Wednesday, February 9, 2011

कलयुग का आदमी !

अब सोचता हूं
क्यों न "कलयुग का आदमी" बन जाऊं
कलयुग में जी रहा हूं
तो लोगों से अलग क्यों कहलाऊं

बदलना है थोडा-सा खुद को
बस मुंह में "राम", बगल में छुरी रखना है
ढोंग-धतूरे की चादर ओढ के
चेहरे पे मुस्कान लाना है
झूठी-मूठी, मीठी-मीठी
बातों का झरना बहाना है
"कलयुग का आदमी" बन जाना है

फ़िर सोचता हूं
कलयुग का ही आदमी क्यों !
अगर न बना, तो लोगों को
"पान" समझ कर "चूना" कैसे लगा पाऊंगा
एक औरत को पास रख कर
दूसरी को कैसे अपना बना पाऊंगा

क्या कलयुग में रह कर भी
खुद को बेवक्कूफ़ कहलवाना है
अगर न बने कलयुगी आदमी
कैसे बन पायेंगे "नवाबी ठाठ"
कहां से आयेंगे हाथी-घोडे
कैसे हो पायेगी एक के बाद दूसरी ...
दूसरी के बाद तीसरी ..... शादी हमारी

कैसे ठोकेंगे सलाम मंत्री और संतरी
कैसे आयेगी छप्पन में सोलह बरस की
कैसे करेंगे लोग जय जय कार हमारी
यही सोचकर तो "कलयुग का आदमी" बनना है

लोगों से अलग नहीं
खुद को अपने से अलग करना है
मौकापरस्ती का लिबास पहनकर
झूठ-मूठ के फ़टाके फ़ोडना है
बस थोडा-सा बदलना है खुद को
एक को सीने से लगाकर
सामने खडी दूसरी को देखकर मुस्कुराना है
"कलयुग का आदमी" का आदमी बन जाना है !

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