Tuesday, May 31, 2011

उलझन !

कल की तरह
आज भी
मैं
इंतज़ार करता रहा
तुम्हारा
तुम, ना जाने, क्यों,
भूल गए
किये वादे को
या फिर तुम, कहीं
किसी, उलझन में तो नहीं हो !
तुम्हारे, वादे भूलने से
या तुम्हारे ना आने से
उतना दुखी नहीं हूँ
जितना यह सोचकर
चिंतित हूँ कि
कहीं तुम, किसी
गंभीर समस्या
या किसी गंभीर उलझन में तो नहीं हो !!

... एक उम्मीद थे ... बाबू जी !!

कुदरत का विधान है
जो आया है
उसे जाना ही है
आज उनकी, तो कल किसी की
फिर कल किसी की
एक एक कर, हम सभी की
बारी आनी है ... जाने की
एक जहां से
दूसरे जहां की ओर
उस जहां में ... जहां से
कोई लौटा नहीं है
थे जब तक, एक साये की तरह थे
जाना था ... चले गए ... बाबू जी
चिलचिलाती धूप में
शीतल छाँव थे ... बाबू जी
कडकडाती ठण्ड में
गर्म साँसें थे ... बाबू जी
तूफानी बारिश में
बरगद का दरख़्त थे ... बाबू जी
क्या थे, क्या नहीं थे
हर घड़ी, हर क्षण, हर पल
एक आस, एक सहारा, एक उम्मीद थे ... बाबू जी !!

Wednesday, May 25, 2011

... बाबू जी !

बाबू जी
सारा गाँव, उन्हें
बाबू जी ... बाबू जी
पुकारता था
बूढ़े-बच्चे, आदमी-औरत
छोटे-बड़े, अमीर-गरीब
सब के सब
उनके, गाँव आने पर झूम उठते थे
चहेते थे, माननीय थे, पूज्यनीय थे
बस स्टैंड से घर पहुंचते-पहुंचते
घंटे - डेढ़ घंटे लग जाता था
सब से दुआ-सलाम, मेल-मुलाक़ात
हाल-चाल पूंछते, जानते, ... आगे बढ़ते थे
बच्चों को, खाने-पीने की चीजें
बाँटते-बाँटते चलते थे
कुछ पल, कुछ घड़ी को, उनके इर्द-गिर्द
मेला-सा लग जाता था
यह मंजर उनके आने पर
और ठीक इसी तरह का आलम ... उनके जाने पर
हुआ करता था, पर ... अब गाँव
सूना सूना-सा रहेगा
क्यों, क्योंकि, अब ... बाबू जी नहीं रहे
कहते हैं, सुनते हैं
अब ... बाबू जी का ... स्वर्ग में वास हो गया है !!

चमचागिरी और चापलूसी !

एक दिन
मैं भी, घंटों बैठकर
एकांत में, सोचता रहा
चमचागिरी
और चापलूसी में
आखिर, बुराई क्या है
लोग क्यों
बुरी नजर से, देखते हैं
किसी चमचे
या चापलूस को !

फिर सोचा, और सोचते रहा
बुराई, किसमें नहीं होती
होती है, सबमें होती है
मुझे तो, कोई भी
बुराई से, अछूता नहीं दिखता
लोग, अच्छे-अच्छों की
करते-फिरते हैं, बुराई पे बुराई !

पर मैंने, देखा है
हरदम, हरपल
मौज-मजे में, शान-शौकत में
चमचों, और चापलूसों को
ये तो कुछ भी नहीं
मैंने तो
चमचों के चमचों को भी
देखा है
एक गाल में रसगुल्ला
तो दूजे गाल में, पान चबाते हुए !!

उपेक्षाएं और अपेक्षाएं !

कुछ लोगों ने
झूठे, मान, सम्मान के लिए
अपने अपने जहन में
अपेक्षाएं
सहेज, संजो, पाल के रख लीं
या, यूं कहें
सम्मान के लिए
भले झूठा-मूठा ही सही
सम्मान तो सम्मान, होता है
झूठे सम्मान के लिए
नई रणनीति बना कर
स्थापित व प्रतिभाशाली
व्यक्तित्वों की, उपेक्षाएं, शुरू कर दीं
कोई मापदंड नहीं, कोई नीति नहीं
जो मन में आया
उसे ही, लाग-लपेट कर
प्रतिभाओं, प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों को
नींचा, ओछा, बेकार
बता बता कर, चिल्ला चिल्ला कर
उपेक्षित कर दिया
हुआ ये, कि
उपेक्षाएं और अपेक्षाएं
झूठे लोगों की, झूठी ही सही, अमर हो गईं !!

Wednesday, May 11, 2011

बाल मजदूर !

गंदी
प्लेटें उठाना
उन्हें धो देना
वर्तन
समेटना, मांझ देना
गाड़ियां
धोना, कपड़ा मार देना
घरों में
झाडू, पौंछा लगा देना
पानी भर, कपडे धो देना
हैं, ऐसे बहुत से काम
जिन्हें, मैं, कर लेता हूँ
कभी, खुशी से
कभी, किसी के कहने पर
या भूख बढ़ने पर
मैं, खुद
जो सामने दिखता है
वह काम, खुशी खुशी, कर
अपना भूखा पेट, भर लेता हूँ
मैं मजदूर हूँ
लोग मुझे, बाल मजदूर कहते हैं !!

सागर !

रोज रचूं मैं
रोज गढ़ूं मैं
छोटे-मोटे, शब्दों से
कांट - छांट कर
समेट, सहेज कर
छोटी-मोटी, रचनाएं !
रीत न जाऊं
डर है, मुझको
रोज रोज
बूँद बूँद, झर जाने से
हूँ मैं सागर
एक छोटा-सा
शब्दों के संसार का !!

अफसर !

बन गया है, वो
जिले का, एक बड़ा
सबसे बड़ा अफसर
बंगला है, गाडी है
वेतन - भत्ते
नौकर - चाकर हैं
और न जाने
क्या क्या नहीं होगा
पर, उसकी
एक पुरानी आदत
नहीं गई, मांगने की
जब भी
मांगना होता है, उसे
मुंह खोलकर, मांग लेता है !!

छोटा या बड़ा !

कौन छोटा है
और कौन बड़ा है
मुझे
फर्क, समझ नहीं आता
जिन्हें लोग, समाज
बड़ा समझते, मानते हैं
वे तो, मुझे
एक - दूसरे को
चांते, सहलाते, पौंछते
ही दिखते हैं
बताओ, अब मैं, कैसे
और किसको
छोटा या बड़ा, मान लूं !!