Saturday, June 25, 2011

आजाद हिन्दोस्तान !

देश का आमजन
भ्रष्टाचार से हलाकान है
क्या यही गांधी का
आजाद हिन्दोस्तान है !

सड़ रहे अनाज के बोरे
भूख से जाग रहा इंसान है
क्या यही गांधी का
आजाद हिन्दोस्तान है !

कालाधन भरा पडा है
कर्ज में डूबा आम इंसान है
क्या यही गांधी का
आजाद हिन्दोस्तान है !

बूढ़े लड़ते खड़े हुए हैं
युवा सत्ता में आसीन हैं
क्या यही गांधी का
आजाद हिन्दोस्तान है !

लुटेरे संसद में बैठें
अपराधियों की शान है
क्या यही गांधी का
आजाद हिन्दोस्तान है !

तीनों-चारों बंदरों में
एक-दूजे का सम्मान है
क्या यही गांधी का
आजाद हिन्दोस्तान है !!

दो-दो हांथ !

लोकपाल के मसले पर,
क्यों तलवारें खिंच जाती हैं

है, जब भ्रष्टाचार मिटाना मकसद
फिर क्यूं, तकरारें बढ़ जाती हैं

सरकारें तो, बनती-मिटती हैं
मिटाना, भ्रष्टाचार जरुरी है

आज मिटा लो, तो अच्छा है
वरना, कल खुद मिट जाओगे

फिर चीखोगे, या चिल्लाओगे
होगा, कोई सुनने राजी

आज मिला है मौक़ा सब को
भ्रष्टाचार से लड़-भिड़ जाओ

भ्रष्ट तंत्र से, भ्रष्टाचार से
दो-दो हांथ सभी आजमाओ !!

Thursday, June 23, 2011

कमजोर लोकपाल !

एक नेता, और ढेर सारे आम आदमी
सड़क पर खड़े होकर
जोर-जोर से चिल्ला रहे थे
सरकार
कमजोर लोकपाल बनाना चाहती है
हम इसके खिलाफ हैं !
मैं नारे सुनकर सन्न रह गया
खड़े-खड़े सोचने लगा
कि बहुत कठिन घड़ी जान पड़ रही है
जन लोकपाल का मुद्दा
ड्राफ्टिंग कमेटी की मीटिंगों से
बाहर निकल कर
सड़क पर गया है
सरकार हिल रही है, कहीं गिर जाए
मैं, चुप-चाप नारे सुनता रहा
माहौल शांत-सा हुआ
तब मैंने पूछा
क्या हो गया ... नेता जी
क्यों ख़ामो-खां सरकार गिरा रहे हो
उन्होंने कहा - कौन सरकार गिरा रहा है
हम तो ... भ्रष्टाचार ...
और कमजोर लोकपाल ...
मतलब सरकार का नहीं !
नहीं साहब ... आपको गलतफहमी हो रही है
हम सरकार का नहीं
लोकपाल ... कमजोर लोकपाल का विरोध कर रहे हैं
हम इसके सख्त खिलाफ हैं !!

मजबूत लोकपाल !

प्रधानमंत्री जी ...
आप बहुत अच्छे हैं, और सच्चे भी हैं
आप ... आपकी इमानदारी पर ... किसी को
कोई ... संदेह नहीं है ... ऐसा ... मैं अक्सर सुनता हूँ
पर जानता नहीं, आप ईमानदार हैं भी, या नहीं
शायद इसलिए, कभी जानने का मौक़ा नहीं मिला
जब, लोग कहते हैं, तो होंगे ही ... पर मैं ...
आँख मूँद कर ... आपको ईमानदार ... नहीं मान सकता
ये सच्चाई भी है, आप भी जानते हैं कि -
आँख मूँद कर, किसी को ईमानदार ... मान लेना !
खैर छोडो ... जाने देते हैं
असल मुद्दे पर ... हम ही जाते हैं
बात दर-असल यह है कि -
जन लोकपाल ... जिस पर राजनैतिक हलकों में
काफी गर्मा-गर्मी है, आमजन में भी एक आशा की लहर है
जन लोकपाल, सिर्फ, आज के आमजन के लिए
वरन ... कल के आमजनों के लिए ... भी हितकर होगा
ज़रा सोचिये ... गौर करिए ...
आप भी लोकतंत्र में ... एक आमजन ही हैं ... भले आज
आप ... सत्ता में बैठे हैं ... प्रधानमंत्री हैं !
मैं सोच रहा हूँ, शायद ! आज आपको
जन लोकपाल की जरुरत हो
क्यों, क्योंकि आज आप प्रधानमंत्री हैं !
पर ज़रा सोचिये ... गंभीरता पूर्वक, कि -
कल जब आप प्रधानमंत्री नहीं होंगे, और ही
आपके परिवार में, कोई बड़ा अफसर होगा
तब ... कहीं ... इसी लोकतंत्र में
आपके ... बेटा-बेटी ... नाती-पोतों ... या अन्य रिश्तेदारों को
भ्रष्टाचार, दुराचार, कुशासन, और ...
का सामना करना पडा, या चपेट में गए
तब, उनकी आत्मा कितनी कल्लाएगी-झल्लाएगी
कहीं ... तब ... वे ... आपको कोसने लगें
इस बात को लेकर कि -
काश, आपने लोकपाल का गठन कर दिया होता !
सोचिये ... गंभीरता पूर्वक सोचिये
मजबूत लोकपाल का गठन ... लोकतंत्र की जरुरत है !!

यादों के साये में ... बाबू जी !

बाबू जी ...
क्या थे, क्या नहीं थे
आज भी, समझना बांकी है
आज "फादर्स डे" पर
वे, यादों में, कुछ इस तरह
उमड़ आये
आँखें, चाह कर भी
खुद--खुद नम हो गईं
वैसे तो अक्सर
हो ही जाती हैं, नम
आँखें, उनकी याद में
पर, आज, कुछ ज्यादा ही
लबालब हो चलीं
खैर ...
कोई चाहे, या भी चाहे
फिर भी होते हैं सांथ
हर घड़ी, हर पल, हर क्षण
जिन्दगी के सफ़र में
बन ... हमसफ़र
संग संग ...
यादों के साये में ... बाबू जी !!

Sunday, June 19, 2011

एक चिट्ठी ... अन्ना हजारे के नाम !

अन्ना जी, अरविंद जी
नमस्कार, जन लोकपाल के मसौदे पर मैं आपके विचारों व तर्कों से सहमत हूँ, पर जैसा अक्सर चर्चा-परिचर्चा पर देखने-सुनने मिल रहा है कि सरकार के कुछेक बुद्धिजीवी लोग ... प्रधानमंत्री न्यायपालिका को लोकपाल से पृथक रखना चाहते हैं, इस मुद्दे पर आपने अपने जो विचार व तर्क प्रस्तुत किये हैं (मीडिया के माध्यम से) उन तर्कों से सहमत हूँ, पर सहमत होते हुए भी मेरी व्यक्तिगत राय है कि एक बार पुन: विचार करिएप्रधानमंत्री चीफ जस्टिस आफ सुप्रीम कोर्ट ... इन दो पदों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने में कोई बुराई नहीं है, इन दो पदों को लोकपाल के दायरे से पृथक रखा जा सकता है वो इसलिए कि जन लोकपाल के गठन के उपरांत सुचारू रूप से संचालन व क्रियान्वयन में ये दोनों पद महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैंक्यों, क्योंकि कोई भी ढांचा या इकाई तब ही सुचारुरूप से कार्य संपादित कर सकती है जब उसको मजबूत सपोर्ट हो, और इन दोनों पदों को जन लोकपाल के गठन संचालन के लिए महत्वपूर्ण सपोर्ट के रूप में रखा जा सकता हैहम आशा करते हैं / आशा कर सकते हैं कि जब जन लोकपाल सुचारुरूप से कार्य संपादित करने लगेगा तब इन दोनों महत्वपूर्ण पदों पर निसंदेह ईमानदार निष्पक्ष विचारधारा के व्यक्ति ही पदस्थ हो पाएंगे ( तात्पर्य यह है कि आज के समय में इन पदों पर आसीन लोगों पर जो उंगली उठ रही है या उठ जाती है, उसकी संभावना नहीं के बराबर रहेगी ) ... संभव है आप आपसे जुड़े सभी सदस्यगण मेरे विचारों से सहमत हों, पर मेरा आग्रह है कि एक बार गंभीरतापूर्वक विचार अवश्य करें !
शेष कुशल ... धन्यवाद !!
( विशेष नोट :- वैसे तो मुझे उम्मीद है कि ये दोनों पद भी लोकपाल के दायरे में स्वस्फूर्त आ जायेंगे तात्पर्य यह है कि ज्यादा मसक्कत नहीं करनी पड़ेगी )

फेंको ! उखाड़

मत सोचो
उठो, उठ जाओ
फेंको, उखाड़
जाओ, उखाड़ फेंको
भ्रष्टाचारियों को
तुम, खुद, अपने
खेतों-खलियानों से !

कहीं ऐसा हो
ये भ्रष्टाचारी
तुम्हें ही, कहीं
फेंके, उखाड़
और, लूट लें
खेत, खलियान, फसल
सब कुछ तुम्हारा !

ज़रा सोचो
गर, लुट गये, तुम
फिर, भला तुम
क्या करोगे
करोगे, काम खेतों में
तुम्हारे ही
तुम, खुद, मजदूर बनकर !!

Thursday, June 16, 2011

भ्रष्टाचार : एक उम्मीद !

भाई साहब ...
आप ... मानो या मानो
पर ... भ्रष्टाचार ... अपने आप में एक उम्मीद है
लंगड़े-लूले ... कांने-भेंगे ... लदे-लदाए ... भाई-भतीजे
आड़े-तिरछे ... अपटे-चपटे ... छोटे-मोटे
निकम्मे ... नालायकों ... और कामचोरों ... के लिए
सचमुच ... भ्रष्टाचार
अपने आप में ... एक उम्मीद है
भ्रष्टाचार ... के भरोसे ... के दम पर
इनके लिए भी सुनहरे अवसर खुले हैं
आगे बढ़ने के लिए ... सांथ चलने के लिए
पास होने के लिए ... सिलेक्ट होने के लिए !
सोचो ... ज़रा गंभीर होकर ... सोचो
अगर ... सिर्फ ... अच्छे ... ईमानदार
लायक ... योग्य ... और समझदार ... लोग ही रहेंगे
सिलेक्ट होंगे ... काम करेंगे ... सिस्टम में ... फिर
इन महानुभावों का ... क्या करोगे !
जो अपने आप में ... मिशालें हैं
सरकते-खिसकते समाज की ... पिट्ठू संस्कृति की !
आखिर इन्हें भी तो ... आगे बढ़ना है
ये और बात है कि -
ये भ्रष्टाचाररूपी ... खेल के ... चतुर चालाक
खिलाड़ी बन जाते हैं ... क्यों ... क्योंकि ... इन्हें
सिर्फ ... समझदारों इमानदारों को ही
तो देनी होती है पटकनी ... और ये कौन-सी बड़ी बात है
इन्हें ... ज्यादा-से-ज्यादा ... करना क्या है
किसी की ... जी-हुजूरी ... चमचागिरी ... या फिर
चुगली-चांटी ... कांना-फूसी ... सिर्फ इतना ही
जिसमें ये ... अपने आप में माहिर हो ही जाते हैं
चलो जाने दो ... होता है ... होते रहता है
सिस्टम है ... और इस भ्रष्ट सिस्टम में
भ्रष्टाचार ... अपने आप में एक उम्मीद है !!

असहाय लोकतंत्र !

अब कोई, मुझे, कुछ
समझता ही नहीं है
कोई यहां से, तो कोई वहां से
मेरी भावनाओं ... आदर्शों को
तोड़ रहा है ... मरोड़ रहा है
और तो और
कुछेक ने तो मुझे जेब में रख
घूमना - फिरना ... शुरू कर दिया है
क्या करूं ... क्या कहूं ... किससे कहूं
ये तो कुछ भी नहीं
कुछेक धुरंधरों ने तो मुझे
खिलौना समझ, बच्चों को
खेलने ... कूदने के लिए ...
और वे, खूब मजे से
चुनाव - चुनाव ... खेल रहे हैं
सच ! बहुत शर्मसार हुआ
पर ... अब ... सहा नहीं जाता
भ्रष्टाचार ने तो मेरा
जीना ही दुभर कर दिया है
घोंट दो ... मेरा गला घोंट दो !
सच ! मैं अमर हूँ
पर असहाय लोकतंत्र हूँ !!

Wednesday, June 15, 2011

लोकपाल के दायरे में ... प्रधानमंत्री !

हमने माना ...
और हम मानते भी हैं कि -
हमारे देश के प्रधानमंत्री ...
और उच्च उच्चतम न्यायालयों के
न्यायाधिपति, न्यायमूर्ती, जज, प्रधान
निसंदेह ... ईमानदार थे ...
ईमानदार हैं ... और ईमानदार रहेंगे !
कौन कहता है कि -
ये कभी भ्रष्ट भी ... हो सकते हैं
नहीं ... कतई नहीं ... यह असंभव-सा है
जब असंभव-सा है ... फिर संभवता पर
बहस ... क्यों ... किसलिए
नहीं ... बिलकुल नहीं होना चाहिए
जब ईमानदार हैं ... थे ... और रहेंगे
फिर बहस ... बेफिजूल की बातें हैं !
जब ... इमानदारी पर ... कोई प्रश्न ही उठता हो
तब ... ये ... लोकपाल के दायरे में हों
या हों ... क्या फर्क पड़ता है !
अरे भाई ... फर्क पड़ना भी नहीं चाहिए !!
मेरा तो यह मानना है कि -
कोई बोले ... या बोले ... पर इन्हें
स्वत: ही ... स्वस्फूर्त ... खुद को
जन लोकपाल के दायरे में ... शामिल कर देना चाहिए
ताकि ... कोई इन पर ... बेवजह ही ... झूठे-सच्चे
भ्रष्टाचार के आरोप लगा पाए ... गर कोई लगाए ... तब
आरोप लगाने वालों की ... खटिया खड़ी ... की जा सके
क्यों ... क्योंकि ... आरोप ... जब झूठे लगेंगे
तब झूठे आरोप ... लगाने वालों की
निसंदेह ... खटिया खड़ी ... होनी ही चाहिए !!
आरोप सच्चे ... सच्चे हो ही नहीं सकते
क्यों ... क्योंकि ... ये ईमानदार हैं ... थे ... और रहेंगे !!!

पटकनी !

बाबा जी ... उछले ... और उछल कर
गए ... मैदान में ... बेवजह
बेवजह ... इसलिए ... उन्हें किसी से
लेना
-देना था ... शायद ... कुछ भी नहीं !
फिर भी ... मारी ... दे मारी
छलांग ... राजनैतिक अखाड़े में
भिड़ गए ... कालेधन और भ्रष्टाचार की आड़ में
राजनैतिक ... पहलवानों से
जोश ... और खरोश से ... कूदे
डटे रहे ... अड़े रहे ... डटना ... और अड़ना
पडा भारी ... पहले ... राजनैतिक पहलवानों को
पर ... जब ... जैसे ही ... उन्हें मिला मौक़ा
और ... जब दी पटकनी ... जोर की
तो ... बाबा जी हुए ... चारों खाने चित्त !
भले ही दांव ... धोखे से ... छल से
पर ... दांव तो दांव था ... वो भी जोर का
और ... बाबा जी हुए ... चित्त ... चारों खाने
अब ... सिर पकड़ें ... या कमर पकड़ें
और कब तक पकड़ें ... पटकनी ... तो थी जोर की !
और था भी नहीं ... अखाड़ा ... बाबागिरी का
जो ... सहजता से निपट लेते
राजनैतिक था ... और पटकनी भी राजनैतिक !
माना ... पटकनी से ... बाबा जी ... हुए चित्त
और राजनैतिज्ञों की हुई ... पौ-बारह
पर ... राजनैतिक पहलवान ... ये न भूलें कि -
बाबा जी ... दूध से जले हैं
और जलन भी ... खूब हुई है
ऐसा जला हुआ आदमी ... और वो भी ... बाबा
जिसके पीछे ... जन और जनाधार दोनों है
मौके की तलाश रहेगी ... जैसे मिलेगा ... मौक़ा
देगा पटकनी ... और दिलाएगा याद ... छट्टी का दूध !!

Monday, June 13, 2011

जायज - नाजायज !

भ्रष्ट ... भ्रष्टतम ... भ्रष्टाचार
कुछेक
... नापाक ... इरादों ने
सिर्फ बाबा को
वरन मीडिया को भी
डराया, धमकाया, धौंसा
और शायद सिट्टी-पिट्टी भी
गुम ... कर के रख दी !
धौंस ... और सिट्टी-पिट्टी
बाबा तक ... तो ठीक थी
पर ... चतुर-चालाक ... मीडिया की भी
वाह ... वाह-वाह ... क्या बात है
ये लोकतंत्र है भईय्या
यहाँ ... कुछ भी ... संभव है
जायज है ... भले नाजायज है !!

Sunday, June 12, 2011

सच ! अब मौत दे दो !!

मुझे पता है कि मैं
लोकतंत्र हूँ ! अमर हूँ
खुद--खुद, मर नहीं सकता
अमरत्व का वरदान है मुझे
पर, अब मैं और जीना
सच ! बिल्कुल जीना नहीं चाहता
क्या करूंगा, जी कर
मेरे ही अंग अब
सड़ने-गलने लगे हैं,
खुद--खुद
उन पर कीड़े, जन्मने लगे हैं
दिल, और धड़कनें मेरी
कंप-कंपाने लगी हैं
अब सोच-विचार भी मेरे
कल्लाने-झल्लाने लगे हैं
रूह का क्या ! जाने
कब से थर्रा रही है
भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचार से
हुआ, बहुत शर्मसार हुआ
बस, मुझे तुम
सच ! अब मौत दे दो !!

Saturday, June 11, 2011

तर - बतर !

काली
घटाओं सी
घनी रात में
चलो आ गए
सुन
पुकार तेरी
हम
घने, घनघोर
बादलों की तरह !

बरसते रहे
रुक रुक कर
थम थम कर
रात भर
करते रहे, तुम्हें
तर - बतर
रिमझिम-रिमझिम
बारिश की तरह !

ठहरे
फिर उमड़े
कभी
बादलों सी
गड़-गड़ाहट की तरह
कभी
कौंधती
बिजली की तरह !

तुम्हें
भिगाते भी रहे
खुद
भीगते भी रहे
रात भर
होते रहे 
तर - बतर
रिमझिम - रिमझिम
बारिश की तरह !!

Thursday, June 9, 2011

जादू की छडी !

प्रधानमंत्री जी
आप ... निसंदेह ... जादूगर नहीं हैं
जब ... आप ... जादूगर नहीं हैं
तो ... स्वभाविक है ... आपके हाँथ में
जादू की छडी ... नहीं होगी
हम ... देश की करोड़ों जनता
जानती है ... मानती है
कि आपके ... हाँथ में
कतई जादू की छडी नहीं है
और ... होना भी नहीं चाहिए !
क्यों ... क्योंकि ... आप
देश के ... प्रधानमंत्री हैं ... जादूगर नहीं !
पर ... आप ... देश के मुखिया हैं
इसलिए ... यह तो तय है कि -
आप के हाँथ में ... सत्ता रूपी छडी है
सत्ता रूपी छडी ... अपने आप में ... पर्याप्त है
देश में व्याप्त ... भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए
कालेधन को उजागर करने के लिए
जन लोकपाल के गठन के लिए
लोकतंत्र की मान-मर्यादा को बनाए रखने के लिए
आप से ... उम्मीद है ... आशा है ... कि -
आप ... जादू की छडी रूपी ... परिकल्पना न करें
सत्ता रूपी छडी का इस्तमाल करें
और ... लोकतंत्र में ... व्याप्त हो रहे
आक्रोश ... असंतोष ... अविश्वास ... को दूर करें
तथा ... शान्ति ... सौहार्द्र ... विश्वास
का वातावरण ... निर्मित करें
क्यों ... क्योंकि ... आप
प्रधानमंत्री हैं ... प्रधानमंत्री जी !!

आप क्या हैं !

चलो माना ... मान लेते हैं
बाबा जी ... ठग हैं
पर ... सरकार जी ... आप ... आप क्या हैं !
आपने ... चर्चा ... शुरू की
चर्चा के मुद्दों ... पर सहमती दी
सहमती की ... चिट्ठी भी भेजी
सब ठीक था ... ठीक-ठाक था
फिर ... अचानक ... ऐसा क्या हुआ
क्यों हुआ ... किसलिए हुआ ... कि -
रातों-रात ... आधी रात को
राक्षस ... राक्षसी बुद्धि ... जाग गई
बोलो ... बताओ ... कैसे ... क्यों हुआ !
राक्षसों को ... किसने ... मंत्र फूंक कर ... जगाया
और ... जगा कर ... मंत्र फूंक कर
तांडव ... महा-तांडव का हुक्म दिया
क्यों ... किसलिए ... आधी रात को
सोये हुए ... असहाय ... अहिंसक
बाबा जी ... बूढों ... बच्चों ... महिलाओं पर
बर्बरता का तांडव किया गया
बोलो ... बताओ ... जवाब दो !
क्यों हुई ... बर्बरता ... किसलिए
चलो माना ... मान लेते हैं ... बाबा जी ... ठग हैं
फिर ... सरकार जी ... आप ... आप क्या हैं !!

Monday, June 6, 2011

दांव-पेंच !

बाबा जी
कूदो ... और कूदो

बेवजह ... राजनीति में
दांव ... अच्छा मारा था

जोर का मारा था

सरकार ... काँप उठी थी

सिहर सी गई थी

पर ... जैसे ही ... मौक़ा मिला

उसने ... एक ऐसा पेंच डाला

आपका दांव ... सरकार के पेंच से

अपने आप ... दांव-पेंच ... हो गया

वाह ... वाह-वाह ... क्या खूब

दांव-पेंच ... नजर आया

पहले सरकार ... छट-पटाती सी लगी

फिर ... आप ... औंधे मुंह

चित्त से ... नजर आए

सही है ... सही कहते हैं ... सही सुनते हैं

भईय्या ... ये राजनीति है

राजनैतिक ... दांव-पेंच हैं !

फिर देश की निरीह जनता हो

या चतुर राजनैतिक ... रणनीतिकार हों

या फिर ... बाबा जी ... ही क्यों न हों

उठा-पटक ... पटका-पटकी ... दांव-पेंच

तो राजनैतिक ... हथकंडे हैं

और रणनीतिकार ... हथकंडेबाज हैं

देखो ... संभलो ... संभल कर चलो

जय हो ... बाबा जी ... जय हो !!

Sunday, June 5, 2011

मुद्दे और भी हैं !

जय हो ...
बाबा जी ... स्वामी जी
योगगुरु जी ...
स्वामी रामदेव जी
जय हो ...
आप ज्ञानी-अन्तर्यामी हैं ...
सदा ... आपकी जय जयकार हो
भ्रष्टाचार और कालेधन
पर आपका प्रहार ... पुरजोर है
जय हो !
पर ... भ्रष्टाचार और कालेधन
के अलावा ... मुद्दे और भी हैं
देश की जनता
मिलावटखोरी ... जमाखोरी ...
कालाबाजारी ... टैक्सचोरी ...
... अवैध कब्जा धारियों ... से भी
त्राहीमाम-त्राहीमाम है
आप ... ज्ञानी और अन्तर्यामी हैं
इन गंभीर मुद्दों को ... कैसे ... भूल गए
भ्रष्टाचार और कालेधन
के सांथ-सांथ ... ये भी गंभीर मुद्दे हैं
इनसे जुड़े ... आरोपियों को भी
आजीवन कारावास ... फाँसी ...
जैसी गंभीर सजाओं ... पर गौर कीजिये
जय हो ... बाबा जी ... जय हो !!

चेला, चेली, चेले, चेलागिरी !

नहीं, कोई नहीं है
चेला मेरा ... और
हो भी नहीं सकता
क्यों ... क्योंकि
मैं चाहता भी नहीं
कि कोई हो ... चेला ... मेरा
हैं ... जो भी हैं ... जितने भी हैं
सब-के-सब ... मेरे
पाठक, आलोचक, समालोचक हैं
ये ही मेरे अपने हैं
जिन्हें मैं जानता, मानता हूँ
पर ... मैं सुनता हूँ
चेले होना भी गर्व की बात होती है
कुछ लोग हैं ... जो बगैर चेलों के
चलते ही नहीं ... बढ़ते ही नहीं
और तो कुछ हैं ... जो खुद
एक-दूसरे के चेले बन जाते हैं
आजकल ... बगैर चेलों के
काम चलता भी कहाँ है
किसी का चेला होना
और किसी का चेला हो जाना भी तो
अपने आप में एक 'हुनर' है
कभी-कभी सोचता हूँ ... बन जाऊं
चेला किसी का ... या बना लूं
चेला किसी को ... पर
ठहर जाता हूँ ... सहम जाता हूँ
चेलागिरी को देख कर
आत्मा, मन, दिल ... गवारा नहीं करते
पर ... जानता हूँ ... मानता हूँ ... आजकल
चेला, चेली, चेले, चेलागिरी का
अपना ... एक अलग ही महत्त्व है !!

प्रगतिशील गाँव !

हमारा गाँव ...
एक प्रगतिशील गाँव है
लगातार ... दिन-ब-दिन तरक्की कर रहा है
तरक्की ऐसी, कि कागजों में पुरजोर है
पर ... तरक्की की आड़ में
भ्रष्टाचार का महाजोर है
हमारा सरपंच ... सब के सब पंच
और उनके आला अफसर, कर्ता-धर्ता
भ्रष्टाचार के नए नए आयाम रच रहे हैं
गुल-पे-गुल खिला रहे हैं
खूब घोटाले ... गड़बड़झाले कर रहे हैं
समय समय पर ... पंचायती मेला लगा कर
वेतन, भत्ते, बंगला, गाडी, फोन, फैक्स
इत्यादि भौतिक सुख-सुविधाओं का
खुद-ब-खुद ... खुद के लिए
भरपूर इंतजाम कर ले रहे हैं
योजनाओं, परियोजनाओं और विदेशी दौरों की आड़ में
खूब सरकारी धन लुटा रहे हैं
सारी दुनिया ... अब ... हमारे गाँव को
घोटालों का गाँव ... के नाम से
जानने - पहचानने लगी है
क्यों, क्योंकि ... साल में
दो - चार नामी-गिरामी पंच
कर्म तो सभी के हैं ... पर दो-चार
जरुर ... कालकोठरी में पहुँच रहे हैं
खुशनसीबी ... पंचों की आड़ में
सरपंच ... बार बार बच निकल जा रहा है
हमारा सरपंच ... सच माना जाए तो
गड़बड़झालों का असल 'मास्टर माइंड' है
गाँव की त्रस्त और पस्त आत्माएं
त्राहीमाम-त्राहीमाम कर रही हैं
और मस्त आत्माएं ... मस्त-ही-मस्त हैं
छोटी-मोटी आत्माएं, आवाजें
दफ़न कर दी ... कुचल दी जा रही हैं
गाँव के लोग डरे, सहमे हुए हैं
आवाज उठाने से भी डरने लगे हैं
डरते हैं ... कहीं ... कोई उन्हें
दबोच न दे ... मुरकेट न दे
गाँव का आलम ... पूछों ... मत पूछों
मस्त, मस्त हैं ... और त्रस्त, त्रस्त हैं
फिर भी ... हमारा गाँव ... एक प्रगतिशील गाँव है !!

Thursday, June 2, 2011

मुक्त कर दे !

हे भगवन
तेरी लीला भी अपरंपार है
रोज, कैसे कैसे
चमत्कार हो रहे हैं
भ्रष्ट, भ्रष्ट, भ्रष्टतम भ्रष्ट
अजर - अमर हो रहे हैं
सिर्फ अजर - अमर होते
तो चल भी जाता ... पर
ये सब ... रक्तबीज हो रहे हैं
ये जहां-जहां जाते हैं
जिन राहों से गुजरते हैं
इनके कदम, कदमों के निशां
रोज, हर रोज
नए-नए ... हष्ट-पुष्ट भ्रष्टाचारियों को
जन्म दे रहे हैं
अब बता ... तू ही बता ... कुछ तो बता
ये तेरी कौन-सी माया है
क्या मांजरा है, क्या होनी-अनहोनी है !
क्यों ... और कब तक
असहाय, दयालू, भोले-भाले, निरीह, जनमानुष
इनके नापाक इरादों की भेंट चढ़ते रहेंगे !
बोल ... बता ... कुछ तो बता
हे भगवन
कब तक तू ... यूं ही खामोश रहेगा
या फिर ... कहीं तूने ... अपने कानों में
रुई तो नहीं ठूंस रखी है
यदि रुई ठूंस रखी है ... तो फिर कोई बात नहीं !
यदि कान खुले रखे हैं ... तो सुन
उठाले, मार दे, नष्ट कर दे
इन दरिंदों को, रक्तबीजों को
या फिर ... इन
निरीह, दयालू, भोले-भाले, असहाय जनमानुष को
तू ... अपने हांथों से
जला कर राख कर दे ... इन्हें
इनके नारकीय जीवन, संसार से
मुक्त कर दे - मुक्त कर दे !!

Wednesday, June 1, 2011

नालायक !

भईय्या ... अब मैं
बहुत लायक हो गया हूँ
आप बेवजह ही मुझे
सुबह से शाम तक , सारा दिन
नालायक ... नालायक, कहते रहते हो
अब ... आप मुझे
लायक कहना शुरू कर दीजिये !
अरे वाह ... बहुत खूब ... कैसे
भईय्या ... आप तो देख ही रहे हो कि -
अब मैं ... दिन में एकाद तो
लायकी के काम करने ही लगा हूँ
आपने देखा ... परसों
टेबल से जमीन पर
जलती चिमनी गिर गई थी
पूरे घर में, आग लग सकती थी
त्वरित ही मैंने
खूंटी पे टंगे कोट से
आग बुझा दी थी ... और कल रात
मुझे आईडिया आया तो मैंने
दूध की गंजी के ढक्कन को
खुला छोड़ दिया था
आपने देखा ... रोज की तरह
बिल्ली ... भले ही दूध ...
पी कर चली गई ... पर
गंजी को जमीन पर नहीं गिरा पाई
अब आप ... मेरी पीठ ठोकिये
और कुछ इनाम दे ही दीजिये
लाइये ... लाइये ... कुछ इनाम दीजिये
चुप ... नालायक कहीं के ...
तू ... नालायक का नालायक ही रहेगा !!