Thursday, February 10, 2011

दोस्ती !

वो रहनुमा 'दोस्त' बनकर,
हमसे मिलते रहे
और हम उन्हें,
अपना हमदम समझते रहे
चलते-चलते,
ये हमें अहसास न हुआ
कि वो दोस्त बनकर,
दुश्मनी निभा रहे हैं
एक-एक बूंद 'जहर',
रोज हमको पिला रहे हैं !

अब हर कदम पर
देखता हूं, उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर ,
अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते, तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता !

संतोष कर लेता,
देखकर खरोंच सीने की
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
वो निशान पीठ के
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त', और दुश्मन किसे कहें !!

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