Thursday, February 10, 2011

कंजूस खोपडी !

एक दिन ट्रैन में यात्रा के दौरान सामने वाली सीट पर एक महाशय को सूट-बूट मे आस-पास बैठे यात्रियों के साथ टाईमपास करते देखा, वह देखने से धनवान और बातों से धनाढय जान पड रहा था, तभी एक फ़ल्ली बेचने वाला आया, कुछ यात्रियों ने ५-५ रुपये की फ़ल्लियां खरीद लीं तभी उस धनाढय महाशय ने भी फ़ल्ली वाले से २ रुपये की फ़ल्ली मांगी, फ़ल्ली वाले ने उसे सिर से पांव तक देखा और २ रु. की फ़ल्ली चौंगा मे निकाल कर देने लगा तभी महाशय ने व्याकुलतापूर्वक कहा बहुत कम फ़ल्ली दे रहे हो तब उसने कहा - सहाब मै कम से कम ५ रु. की फ़ल्ली बेचता हूं वो तो आपके सूट-बूट को देखकर २ रु. की फ़ल्ली देने तैयार हुआ हूं कोई गरीब आदमी मांगता तो मना कर देता।
वह महाशय अन्दर ही अन्दर भूख से तिलमिला रहे थे फ़िर भी कंजूसी के कारण मात्र २ रु. की ही फ़ल्ली मांग रहे थे फ़ल्ली से भरा चौंगा हाथ मे लेकर २ रु देने के लिये पेंट की जेब मे हाथ डाला तो ५००-५००, १००-१०० के नोट निकले, अन्दर रखकर दूसरी जेब मे हाथ डाला तो ५०-५०,२०-२०,१०-१० के नोट निकले, उन्हे भी अन्दर रखकर शर्ट की जेब मे हाथ डाला तो ५-५ के दो नोट निकले, एक ५ रु का नोट हाथ मे रखकर सोचने लगे तभी फ़ल्ली वाले ने कहा सहाब पैसे दो मुझे आगे जाना है, तब महाशय ने जोर से गहरी सांस ली और नोट को पुन: अपनी जेब मे रख लिया और चौंगा से दो फ़ल्ली निकाल कर चौंगा फ़ल्ली सहित वापस करते हुये बोले- ले जा तेरी फ़ल्ली नही लेना है, फ़ल्ली बाला भौंचक रह गया गुस्से भरी आंखों से महाशय को देखा और आगे चला गया।
महाशय ने हाथ मे ली हुईं दोनो फ़ल्लियों को बडे चाव से चबा-चबा कर खाया और मुस्कुरा कर चैन की सांस ली, ये नजारा देख कर त्वरित ही मेरे मन में ये बिचार बिजली की तरह कौंधा "क्या गजब का 'लम्पट बाबू' है, ..... पेट मे भूख - जेब मे नोट - क्या गजब कंजूस ....... मुफ़्त की दो फ़ल्ली खूब चबा-चबा कर ....... वा भई वाह ..... क्या कंजूस खोपडी है" तभी अचानक उस "लम्पट बाबू" की नजर मुझ पर पडी थोडा सहमते हुये वह खुद मुझसे बोला - देखो न भाई साहब २ रु खर्च होते-होते बच गये एक घंटे बाद घर पहुंच कर खाना ही तो खाना है!!! तब मुझसे भी रहा नही गया और बोल पडा - वा भई वाह क्या ख्याल है ...... लगता है सारी धन-दौलत पीठ पर बांध कर ले जाने का भरपूर इरादा है ।

3 comments:

Sushil Bakliwal said...

कृपणेन समो दाता न भूतौ न भविष्यति,
अस्पृसन्नैव वित्तानी य परेभ्य प्रयच्छति.
अर्थात्
कंजूस के समान दानी न हुआ है और न होगा क्योंकि जीतेजी वह अपने पैसे को न खाता है और न ही किसी को खाने देता है और मरने पर सारा का सारा समाज के लिये छोड जाता है ।

कविता रावत said...

kanjusi par bahut badiya aalekh.. kya kahne kanjusi ke....
लगता है सारी धन-दौलत पीठ पर बांध कर ले जाने का भरपूर इरादा है ..sach aisa hi bahut ko dekh yahi lagta hai.. sab jaankar bhi kitne anjaan hote hai log...

Atul Shrivastava said...

अच्‍छी कहानी। शायद उसे नहीं मालूम कि वह खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही जाएगा।