंत आवश्यक है कि अपने देश में एक "जन लोकपाल रूपी" बवंडर उठा हुआ है जिससे देश की सत्ता व सभी राजनैतिक दल सहमे व डरे हुए हैं उन्हें इस बात का भय है कि कहीं यह बवंडर उन्हें उड़ाकर ले जाकर किसी अंधेरी काल कोठारी में न पटक दे, और उन्हें सारा जीवन चक्की पीस-पीस कर गुजारना पड़े !

चूंकि हम सभी भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर उनसे जुड़े हुए हैं और किसी न किसी के रहमो करम पर ज़िंदा हैं इसलिए हमने अर्थात यहाँ उपस्थित सभी बड़े बड़े देवताओं ने यह सोच-विचार कर निर्णय लिया है कि इस जन लोकपाल रूपी समस्या से निपटने का कोई न कोई हल क्यों न हम पहले से ही निकालने की दिशा में कदम बढ़ा लें ताकि हमें भी किसी अनहोनी का सामना न करना पड़े, आज की इस मीटिंग के आयोजन का यही एक मात्र मकसद है अब आप सभी अपने अपने विचार व्यक्त करें ... गुरुघंटाल का संक्षिप्त भाषण सुनते-सुनते, सुनते ही सम्पूर्ण कक्ष में सन्नाटा-सा छा गया, सब एक-दूसरे के मुंह को उम्मीद भरी नज़रों से देखने लगे !

लगभग आठ-दस मिनट तक सन्नाटा पसरा रहा, चूंकि सभी जन लोकपाल रूपी बवंडर से भली-भाँती परिचित थे इसलिए भय व संशय ने सबके मुंह को सिल कर रखा हुआ था ... सब की सिट्टी-पिट्टी बंद, लाईट गुल, ब्रेक फ़ैल, को देखते हुए गुरुघंटाल ने पुन: बोलना शुरू किया - सुनो मेरे प्रिय देवी देवताओं, मेरे मन में एक विचार है विचार यह है कि जब बड़े से बड़े नेताओं के विचार शून्य हो रहे हैं तब अपुन लोगों का संशय में रहना कोई अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है, लेकिन मुझे, आई मीन हमें विश्वास है कि इस समस्या का कोई हल भले हमें नहीं सूझ रहा है पर हमारी बिरादरी के वो "बाबा जी" ... जो हैं तो हमारी बिरादरी के ही पर ... पर वो हम लोगों की गुरुघंटाली के कारण ... खैर छोडो पुराने गिले-शिकवे ... क्यों न एक बार उनसे सलाह-मशवरा कर लिया जाए, मुझे यकीन है कि वे जरुर कोई हल सुझा देंगे ... चारों तरफ से आवाज गूँज पडी - हाँ ... हाँ ... हाँ ... एक वही हैं जो कुछ न कुछ हल जरुर बता सकते हैं !

एक राय पर मीटिंग का समापन हुआ तथा दूसरे ही क्षण दस गुरुघंटालों का एक दल "बाबा जी" की ओर रवाना हो गया ... संयोग देखिये कि जो बाबा जी हर समय साहित्यिक बिरादरी के आयोजनों से उपेक्षित रहे थे आज पूरी की पूरी साहित्यक जमात मुश्किल घड़ी में उन्हीं "बाबा जी" की ओर चल पडी है ... गाँव में प्रवेश करते ही प्रतिनिधि मंडल ने आपस में यह तय कर लिया कि सभी बाबा जी के स्वभाव से परिचत हैं इसलिए उनके कड़वे, तीखे, विषेले, कंटीले, बोल-वचनों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना है कोई भी सुनकर रोष व्यक्त नहीं करेगा, हमें सिर्फ अपने मतलब की बातें सुनना है !

बाबा जी अपनी झोपडी के बाहर आँगन में ही एक खटिया पर बैठे हुए थे, इन गुरुघंटालों को आते देख खटिया से उठते हुए बोले - आओ चले आओ .. आज गिरगिटों, मेढकों, शेखचिल्लियों, चिलगूजों, मदारियों, जोकरों, लम्पटों, पर एक कविता लिखने का मन बना रहा था ... चलो अच्छा हुआ तुम लोग आ गए, लगता है शहर से तथा ऊंचीं हवेलियों से पेट नहीं भर रहा है इसलिए गाँव और झोपड़ियों पर नजर गडाने आ गए हो, अब आ गए हो आ जाओ, सुनाओ क्या खिदमत करूँ ... बाबा जी के अनमोल-बोल सुनने के बाद धीरे से सब ने अपना दुखड़ा सुनाया ... दुखड़ा सुनकर दो-तीन मिनट सोचने के बाद बाबा जी ने कहा - सब लोग अपने अपने "कान खुजा" कर इधर आ जाओ, एक बार बताऊंगा, ठीक से सुन लेना ... सब लोग अपने अपने "कान खुजा" कर बाबा जी के पास कान सटा कर बैठ गए ... बाबा जी ने जन लोकपाल रूपी समस्या से निदान का एक मंत्र कानों में फूंक दिया ... मंत्र को सुनते ही सब के चेहरे खिल उठे तथा बाबा जी का आशीर्वाद लेकर वापस राजधानी पहुँच कर अपने अन्य सांथियों को मंत्र से अवगत कराया, मंत्र को सुनकर खुशी का माहौल हो गया तथा सभी के चेहरे पहले की तरह चमकने लगे ... सुकूं की ठंडी सांस लेते हुए सब बोल पड़े - अब देखते हैं ये जन लोकपाल रूपी बवंडर हमारा क्या बिगाड़ लेगा !!

बिना सिर-पैर की कविता

आज फिर से -
मेरा मन हो रहा है
कि -
लिखूं, एक और बे-सिर-पैर की कविता !

जिसमें -
क्रिकेटर चौके-छक्के लगा रहा है !
जिसमें -
फुटबालर गोल पे गोल ठोक रहा है !
जिसमें -
बच्चे बीच सड़क पे गिल्ली-डंडा खेल रहे हैं !
जिसमें -
गाँव के कुछ निकम्मे चबूतरे पे बैठ ताश खेल रहे हैं !
जिसमें -
लड़कियाँ आँगन में रंगोली बना रही हैं !
जिसमें
औरतें सिर पे मटका रख कुएं से पानी ला रही हैं !
जिसमें -
किसान खेत में हल जोत रहा है !
जिसमें -
मजदूर सवारी बिठा के रिक्शा खींच रहा है !
जिसमें -
अफसर रिश्वत में मिले नोट गिन रहा है !
जिसमें -
नेता देश को लूटने की योजना बना रहा है !
जिसमें -
प्रेमी अपनी रूठी प्रेमिका की राह तक रहा है !
जिसमें -
पति पत्नि एक-दूसरे को बांहों में समेट रहे हैं !

पर क्या मिलेगा मुझे
ऐंसी सड़ी-गली, या यूँ कहूं -
आर्टिस्टिक कविताएँ लिखने से
शायद ! कुछ भी नहीं
सिर्फ -
झूठी-मूठी वाह-वाही, और कुछ तालियाँ !

क्या फर्क पड़ता है
कि -
कुछ मिले, या न मिले
कविता है, क्या कविता का भी कोई सिर-पैर होता है
नहीं होता !
इसलिए ही, मन हुआ, तो लिख दी -
अपुन ने भी, एक बिना सिर-पैर की कविता !!
बोलो, कैसी लगी, आ गया न मजा, हाँ या ना !!

स्मृति सभाएं

स्मृति सभाएं
शोक सभाएं
शुरू हो गई हैं, जगह जगह !

लोगों को, मेरे मरने का इंतज़ार था
रोटियाँ सेंकने के लिए !

अब खूब सिकेंगी रोटियाँ
कहीं कहीं तो -
गांकरें भी सेंकी जाएंगी !

ठीक है, ठीक ही है
जीते जी -
मैं उतना, खुद के काम नहीं आ पाया
जितना, मरने के बाद -
लोगों के काम आ रहा हूँ !

इसी उधेड़बुन में
बहुतों के पेट भर जाएंगे !!

सवालों पे सवाल

हुजूर, आप भी ...
कभी शायरी
कभी कविता
कभी व्यंग्य
कभी हास्य
कभी कहानी
कभी लघुकथा
कभी कुछ और
दरअसल आप लिखते क्या हो ?
क्या कुछ कन्फ्यूजन है ?
या कुछ सीख रहे हो ?
मुझे तो लगता है
कि -
आप खिलाड़ी नहीं हो, बोलो सच कहा न ?
खैर छोडो, ये बताओ ऐंसा क्यूँ कर रहे हो ?
कहीं एक जगह टिकते क्यूँ नहीं हो, हुजूर ?
मैंने कहा ... जी ...
अच्छा जाने दो -
मुझे जल्दी है, फिर किसी दिन बता देना !!

क्या खूब जिंदगी है

सुबह से शाम तक
हम इस गुन्ताड में रहते हैं
कि -
कहाँ से कितने रुपये बटोरे जाएं
और, कितनों को चूना लगाया जाए
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस जुगाड़ में रहते हैं
कि -
काश ! आज एकाद आइटम पट जाए
और, खूब मौज-मजे होते रहें
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इन्हीं ख्यालों में रहते हैं
कि -
कम से कम, हम आज निपट न जाएं
भले अड़ोसी-पड़ोसी निपट जाएं
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस प्रयास में रहते हैं
कि -
पीने-खाने का जुगाड़ हो जाए
और, मुफ्त में ही इंजॉय चलता रहे
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हमारा मकसद यही रहता है
कि -
बॉस के सांथ अपनी सेटिंग बनी रहे
भले लोगों
का छत्तीस का आंकड़ा हो जाएक्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस फिराक में रहते हैं
कि -
हमारी आजादी में दखल न पड़े
भले बूढ़े माता-पिता तड़फते-बिलखते रहें
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हम इस संशय में रहते हैं
कि -
कोई हमारी टांग पकड़ के न खींच दे
भले ही हम लोगों की खींचते रहें
क्या खूब जिंदगी है !

सुबह से शाम तक
हर पल, हर घड़ी, हर लम्हें में
हम इसी चाहत में रहते हैं
कि -
हम किसी न किसी की बजाते रहें, बैंड
पर, कोई हमारी न बजा पाए
क्या खूब जिंदगी है !!

उधेड़बुन

क्यूँ मियाँ, किस उधेड़बुन में हो
क्या कर रहे हो
कुछ खबर है भी या नहीं !

कहीं जिंदगी को -
सांप-सीढ़ी का खेल तो नहीं समझ रहे हो
और
बेधड़क, कुछ का कुछ करे जा रहे हो !

सुबह सोचते कुछ हो
और शाम होते होते, कुछ और कर ले रहे हो
क्या माजरा है ?
क्या समझाओगे हमें ?

क्या यूँ ही, जिंदगी की फटेहाली चलते रहेगी
या फिर
कुछ, कर गुजरने का भी इरादा है !

बोलो, बताओ, कुछ तो मुंह खोलो मियाँ
कब तक, यूँ ही गुमसुम से बैठे रहोगे
और, मन ही मन, ख्याली पुलाव पकाते रहोगे !

धन्य हो प्रभु, आप सचमुच धन्य हो
आपकी लीला अपरम्पार है
खुद तो डूबोगे सनम -
संग संग हमें भी बहा ले जाओगे !

अब उठ जाओ, और कर लो प्रण
कि -
आज से, अभी से, करोगे वही -
जो सुबह सुबह घर से सोच के निकलोगे
वरना, जय राम जी की !!

एक ठोकू कविता

क्या लिखूं, ये सोच रहा हूँ
कुछ सूझ गया तो ठीक
वरना
कुछ भी लिखने के नाम पे -
ठोक दूंगा !

पढ़ने वालों की भी कोई कमी नहीं है
वैसे भी
ज्यादा से ज्यादा गिने-चुने पाठक ही तो -
पढ़ने आते हैं
आएंगे तो ठीक, और नहीं आए, तब भी ठीक !

लेकिन, किन्तु, परन्तु, पर
कुछ न कुछ लिखने की -
भड़ास तो निकल ही जायेगी !

तो लो भईय्या तैयार हो जाओ
आज
जब मन नहीं हो रहा है -
तब भी ठूंस रहा हूँ
अगर नहीं ठूंसा तो, न जाने कब तक
बेचैनी बनी रहेगी !

बेचैनी दूर कैसे हो
ये तो आप भी भली-भाँती समझते ही हो
कि -

एक कवि -
जब तक दो-चार लोगों को, पकड़-पकड़ के
अपनी कविताएँ न सुना दे, तब तक !

एक नेता -
जब तक सुबह से शाम तक
दो-चार लोगों को चूना न लगा दे, तब तक !

एक नारी -
जब तक दिन में, सात-आठ बार
लिपस्टिक-पावडर न पोत ले, तब तक !

एक प्रेमी -
जब तक अपने माशूक के घर-मोहल्ले के
दो-चार चक्कर न लगा ले, तब तक !

एक फेसबुकिया -
जब तक दो-चार महिलाओं के फोटो और पोस्टों पर
आठ-दस लाईक व कमेन्ट न ठोक दे, तब तक !

खैर, यह सिलसिला तो चलते ही रहेगा
न थमेगा, बस बढ़ते रहेगा
इसलिए, फिलहाल, यहीं ब्रेक लगाते हैं
कल की कल देखेंगे -
और परसों की परसों, जय राम जी की !!

Wednesday, November 2, 2011

आलिंगन

कहो, कब तक मुझे तुम
यूँ ही -
समेटते रहोगे
लपेटते रहोगे
सहेजते रहोगे
अपनी बांहों में, बोलो -
कब तक !

कब तक
तुम्हें मेरा आलिंगन
यूँ ही
सुकूं देता रहेगा
और कब तक तुम
यूँ ही
लिपटे रहोगे मुझसे
क्या, किसी दिन तुम्हारा
मन -
नहीं भर जाएगा, मुझसे ?

शायद ! मेरी अंतरआत्मा होगी !!

मेरे अन्दर
कोई
चुप-चाप सो रहा था
या यूं कहें, सो रही थी
एक दिन
मेरी उस पर नजर पड़ गई
मैंने देखा
कि -
ये कौन सो रहा है, वो भी मेरे अन्दर !

फुर्सत से ...
जब मैंने उसे आवाज दी
वह
हिली-डुली
और करवट बदल कर सो गई
मुझे डर सा लगा
छोडो, बाद में देखेंगे, सोचकर
वापस
अपने काम-धंधे पर लग गया !

एक दिन
फिर
अचानक मेरी नजर उस पर पडी
मैं थोड़ा फुर्सत में था
इसलिए
इस बार उससे भिड़-सा गया !

वह
खामोश, गुस्से में मुझे देखने लगी
आँखें लाल
बाल बिखरे हुए
चेहरे पे असीम गुस्सा
उसे देख कर
मुझे डर सा लगा
लगा ऐसे, जैसे
कहीं, वह गुस्से में -
कुछ कर न दे
और मुझे लेने-के-देने न पड़ जाएं !

फिर से मैं, कौन लफड़े में पड़े, सोचकर
दूर हट गया
पर, अब, कुछ डर, कुछ जिज्ञासा -
बन रही है, जानने, समझने की
वह कोई और नहीं -
शायद ! मेरी अंतरआत्मा होगी !!

सहजता

आज के दौर में
सहज होना कठिन है
या फिर
लोग सहज होना नहीं चाहते
सोच रहा था
सोचते सोचते सोचा
कि -
शायद ! लोग
सहज होना ही नहीं चाहते !
इसके पीछे कोई वजह होगी
फिर यह सोचने लगा
पर, नतीजतन यह लगा
कि -
जो लोग खुद को
थोड़ी-सी भी ऊँचाई पर -
समझते हैं
महसूस करते हैं
या होते हैं
वे सहज होना ही नहीं चाहते
क्यों, क्योंकि -
सहज होने से, शायद
वे खुद को -
ऊंचा न महसूस कर सकें !

आम और ख़ास

मैं पेड़ पे लटका हुआ आम हूँ
आम हूँ तो हूँ
खुद-ब-खुद, ख़ास कैसे हो जाऊंगा
तब तक, जब तक
कोई मुझे पेड़ से तोड़कर
किसी एयर कंडीशन शो रूम तक -
नहीं पहुंचाएगा !
और जब एयर कंडीशन शो रूम में -
पहुँच जाऊंगा
तो खुद-ब-खुद ख़ास हो जाऊंगा !
बस एक बार ख़ास होने -
तक की बात है
जैसे ही ख़ास हुआ
फ़टाफ़ट बिक जाऊंगा
खरीददार खड़े होंगे
बोलियाँ लगेंगी
मुंह माँगी कीमत मिल जायेगी
बस, यही फर्क होता है
आम और ख़ास में
आम की दो कौड़ी भी कीमत नहीं होती
और ख़ास की -
सच ! मुंह माँगी कीमत हो जाती है !!

टुच्ची हरकतें

सच ! होता है अक्सर
लोग -
पंदौली दे दे कर
काँधे पे बिठा बिठा कर
पीठ पे लाद लाद कर
हाँथ पकड़ पकड़ कर
छोटे
हलके
टुच्चे
लोगों को भी
बहुत बड़ा -
बहुत बड़ा आदमी बना देते हैं !
ऐंसी मिसालें -
एक नहीं अनेकों मिल जायेंगी !
दुःख तो तब होता है
जब
इन टुच्ची हरकतों के बीच में
हुनर
काबिलियत
मेहनत
कहीं न कहीं दब के रह जाती है
पिछड़ के रह जाती है !
फिलहाल तो -
टुच्ची हरकतों, हरकतबाजों को सलाम !!

हुनर

हुनर की तो कम से कम
आज तुम हमसे बातें न करो
हमें मालूम है
कि -
हुनर क्या होता है !
एक समय सुनते थे ...
कि -
हुनर के भी अपने मसीहा हैं !
हुनर के भी अपने सलीखे हैं !
हुनर के भी अपने तजुर्वे हैं !
हुनर की भी अपनी कहानी है !
पर,
आज का हुनर, अपने आप में -
बेमिसाल है
बेजोड़ है
अकाट्य है
क्यों, क्योंकि -
वह
चमचागिरी
जी हुजूरी
भाई-भतीजावाद, से लबालब है !
इन जैसे हुनरों के फनकार
आज
खुद-ब-खुद, बन बैठे सरकार हैं !!

मरने के बाद

अब मैं बहुत याद आऊँगा
बहुत ही जियादा याद किया जाऊंगा
क्यों, क्योंकि -
मैं अब मर गया हूँ
है न कुछ अजब विडम्बना
कि -
मैं जीते जी कम याद किया गया
मरने के बाद -
बहुत ही जियादा याद किया आऊँगा
देख लो, याद आ रहा हूँ
मरते ही सबको याद आ रहा हूँ
याद आते रहूंगा ...
जन्मदिन के बहाने
जन्म शताब्दी के बहाने
पुण्यतिथि के बहाने
अक्सर गोष्ठी-संगोष्ठी होते रहेंगी
मेरे नाम पर ...
मैं एक ऐंसी साहित्यिक दुनिया का -
जीव, निर्जीव रहा हूँ
जहां -
अक्सर मरने के बाद
याद किये जाते हैं
पूजे जाते हैं, किसी न किसी बहाने ... !!

आदत

कब तक बैठे रहें
हम इंतज़ार में उनके
और कब तक देते रहें,
दिलासा खुद को
कि -
वो आएंगे, रहे होंगे ...
बहुत हुआ अब इंतज़ार, उनका !
जी चाहता है
क्यूं
आज से ही आदत बदल ली जाए
गर वो गए, दस मिनट में
तो ठीक है
वरना
बेहिचक, कोई और
नंबर घुमा लिया जाए !!

सुलगती आग

सच ! मुझे न थी खबर
कि -
मेरा अस्तित्व सूखी लकड़ी सा भी है
कभी सोचा भी नहीं था
कि -
जिस दिन जलूँगी, बस जलते रहूँगी
हाँ, याद है वो रात, जब तुमने
कड़कड़ाती ठण्ड में
माचिस की तिली से सुलगाया था मुझे
तिली के स्पर्श ने -
मुझे भभका दिया था
तब से अब तक सुलगी हुईं हूँ
कभी दबे अंगार की तरह
तो कभी भभकती आग की तरह
फर्क होता है तो सिर्फ
तुम्हारे होने, और न होने का
तुम्हारे होने पर -
भभकतीसुलगती
दहकती
आग होती हूँ
और न होने पर दबा अंगार होती हूँ ... !!

खुदगर्जी सर-आँखों पे है !

फेसबुक भी, मतलबियों की बस्ती है 'उदय'
सच ! बहुत अपनी वाल से बाहर नहीं आते !
...
जूते उठाने के हुनर ने उसे मंत्री बना दिया
अब उसे जन भावनाओं की परवा नहीं है !
...
कम से कम आज तो नसीबों की बातें न हों
सुनते हैं, पत्थर भी पूजे गए हैं !
...
कुछ लोग लिखते तो बहुत धांसू हैं
अफ़सोस ! छपते नहीं हैं !!
...
आज उसे रंज हुआ है, मुझसे बिछड़ कर
सच ! कल तक तो वो बड़े घमंड में थे !!
...
मैंने उनके नाम, ढेरों पैगाम लिख छोड़े थे
उन्हें फुर्सत कहाँ थी, जो उन्हें पढ़ भी लेते !
...
सच ! कमबख्त ये क्या मुहब्बत है
वो होती तो है, पर होती नहीं है !!!
...
जी तो चाहता था, मुहब्बत कर लें हम
पर, उनकी हाँ पर भी हम खामोश रहे !
...
जिन पे फना होने को, हम आतुर हुए थे
कहाँ थी खबर कि वो भी हम पे फना हैं !
...
उम्मीद तो नहीं थी 'उदय' वफ़ा की
वजह कुछ तो होगी, आशिकी की !
...
हम तो नहीं थे उनके, फिर भी उनको यकीं था हम पर
न जाने क्या बात थी, जो उनके जेहन में थी !!!
...
जी तो चाहता है कि फना हो जाऊँ
पर सोचे फिरे हूँ किस पर होऊँ !
...
मैं उनका नहीं हूँ, ये तो खबर है मुझको
क्या उनको खबर है कि वो मेरे नहीं हैं !
...
न तो उसका था, और न ही खुदी का था
जिसने दिल से चाहा, मैं तो उसी का था !
...
सच ! कोई कहता भी रहे, मुझे तुमसे मुहब्बत है
मत करना यकीं, जब तक खुद पे एतबार न हो !
...
बहुत मुश्किल से सम्भाला है खुद को
कैसे कह दूं, मोहब्बत नहीं है तुम से !
...
गरीबी, लाचारी, बेचारी, और जवां खुबसूरती
क्या कहने, अब कोई धर्म-कर्म की बातें न करे !
...
तीन मरे, पांच मरे, हेडलाइंस बन गई है 'उदय'
उफ़ ! आज मौत की खबरें, सुर्ख़ियों में हैं !
...
क्या गजब रंगरेज हुआ है नेता हमारा
उफ़ ! सुबह-शाम खुदी को रंगता दिखे है !
...
जरूरतें, जरूरतों को जन्म दे रही हैं
उफ़ ! खुदगर्जी सर-आँखों पे है !!

... रौशनी बन जगमगाऊँगा !

जी चाहता है मेरा भी, दीप जलाऊँ
तुम होते, तो शायद दीवाली होती !
...
परवाह नहीं है कि - क्यूँ छपते नहीं हैं हम
अभी तो लिख रहे हैं फुर्सत में नहीं हैं हम !
...
न जाने कब, जी ने चाहा था कि तुझसे दूर हो जाऊं
उफ़ ! 'रब' ने सुनी तो सिर्फ इत्ती सी सुनी !!
...
इतना भी नहीं हूँ, मैं दूर तुमसे यारा
जब चाहे तब मिलो, हंस कर मुझे मिलो !
...
सच ! सुनते हैं, बहुत खूबसूरत हैं वो
बिना देखे, हम कैसे फैसला कर लें !
...
फना होने के भय से, जो सहमे हैं घरों में
उन्हें फिर रास्ते कैसे, और मंजिलें कैसी !
...
दुकानदार भी कमजोर लग रहा है 'उदय'
सोना छोड़, पीतल बेच रहा है !!
...
सच ! बहुत संगदिल हुआ है यार मेरा
मेरी सुनता नहीं है, खुद ही कुछ कह रहा है !
...
सच ! ऐंसा नहीं कि हम सुधर नहीं सकते
पर, एक ईमानदार कोशिश तो की जाए !
...

जी तो चाहता है, कि फना हो जाऊं
पर कोई तो हो जिस पे एतवार करूं !
...
'रब' ने चाहा तो आज मैं भी दीप बन जाऊंगा
किसी के ख्यालों में रौशनी बन जगमगाऊँगा !
...
खुदी के कद को, इतना बढ़ा लो 'उदय'
लोग देखें तो लगे, आसमां हांथों में है !
...
जी तो चाहे है कि मुहब्बत कर लूं
पर सोचता हूँ, कि किस से करूं !!
...
जी चाहता है मेरा भी, दीप जलाऊँ
तुम होते, तो शायद दीवाली होती !
...
सिर्फ दिल की लगी होती, तो बुझ गई होती
ये आग, जेहन में लगी है, कैसे बुझने दूं !!
...
हर रंग में रंगने को बेताब हूँ
मगर जिद है, तेरे हांथों से !
...
तुम्हारे होने का असर, न अब पूछो हमसे
पूछना है तो, न होने का असर पूछो हमसे !
...
लोग हमसे उमड़ उमड़ के मिल रहे थे 'उदय'
बात जब दिल की आई, अनसुनी कर गए !!
...
ये सोच के मत बैठो 'उदय' कि आज दीवाली है
सूने दिलों तक, चराग बन के पहुँचना है हमें !!
...
कभी न कभी तो, जल के ख़ाक होना ही है 'उदय'
क्यूं न आज से, दीपक बन थोड़ा-थोड़ा जल लिया जाए !
...
जी चाहे है, सारी रात चिराग बन जलता रहूँ
कोई तो, कहीं तो होगा, जो अंधेरे में होगा !
...
सच ! मैं दीवाली की खुशियाँ, कैसे मना लूं 'उदय'
दिल कहता है, आज की रात भी कोई अंधेरे में है !

... खुद ही पूंछ लो उनसे !

किवाड़ पे डोंट डिस्टर्व की तख्ती
और अन्दर डिस्टर्व ही डिस्टर्व है कोई !
...
वक्त के सांथ भी जब वो, खुद को बदलना चाहे
मुमकिन है वो वक्त को बदलने की चाह रखता है !
...
सरकार ने मंहगाई बढ़ा-बढ़ा के, खूब पाठ पढ़ाया है
बच्चे-बच्चे को, आटे-दाल का भाव समझ आया है !
...
एक अर्से से हम खुदी को आजमा रहे थे
जिंदगी का सबब जान के, हम खुद ही हैरां हुए हैं !
...
क्यूं दिल की लगी, दिल्लगी हुई
'खुदा' जाने है, या तू !!
...
जी चाहे, जितना चाहे, तुम चीखते रहो
लो, हम बैठ गए, और मौन हुए हैं !
...
लो, होते होते, ये क्या गजब हो गया
अपुन आज से किसी और का हो गया !
...
ठीक ही कहते हो 'उदय', पुरुस्कारों के भी पांव होते हैं
सच ! वे खुद--खुद, किसी किसी के दर पे होते हैं !
...
बहुत मुश्किल भी नहीं हैं, बहुत आसां भी नहीं हैं
चाहतें, ख्वाहिशें, मंजिलें, बहुत दूर भी नहीं हैं !!
...
कल तक तो थी डायन, आज भष्मासुर हुई है
सुनते हैं, मंहगाई सरकार की लुगाई हुई है !! 
... 
कौन कहता है कि तुम आ के छू लो मुझको
सच ! मैं पारस नहीं हूँ, ये मैं जानता हूँ !!
...
सच ! फना होने का, गर कोई सलीखा होता
इतना तो तय था कि, कोई न आशिक होता !
...
जितनी मर्जी तुम्हारी, आजमा लो मुझको
सच ! मैं हीरा हूँ, जी चाहे तराशो मुझको !
...
तुम फना होने की तहजीब सिखा दो मुझको
जी तो चाहे है कि आज फना हो जाऊँ !!
...
कहते-सुनते रहे हैं कि क्या बात है
गर बात होती, तो कुछ बात होती !
...
न तो कल ही था, और न ही आज हूँ उनका
सच ! गर चाहो तो, खुद ही पूंछ लो उनसे !!
...
गर चाहूँ भी तो कैसे खुद को साबित कर दूं
सच ! लोग कहते हैं कि बहुत छोटा हूँ मैं !!
...
लोग कहते हैं कि नज़रों का धोखा है सनम
कैसे मान लें, जब तक उनसे न पूंछ लें हम !
...
गर चाहें तो उन्हें खुद ही तराश लें हम
पर बिना पूछें ये खता कैसे कर लें हम !
...
जी न चाहे, तब भी तू मुझसे मुहब्बत कर ले
सच ! बिना बोले ही, तुझपे मैं फना हो जाऊं !