Saturday, April 30, 2011

आँखें !

तुम्हारी आँखें
मादक

नशीली
हुई हैं
क्या हुआ, क्या बात है
कुछ
बोलो
कब तक, खामोश रहोगी
बोलो
कब तक
क्या मैं, मान लूं
तुम्हारी
आँखों की बातें
फिर मत कहना
मैंने, पूछा
नहीं !!

चाहत !

तुम दौड़कर
सिमट
आईं
बांहों
में
मैं खामोश
खुद को, और तुम्हें

सहेजता

तुम निढाल हुईं
बिखरने
लगीं
रेत
सी
समेटना, संभालना पडा
तुम्हें
, बांहों में
कैसे बिखरने देता
सच, चाहत जो है !!

दुपट्टा !

तुम्हारा दुपट्टा
हवा
के झौंके संग
सरकने
लगा
नीचे, और नीचे
मेरी
निगाह
थम
सी गई
मैं देखता रहा
कुछ
ललक थी
तुम्हें
देखने की
सच
मैं
देखता रहा
सीने से, सरकता

तुम्हारा
दुपट्टा !!

Thursday, April 28, 2011

ख़्वाबों की ओर !

पैर
जलते रहे
दर्द
बढ़ता रहा
फिर भी
हम, चलते रहे
कोई
कहता भी क्या
हम
सुनते भी क्या
सफ़र
चलता रहा
राहें, घटती रहीं
हम
चलते रहे
और, बढ़ते रहे
हमें
चलना ही था
आगे बढ़ना ही था
चलते रहे, चलते चले
कभी
सर्द रातें मिलीं
कभी
गर्म राहें मिलीं
हम
रुके नहीं
और, थके नहीं
चलते रहे, चलते चले
कदम दर कदम
मंजिलों
और, ख़्वाबों की ओर !!

जय जय जय !

टन टना टन
फन फना फन
ना
चम चमा चम
फट फटा फट
उठ उठा उठ
चल चला चल
लड़ लड़ा लड़
चढ़ चढ़ा चढ़
बढ़ बढ़ा बढ़
जय जय जय !

Monday, April 25, 2011

पत्रकार और साहित्यकार !

भईय्या एक प्रश्न कुछ दिनों से दिमाग में कुलबुला रहा है ... मतलब आज तू फिर कोई झमेला खडा करने का मन बना के आया है ... नहीं भईय्या, आप तो जानते हो मेरे पास जब कोई समस्या आती है तो मैं उसके समाधान के लिए आप के पास ही आता हूँ ... चल चल वो सब तो ठीक है, बता क्या समस्या आ गई ...

... (सिर खुजाते हुए) भईय्या ये बताओ पत्रकार और साहित्यकार दोनों में बड़ा कौन होता है ? ... मतलब आज तू ये तय करके आया है की आज से तू मेरा कबाड़ा करवा के ही रहेगा ... क्यों भईय्या ऐसा क्यों बोल रहे हो ! ... अब तू तो जानता है मैं ठहरा अदना-सा लेखक, कभी-कभार छोटी-मोटी कविता-कहानी लिख लेता हूँ, और तू पत्रकारों और साहित्यकारों के बारे में तुलनात्मक प्रश्न पूछेगा तो उत्तर मैं कहाँ से दे पाऊंगा, अगर तुझे पूछना ही है तो किसी स्थापित साहित्यकार या पत्रकार के पास जा, वह ही इस प्रश्न का सकारात्मक उत्तर दे पायेंगे ...

... भईय्या आप टालने की कोशिश कर रहे हैं ... टालने की कोशिश नहीं कर रहा, सही कह रहा हूँ, इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं मिल पायेगा ... नहीं भईय्या मुझे पता है आप "कडुवा सच" लिखते हैं, आप के पास इस प्रश्न का उत्तर जरुर होगा और सटीक ही होगा ... चल एक काम कर, तू तीन पत्रकार और तीन साहित्यकार के साथ एक-एक दिन गुजार व उनके सुख-दुख को महसूस कर, साथ ही साथ एक दिन तू खुद दोनों के बारे में एनालिसिस करना, फिर मेरे पास आना ... ठीक है भईय्या, मैं आता हूँ ...

... एक सप्ताह के बाद ... भईय्या जैसा आपने कहा वैसा कर के आ गया हूँ ... ठीक है, अब तू मेरे चंद सवालों के जवाब अपने अनुभव के आधार पर देना ... ठीक है भईय्या ... ये बता दोनों में जलवा ज्यादा किसका है ? ... निसंदेह पत्रकारों का, सारे अधिकारी-कर्मचारी, नेता-अभिनेता उनको सम्मान देते हैं, चाय-पानी, दारू-मुर्गा, गाडी-घोड़ा बगैरह, फरमाईस के हिसाब से पूरा कर देते हैं, और कुछ तो नगद-नारायण भी दे देते हैं, क्या जलवा है भईय्या मानना पडेगा ...

... अब ये बता सच्चे दिल से सम्मान के पात्र कौन हैं ? ... (थोड़ी देर सोचने के बाद) भईय्या नि:संदेह साहित्यकार, मैंने देखा की उनको लोग अंतरआत्मा से मान-सम्मान देते हैं, कुछ लोग तो उनको पूजते भी हैं ... वहीं दूसरी ओर पत्रकारों को कुछ लोग हीन भावना से देखते हैं, एक साहब ने तो एक पत्रकार को अदब से बैठाया, खिलाया-पिलाया और नगद नारायण रूपी चन्दा भी दिया, पर उसके जाने के बाद ही उसके मुंह से आह जैसी निकली, मुझे बड़ा अजीब-सा लगा ...

... अच्छा अब ये बता दोनों में हुनर किसके पास ज्यादा है ? ... भईय्या अब हुनर का तो ऐसा है कि 'हुनर' तो दोनों के पास है, दोनों ही कलम के जादूगर हैं, पर ... पर क्या, बता खुल के संकोच मत कर ... संकोच नहीं कर रहा भईय्या, सोच रहा था, ऐसा मेरा मानना है कि 'हुनर' के मामले में साहित्यकार बीस (२०) तो पत्रकार सत्रह (१७) ही पड़ते हैं, साहित्यकार अनेक विधाओं में लिखने का माद्दा रखते हैं तो पत्रकार एक विधा में माहिर होते हैं, पर ओवरआल एक बात तो है पत्रकारों का जलवा ही कुछ और है ...

... लगता है तूने कुछ ज्यादा ही जलवा देख लिया है, अब ये बता कि यदि तेरे सामने पत्रकार या साहित्यकार बनने का विकल्प रखा जाए तो तू क्या बनना चाहेगा ? ... भईय्या आप नाराज मत होना, मैं तो पत्रकार ही बनना पसंद करूंगा ... मिल गया तुझे तेरे प्रश्न का उत्तर कि दोनों में बड़ा कौन है !... (सिर खुजाते हुए) नहीं भईय्या, आप तो मुझे ही मेरी बातों में उलझा दिए, ये मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है, उत्तर तो आपको देना पडेगा ...

... मतलब तय कर के ही आया है कि आज तू मुझे पत्रकारों व साहित्यकारों से भिडवा के ही दम लेगा, चल एक बात और बता, दोनों को लिखने अर्थात कलम घसीटी के बदले में आर्थिक रूप से क्या मिलता है ? ... सीधा सा उत्तर है पत्रकारों को सेलरी मिलती है साथ ही साथ वो जलवा अलग है जो मैं अभी बता चुका हूँ , वहीं दूसरी ओर साहित्यकारों को लिखने के ऐवज में "ठन ठन गोपाल" ... अब तो समझ गया कि बड़ा कौन है !... नहीं भईय्या, आप फिर से उत्तर मेरे ही सिर पे मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, ये सब तो सामान्य बातें हैं सभी जानते-समझते हैं, ये मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है ...

... नहीं बताना है तो मत बताओ, मैं चला जाता हूँ होगा यही कि आपके दर से आज मैं निरुत्तर चला गया ... अरे सुन, उदास मत हो, चल आख़िरी सवाल - ये बता तू व्यापारी आदमी है यदि तू दोनों को खरीदने निकले तो किसे खरीद सकता है अर्थात बिकने के लिए कौन तैयार खडा है ? ... ( पंद्रह मिनट सिर खुजाते बैठा सोचता रहा, फिर उठा और उठकर सीधा भईय्या के पैर छूते हुए ) प्रणाम भईय्या, मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया, धन्य हैं आप और आपका "कडुवा सच" ... मैं सत सत नमन करता हूँ !!!

Sunday, April 24, 2011

जन लोकपाल बिल : सवालों के कटघरे !

जन लोकपाल बिल को पारित किये जाने तथा जन लोकपाल के गठन को लेकर विगत दिनों अन्ना हजारे ने अपने समर्थकों सहयोगियों के सांथ मिलकर दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर आमरण अनशन रूपी जन आन्दोलन किया, सरकार को अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मांगे जायज तथा भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कारगर लगीं, परिणाम स्वरूप सरकार ने मांगों के अनुरूप जन लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग समीति का संवैधानिक तौर पर गठन किया किन्तु समीति के गठन के उपरांत से ही राजनैतिक दलों के तथाकथित नेताओं तथा इलेक्ट्रानिक, प्रिंट इंटरनेट मीडिया से जुड़े बुद्धिजीवी वर्ग ने तरह तरह के नकारात्मक सवाल उठाने शुरू किये, कहने का तात्पर्य यह है कि सवालों पे सवाल दागते हुए ड्राफ्टिंग समीति के सिविल सोसायटी के सदस्यों को सवालों के कटघरे में खडा करने का भरपूर प्रयास किया तथा प्रयास जारी भी है

सवाल उठाना सवाल पे सवाल खड़े करना एक सीमा तक तो जायज हैं किन्तु जब ये सवाल भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के समर्थन में होकर अभियान को क्षत-विक्षित करने के भाव से उठ रहे हों तब तो ये सवाल अपने आप में चिंतनीय निरर्थक ही कहे जा सकते हैं जहां तक मेरा मानना है कि जब यह अभियान भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया है तब इस अभियान से जुड़े सिविल सोसायटी के सदस्यों पर सवाल पे सवाल दाग कर सवालों के कटघरे में खडा करने के पीछे का मकसद, अपने आप में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का समर्थन होकर अप्रत्यक्ष रूप से अभियान का विरोध करना ही माना जाएगा चलो कुछ देर के लिए हम मान लेते हैं कि सिविल सोसायटी के सदस्य दागदार छवी के हैं या होंगे, लेकिन इसका यह तात्पर्य तो कतई नहीं लगाया जा सकता कि उनकी मंशा इस भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को दागदार करने की है या होगी, फिलहाल तो यह सर्वविदित सत्य है कि इस समीति के गठन का मुख्य प्रभावशाली उद्देश्य मजबूत ठोस जन लोकपाल के गठन के लिए एक निष्पक्ष पारदर्शी ड्राफ्ट तैयार करना जाहिर है

जहां तक मेरा मानना है कि जब तक जन लोकपाल ड्राफ्ट बिल का तैयार नहीं हो जाता तब तक इसके सदस्यों पर उंगली उठाना न्यायसंगत व्यवहारिक नहीं होगा, वैसे भी सिविल सोसायटी के सदस्यों ने ड्राफ्टिंग कमेटी की मीटिंग्स की वीडियो रिकार्डिंग किये जाने का तर्क निष्पक्ष भाव से रखा था किन्तु उसे अस्वीकारते हुए आडियो रिकार्डिंग की अनुमति दी गई, इससे अपने आप में सिविल सोसायटी के सदस्यों की निष्पक्ष मंशा स्वमेव परिलक्षित हो जाती है जब तक जन लोकपाल ड्राफ्ट तैयार होकर सामने नहीं जाता तब तक ड्राफ्टिंग कमेटी के किसी भी सदस्य पर सवाल उठाना लाजिमी नहीं होगा, जो तथाकथित महानुभाव सवाल पे सवाल खडा कर इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं उन्हें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि उनका यह नकारात्मक अभियान जनता के समक्ष है तथा संभव है भविष्य में जन आक्रोश का उन्हें भी सामना करना पड़ सकता है, जहां तक मेरा मानना है कि यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान महज अन्ना हजारे या चंद लोगों का अभियान नहीं है वरन देश के हर उस एक एक आदमी का अभियान है जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध जंग लड़ रहा है

यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूँ कि जो लोग अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान अर्थात जंतर-मंतर पर आयोजित आमरण अनशन कार्यक्रम के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं वे भली भांति जानते समझते होंगे कि इस अभियान ने महज - दिनों में ही जो भयंकर रूप धारण कर लिया था उसे कोई साधारण अभियान नहीं माना जा सकता, और यदि कोई भी बुद्धिजीवी वर्ग इसे साधारण अभियान अर्थात आन्दोलन मान कर चल रहा है तो उसके आंकलन पर वह खुद ही सवालिया निशान लगा रहा है भ्रष्टाचार के विरोध में जो जन आक्रोश सैलाव उमड़ कर सामने आया था वह कतई नजर अंदाज किये जाने योग्य नहीं है, और यदि राजनैतिक दलों मीडिया से जुड़े बुद्धिजीवी इस जन सैलाव जन आक्रोश को अनावश्यक सवालों के माध्यम से दबाने या दिग्भ्रमित करने की चेष्ठा करते रहेंगे तो मेरा व्यक्तिगत आंकलन यह है कि उनकी यह दुर्भावनापूर्ण चेष्ठा कहीं आग में घी डालने का काम करने लगे तथा परिणामस्वरूप भविष्य में जन आक्रोश का स्वरूप कहीं अधिक भयंकर रूप लेकर उमड़ पड़े

जन लोकपाल का गठन वर्त्तमान भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की महज एक महत्वपूर्ण मांग नहीं कही जा सकती वरन यह कहना कहीं ज्यादा मुनासिब होगा कि यह मांग भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की एक मजबूत आधारशिला सिद्ध होगी, जन लोकपाल का गठन वर्त्तमान में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने दोषियों को दण्डित किये जाने हेतु अत्यंत आवश्यक है, ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्यों पर सवाल पे सवाल दागने की अपेक्षा यह हितकर होगा कि ज़रा धैर्य रखा जाए तथा जन लोकपाल के गठन संबंधी ड्राफ्ट की रूप-रेखा की प्रतीक्षा की जाए जन लोकपाल के गठन के पीछे किसी व्यक्ति या संस्था विशेष की कोई दुर्भावना रूपी मंशा नहीं है तथा जन लोकपाल के गठन की प्रक्रिया महज चंद लोगों के लिए लाभकारी न होकर वरन समूचे भारत वर्ष के लिए हितकर है अत: सिर्फ राजनैतिक वरन मीडिया से जुड़े समस्त बुद्धिजीवी वर्ग को धैर्य का परिचय देते हुए भ्रष्टाचार विरोधी अभियान में सकारात्मक पहल का पक्षधर होना चाहिए

Saturday, April 23, 2011

राजा-रानी !

सारी रात
संग संग
जश्न में जश्न
कभी नीचे
तो कभी ऊपर
कभी आर
तो कभी पार
कभी जीते
तो कभी हारे
बाजी पे बाजी
दौर पे दौर
मौज पे मौज
जश्न में जश्न
फिर कौन शहंशाह
और कौन महारानी
संग संग दोनों, हैं राजा-रानी !!

Wednesday, April 20, 2011

सांथी

वह शाम को
थका-हारा सा आया
मुझसे मिला, गले लगा
सांथ सांथ खाया-पिया
फिर सारी रात
हौले हौले
वह मुझमें समाता गया
समाया रहा, सारी रात, मुझमें
रात गुज़री
सब हुई
हौले हौले निकला बाहर
हंसता, खिलता, निखरता
मुझे निहारता, पुचकारता
फिर, स्नान-ध्यान कर
सुबह का नाश्ता कर
मुझे चूमते-चामते
हाँथ में ब्रीफकेस उठा
रोज की तरह, फिर
चला गया, आफिस की ओर !!

सपने

तेरे सपने, मेरे सपने
इन आँखों के सच्चे सपने
दूर गगन में तारे अपने
जगमग करते सारे जग में
फूल खिले हैं बगिया में
उन फूलों की खुशबू अपनी
नदियों में बहता है पानी
उस पानी में मछली अपनीं
पवन है बहती पास गगन में
उसमें उड़तीं चिड़ियाँ अपनी
तेरे सपने, मेरे सपने
इन आँखों के सच्चे सपने !!

ख़्वाब !

एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी
सच ! उन ख़्वाबों में
सरल, सहज, सुलभ
संसार, बसाया था मैंने
भाईचारा, प्रेम, मिलन
के सारे बंधन, बांधे थे
जात, धर्म, रंग, रूप
ऊंच-नींच, नर-नारी में
भेद, नहीं रख छोड़े थे
एक दिन, बैठे बैठे
ख़्वाब रचे थे, मैंने भी !!

... बुर्के पर प्रतिबन्ध !


... सांठ-गांठ की नीति !



न्यायपालिका और जन लोकपाल !

भ्रष्टाचार ने लोकतंत्ररूपी ढाँचे को दीमक की तरह अपनी चपेट में ले लिया है, यह कहना आश्चर्यजनक नहीं होगा कि वर्त्तमान में लोकतंत्र के सभी धड़े भ्रष्टाचार की चपेट में हैं, लोकतंत्ररूपी ढाँचे का एक धडा 'न्यायपालिका' जिससे यह आम अपेक्षा रहती है कि यह धडा असामान्य हालात में भी निष्पक्ष रूप से कार्य संपादित करेगा किन्तु इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि विगत कुछेक वर्षों से न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही है न्यायपालिका जिसे न्याय का मंदिर कहा जाता है जहां अन्याय, दुर्भावनाएं, पक्षपात, भाई-भतीजावाद जैसे कृत्यों की अपेक्षाएं एक तरह से वर्जित हैं, किन्तु भ्रष्टाचाररूपी कीड़े ने इन समस्त वर्जनाओं को भी धवस्त कर दिया है, न्याय के मंदिर में भ्रष्टाचार ने जिस गति से प्रवेश विस्तार किया है वह अपने आप में आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है वर्त्तमान में भ्रष्टाचार की चपेट में सिर्फ निचले स्तर की न्यायपालिकाएं वरन उच्च न्यायपालिकाएं भी अछूती नहीं कही जा सकती लोकतंत्र के अति महत्वपूर्ण आधार स्तम्भ 'न्यायापालिका' में समय समय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं सिर्फ आरोप ही नहीं लगते रहे वरन भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को समय समय पर कठोर दंडात्मक कार्यवाही स्वरूप सेवा से निवृत भी किया जाता रहा है सवाल यह नहीं है कि भ्रष्टाचार के आरोप लगना और भ्रष्टाचारियों को सेवा से निवृत कर देना या फिर भ्रष्टाचारियों को दंडात्मक कार्यवाही वतौर वर्त्तमान पद से रिवर्ट कर देना समाधानात्मक कार्यवाही है, वरन सवाल यह है कि न्याय के मंदिर में भ्रष्टाचार की जड़ें क्यों कैसे फल-फूल रही हैं

न्यायपालिकाओं में भ्रष्टाचार की घुसपैठ अचंभित कर देने वाली अर्थात आश्चर्यजनक नहीं कही जा सकती, क्योंकि जब सारे के सारे लोकतंत्र में भ्रष्टाचार रूपी दानव विशालकाय रूप ले रहा हो तब लोकतंत्र का कोई भी एक धडा उससे अछूता कैसे रह सकता है न्यायपालिकाओं में भ्रष्टाचार की घुसपैठ सामान्य सहज कतई नहीं कही जा सकती, तात्पर्य यह है कि न्यायपालिकाओं में भ्रष्टाचार रूपी कीड़े ने सीधे दरवाजे से प्रवेश करते हुए संभवत: दांय-बांय के रास्ते से प्रवेश करने का प्रयास किया है, कहने का तात्पर्य यह है कहीं कहीं नियुक्तियां पदस्थापनाएं इस भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार मानी जा सकती हैं लोकतंत्र के अति महत्वपूर्ण स्तम्भ न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अत्यंत चिंतनीय दुर्भाग्यपूर्ण है किन्तु इस अंग में भ्रष्टाचार के फैलाव के लिए न्यायपालिका को प्रत्यक्ष रूप से उतना जिम्मेदार नहीं माना जा सकता जितना कि वर्त्तमान सत्तारूढ़ राजनैतिक सिस्टम को अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार माना जाए, उसका कारण यह है कि न्यायपालिका के महत्वपूर्ण प्रभावशाली पदों पर नियुक्तियां पदस्थापनाएं सत्तारूढ़ राजनैतिक व्यवस्था के मंशा के अनुकूल ही होती रही हैं अत: यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि न्यायपालिकाओं में वर्त्तमान समय में भ्रष्टाचार के लिए सत्तारूढ़ राजनैतिक व्यवस्थाएं कहीं कहीं अधिक जिम्मेदार मानी जा सकती हैं

लोकतंत्र रूपी ढाँचे के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका में भ्रष्टाचार अहम् गंभीर मसला है अत: इस चर्चा के महत्वपूर्ण मुद्दे पर आते हैं असल मुद्दा यह है की वर्त्तमान में देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उद्देश्य से 'जन लोकपाल बिल' पर अहम् चर्चा चल रही है तथा इसी चर्चा के क्रम में तरह तरह के विचार सुनने पढ़ने में रहे हैं इसी क्रम में न्यायपालिका में तथाकथित रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी अहम् चर्चा चल रही है कुछेक विद्धानों का मत है कि न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों को इस बिल से पृथक रखा जाए तो कुछेक विद्धान इन पदों को भी जन लोकपाल के दायरे में रखने के पक्षधर हैं यहाँ पर मेरा मानना यह है कि जब तक न्यायपालिका के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों पदास्थापनाओं में राजनैतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश रहेगी तब तक भ्रष्ट आचरण की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, यह दुर्भाग्य जनक स्थिति सिर्फ न्यायपालिका वरन देश के किसी भी अन्य उच्च पदस्थ पद पर नियुक्तियाँ पदस्थापनाएं जिनमें राजनैतिक हस्तक्षेप प्रभाव रहेगा वहां गुंजाइश बनी रहेगीअत: यह अत्यंत आवश्यक होगा कि सिर्फ कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका वरन देश में संचालित समस्त आयोगों को भी जन लोकपाल के दायरे में रखा जाना जनहित में आवश्यक महत्वपूर्ण होगा

Monday, April 18, 2011

अन्ना हजारे !

उम्र तिहेत्तर
नाम
है अन्ना
कमर में धोती
बदन
पे कुर्ता
सिर पे टोपी शान है
चल पडा है, लड़ पडा है
जन, गण, मन, के खातिर
फैले भ्रष्टाचार से !
भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचारी
चक्रव्यूह
हैं गढ़ने वाले
गढ़ पाएं, चक्रव्यूह वो
हमें, एक ऐसी अलख जगाना है
लड़ना है, लड़ जाना है
फैले भ्रष्टाचार से
चलो, चलें
हम सब मिलकर
हिम्मत, जज्बा, कदम, मिला दें
संग अन्ना के, कदम बढ़ा दें
लड़ लें, जीत लें, हम, फैले भ्रष्टाचार से !!

Sunday, April 17, 2011

तुम क्या हो !

तुम क्या हो
मैं, समझना चाहता हूँ
कभी तुम में
दिखती है, मुझे
सूर्य सी गर्मी
कभी तुम
चाँद सी शीतल लगे हो !

तुम क्या हो
कभी तुम एक-सी
दिखती नहीं, मुझको
कभी देखा, तुम
झरने सी खिल-खिल
बहती लगे हो
तो, कभी, फिर
झील-सी गहरी लगे हो !

तुम क्या हो
क्यों हो, यही, मैं
समझना चाहता हूँ
कभी छू-कर
मुझे, तुम
छाँव सी शीतल करे हो
तो, कभी, फिर
छूकर, मुझे
तुम आग का शोला करे हो !

तुम क्या हो
क्या-क्या, नहीं हो
कभी तुम
रात में, मुझको
काम की देवी लगे हो
सुबह देखूं
तो, तुम , मुझको, फिर
लक्ष्मी की मूरत लगे हो !

तुम क्या हो
बताओ, तुम, खुद मुझे ही
या, फिर, मुझे
तुम, कुछ घड़ी का
वक्त, जज्बा, हौसला, दे दो
मैं, तुम में, डूबकर
तुम्हें, समझना चाहता हूँ
कि, तुम, क्यों, मुझे
चाँद, सूरज, धरा, अम्बर
नीर, पवन, पुष्प, सुगंध
नारी, अप्सरा, देवी, सी लगे हो !!

Saturday, April 16, 2011

खामोशी !!

कब तक मैं खामोश बैठता
कई घंटों से बैठा था
सोच रहा था, क्या ना जाने
क्या धुन थी खामोशी की !

बैठे बैठे सोच रहा था
डूबा था खामोशी में
क्यों और कैसा, था सन्नाटा
क्या धुन थी खामोशी की !

कब से मैं खामोश रहा था
और कब तक खामोशी थी
ये मुझको भी खबर नहीं थी
क्या धुन थी खामोशी की !

कुछ घंटों से देख रहा था
सदियों सी सरसराहट थी
कुछ बैचेनी, कुछ हलचल थी
क्या धुन थी, खामोशी की !!

Friday, April 15, 2011

फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबन्ध जल्दबाजी का फैसला !

यूरोप के फ्रांस देश में विगत दिनों महिलाओं के बुर्के पहनने पर कानूनी रूप से रोक लगा दी गई है नए क़ानून के तहत सार्वजनिक स्थल पर बुर्का पहने पाए जाने पर १५० यूरो अर्थात ९००० रुपये के जुर्माने से दण्डित किया जाएगा फ्रांस में निवासरत मुसलमानों ने इस निर्णय का कडा विरोध जाहिर किया है तथा आगे भी इस निर्णय का विरोध करने का फैसला लिया है, गौरतलब हो कि फ्रांस में लगभग ५० लाख मुसलमान रहते हैं जो किसी भी अन्य यूरोपीय देश की तुलना में अधिक हैं कुछेक कट्टर समर्थकों ने इस फैसले का घोर विरोध किया है तो वहीं दूसरी ओर कुछेक लोगों का यह भी कहना है कि वे बुर्का पहनने का समर्थन नहीं करते किन्तु प्रतिबंधित किये जाने के फैसले से सहमत नहीं हैं

सिर्फ फ्रांस में वरन समूचे विश्व में मुस्लिम महिलाओं में बुर्का पहनने की परम्परा है जो आज की नहीं वरन सदियों से चली रही परम्परा है, इसलिए मेरा मानना है कि यदि मुस्लिम महिलाएं स्वैच्छिक रूप से बुर्का पहनने को प्राथमिकता देती हैं तो इसे कतई प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए, सांथ ही सांथ यह भी गौर किये जाने वाली बात है कि २१ वीं शताब्दी में यदि जोर दवाव पूर्वक महिलाएं बुर्का पहनने को मजबूर हैं तो यह मसला गहन विचारणीय है । ये माना कि वर्त्तमान समय में बढ़ रही आतंकी घटनाओं को ध्यान में रखते हुए तथा सुरक्षागत कारणों के मद्देनजर समय समय पर सुरक्षा एजेंसियों को कड़े कदम उठाने पड़ते हैं किन्तु इसका यह मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि सुरक्षा एहतियात के लिए मानव अधिकारों की बली चढ़ा दी जाए

सिर्फ फ्रांस वरन दुनिया के तमाम मुल्कों में तरह तरह की पोशाकें पहनने का रिवाज सदा-सदा से चला रहा है, खासतौर पर सिर्फ बुर्का ही नहीं वरन धोती, लुंगी, साड़ी, पगड़ी, इत्यादि ऐसे लिबास हैं जो सदियों से पहने जा रहे हैं जिनसे मानवीय, धार्मिक सांस्कृतिक आस्था जुडी हुई है अत: इन लिबासों को तथा इसी तरह के अन्य लिबासों को एका-एक संदेह के दायरे में खडा कर देना लाजिमी नहीं होगा वैसे मेरा मानना है कि सदियों से चली रही परम्पराओं पर एका-एक प्रतिबन्ध लगाते हुए वर्त्तमान हालात समस्याओं के मद्देनजर कुछेक दिशा निर्देश जारी किये जाने चाहिए जो वर्त्तमान समय तथा सदियों से चली रही परम्पराओं के बीच समन्वय स्थापित करें तथा एक सेतु की भांति सार्थक सिद्ध हों !

भ्रष्टाचार !

बहुत हो चुका भ्रष्टाचार
बहुत हो चुका अत्याचार
बहुत खुल चुके चोर बाजार
बहुत हो चुके मालामाल
बहुत हो चुकी टैक्स की चोरी
बहुत बिक चुके नेता-अफसर
बहुत बन गईं सरकारें हैं
बहुत हो गई कालाबाजारी
बहुत हो गई मिलावटखोरी
बहुत हो चुका माफियाराज
बहुत हो गया शिष्टाचार
चहूं ओर है फैला जग में
भ्रष्ट, भ्रष्टतम, भ्रष्टाचार
बंद करो, अब बंद करो
बंद करो अब भ्रष्टाचार !!

Thursday, April 14, 2011

अंधकार !

चंहू ओर
तुम नजर उठाओ
देखो
आंगन, गलियां, बस्ती
सारे जग में
काली रातें, घोर अन्धेरा
और कहीं
कुछ दिखता है क्या ?
मत फूंको
तुम दीपक को
बहुत है फैला
अंधकार
जलने दो, जल जाने दो !!

ताप !

फट पडी थी
धरा
ताप के बढ़ जाने से
हो जाने दो
नम
इसे, तुम हो जाने दो
इन तूफानों सी
बारिश को
तुम
मत रोको
झरने दो, झर जाने दो !!

शोर !

शोर
हुआ था बहुत
कान
फटने लगे थे
मातम का है
या चाहे
जैसा भी सन्नाटा है
रहने दो
कुछ घड़ी इसे तुम
रहने दो !!

"ज्वलनशील बाबाओं" से आहत होते "ऊर्जावान बाबा"

अपना देश "बाबाओं" का देश है ...और हो भी क्यों न .... आखिर अपने देश की बुनियाद में "बाबाओं" की भूमिका महत्वपूर्ण रही है और निर्माण में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है ... अब ये निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका ... आखिर कैसे ... निर्माण में ये कौन सी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं जिसका श्रेय इन्हें दिया जाये .... बिलकुल सही प्रश्न उठाया है ... हर एक निर्माण में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से बहुत लोगों की भूमिका होती है फ़िर जब भूमिका होती है तो होती है ... श्रेय भी मिलना चाहिये ... !

... अब प्रश्न ये उठता है कि इनकी भूमिका अप्रत्यक्ष रूप से भी कैसे है .... सीधी सी बात है अपने देश के "कर्ता-धर्ता" कौन हैं ... नेता, मंत्री, प्रशासनिक अधिकारी ये सभी के सब प्रत्येक नेक कार्य के शुभारंभ के पहले अपने-अपने चहेते "बाबा" के पास जाकर "दण्डवत" होकर आशीर्वाद लेते हैं ... "हां" हुई तो कार्य शुरु, "न" हुई तो कार्य गया "खटाई" में ..... और तो और, अगर "बाबा जी" ने कह दिया "बेटा" तीन दिन बाद ही अपनी नई "कुर्सी" पर बैठना तो समझ लो यही "ब्रम्हवाक्य" है .....भईय्या जब इन "बाबाओं" के इशारे से ही काम शुरु होता है तो इनकी भूमिका कैसे न हुई ... जब हुई तो श्रेय भी मिलना चाहिये !

.... चलो अब असली मुद्दे पे आ ही जाते हैं समस्या ये है कि अब "बाबाओं" का भी जीना मुश्किल हो गया है ... असंभव ... असंभव ... अरे भाई मान भी लो, हुआ ये है कि कुछ बाबा "ग्लैमर" के माया मोह में फ़ंस गये और लंबी-लंबी "उडान" भरने लगे ... इस उडान के चक्कर में कुछ बाबा सेक्स स्केंडल, स्मगलिंग, लूट-पाट, धोखाधडी, दैहिक शोषण व नरबली जैसे "अदभुत" कारनामे करने लगे, जब इनका "उडनखटोला" कालरूपी "चिंगारी" के चपेट में आया तो खुद भी "जल" गये और पूरी "बाबा मंडली" भी "झुलस" गई ..... सही मायने मे कहा जाये तो इन "ज्वलनशील बाबाओं" के कारण यदि कोई आहत हुआ है तो "ऊर्जावान बाबा" हुये हैं .... जय "काल" ..... जय जय "महाकाल" ... !!

Wednesday, April 13, 2011

एक सबक : पटकनी !

दो मित्र पप्पू-गप्पू जिन्दगी के सफ़र पर ... पप्पू को एक सेठ के यहां नौकरी मिल गई ... सेठ को घुड़सवारी व घोड़ा दौड़ का शौक था उसने एक घोड़ा पाल रखा था ... घोड़ा की देख-रेख व् पालन-पोषण की जिम्मेदारी सौंप दी गई ... जल्द ही घुड-दौड़ होने वाली थी पर सेठ चिंतित था क्योंकि उसका घुड़सवार नौकरी छोड़ कर दूसरे सेठ के यहां चला गया था ... सेठ ने यह चिंता पप्पू के सामने जाहिर की तो पप्पू ने कहा मैं एक नया घुड़सवार ले आता हूं ... पर किसी अनुभवी घुड़सवार को लेकर आना क्योंकि "घुड-दौड़" शुरू होने वाली है ... आप चिंता न करें मेरा मित्र है उसे सब कुछ सिखा दूंगा ... तब ठीक है ...

...पप्पू ने गप्पू को समझाया तथा नौकरी पर ले आया ... गप्पू को घुड-दौड़ व् घुड़सवारी की सम्पूर्ण जानकारी सिखाने लगा ... धीरे-धीरे गप्पू घुड़सवारी में माहिर हो गया ... और सीधा सेठ से संपर्क साधने लगा तथा पप्पू को नीचा दिखाने का भाव प्रदर्शित करने लगा ... साथ ही साथ उसे घुड़सवार होने का घमंड भी आ गया ... एक-दो अवसर पर उसने पप्पू को नीचा दिखाने व कुशल घुड़सवार होने का दम दिखाने का प्रयास करते हुए नजरअंदाज करने का प्रयास भी किया ...

... पप्पू उसके हाव-भाव को देख व समझ रहा था ... घोड़ा-दौड़ में एक सप्ताह का समय बचा था उसने गुपचुप तरीके से एक नए घुड़सवार की तलाश शुरू की तथा समय-समय पर सेठ को भी अपने ढंग से तैयारी बताते जा रहा था ... जैसे ही उसे एक नया घुड़सवार मिला उसने सेठ के सामने पेश किया तथा उसके अनुभव के आधार पर नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा ... सेठ ने पप्पू की कार्यक्षमता व् प्रतिभा के आधार पर सुझाव पर सहमति प्रदाय कर दी ...

... दूसरे ही दिन पप्पू ने नए घुड़सवार को घोड़ा सौंपा तथा गप्पू को कहा ... घुड-दौड़ होने वाली है सेठ को तेरा काम पसंद नहीं आया तथा वह दौड़ हारना नहीं चाहते इसलिए नया घुड़सवार नियुक्त कर लिया है ... एक काम कर तू नई नौकरी की तलाश अपने स्तर पर कर मैं भी तेरे लिए एक नई नौकरी तलाश करता हूँ ... गप्पू बातें सुनकर तिलमिला गया और बोला इस नए घुड़सवार से अच्छा तो मैं घुड़सवारी करता हूँ ... मुझे मालुम है पर अभी तू शांत रह ... सेठ से झगड़ा भी नहीं कर सकते की तुझे क्यों निकाल दिया ...

... गप्पू तिलमिलाहट में इधर-उधर नई नौकरी की तलाश में भटकने लगा ... पर उसे नौकरी नहीं मिली ... धीरे-धीरे उसे यह भी समझ आ गया की पप्पू ने ही उसे "पटकनी" दी है क्योंकि जब वह उस नियुक्त नए घुड़सवार के पास बैठा तो उसे उसकी बातें सुनकर समझ आया की पप्पू ने ही उसे नौकरी पर लगवाया है ... नए घुड़सवार को सारे हालात मालुम थे इसलिए उसने गप्पू से कहा - यार एक छोटी-सी बात बोलता हूँ नाराज मत होना, ये मेरी जिन्दगी का भी कटु अनुभव है "बेटा कितना भी बड़ा क्यों हो जाए, पर बाप से बड़ा नहीं हो सकता " !!

... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश !

क्या औरत वही दिखा रही है जो पुरुष देखना चाहता है ....... या फिर वह जानती है कि कैसे पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित किया जाये .....क्यों ऎसे छोटे-छोटे ब्लाउज पहनना जिसमें से अधखुले-झलकते स्तनों की नुमाईस हो .... क्यों पूर्णरुपेण खुली हुई पीठ झलकॆ ... क्यों ऎसी मिनी स्कर्ट पहनना जिससे टांगें झलकें ..... क्यों इतने भीने-भीने कपडे पहनना जो लगभग पारदर्सी हों .... कहीं ऎसा तो नहीं ..... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश !!!

.....इस भागम-भाग दौर में भला एक औरत दूसरी औरत से पीछे क्यों रहे .... उसे पीछे रहने की जरुरत भी क्या है ... अगर पीछे रह जायेगी तो "बहन जी" ..... बैकवर्ड ... या देहाती .... जैसे कांटों की तरह चुभने वाले "कमेंट" सुन सुन कर पानी पानी हो जायेगी ..... आज की कुछेक औरतें तो इतनी समझदार, चालाक व बुद्धिमान हो गई हैं कि वह जानती हैं .... पुरुषों को कैसे आकर्षित किया जाए ..... या फ़िर कैसे खुद को आकर्षण का केन्द्र बनाया जाये .... लेकिन जिस्म की इस तरह खुल्लम-खुल्ला नुमाईस .... कहीं ऎसा तो नहीं ..... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश ......

.... औरत के पहने टाईट जींस-टी शर्ट से झलकते जिस्म, मिनी स्कर्ट में छलकती जांघें, अधखुले स्तनों, खुली पीठ व मादक अदाओं को देख कर ....... पुरुष सडक पर, बाजार में, समारोहों में, कार्यालयों में तथा आस-पडोस में आहें भरने से भला क्यों न बाज आये .... और तो और कुछ लोगों का तो दिन का चैन व रातों की नींद तक गायब हो जाती है ..... ये बिलकुल आम बात होते जा रही है कि वर्तमान समय में कुछेक महिलायें जान-बूझ कर ही ऎसे कपडे पहनने लगीं हैं कि उनके जिस्म की नुमाईस स्वमेव हो ....... आखिर क्यों, किसलिये, .... ऎसे उटपटांग .... भडकीले .... कामोत्तेजक कपडे पहनने की जरुरत ही क्या है .....कहीं ऎसा तो नहीं ..... पुरुष देख के खुश, तो महिला दिखा के खुश !!!

लालची बुढडा !

एक महाशय के घर पडौस के गांव से एक परिवार लडकी देखने आया, लडके व उसके माता-पिता का शानदार स्वागत किया गया, बडी लडकी जिसकी शादी की बात चल रही थी वह ही "सझी-संवरी" मिष्ठान इत्यादि परोस रही थी इसी दौरान लडका-लडकी का आपस मे परिचय कराया गया, इसी बीच छोटी लडकी भी चाय का ट्रे लेकर पहुंच गई, वह ट्रे को मेज पर रखकर अभिवादन स्वरूप हाथ जोडकर बैठ गई, स्वल्पाहार व बातचीत चलती रही, इसी बीच लडके व उसके मा-बाप की नजर बार-बार छोटी लडकी पर जा रही थे उसका कारण ये था कि बडी लडकी थोडी सांवली व दुबली थी और छोटी लडकी गोरी व खूबसूरत थी, स्वल्पाहार के पश्चात दोनो परिवार एक-दूसरे से विदा हुए, मेहमानों का हाव-भाव व चेहरे की प्रसन्नता देखकर रिश्ता पक्का लग रहा था इसलिये लडकी का पूरा परिवार खुश था किंतु हां-ना का जबाव नहीं मिला था।

एक-दो दिन बाद लडकी का पिता पडौस के गांव लडके के घर गया, शानदार हवेली थी काफ़ी अमीर जान पड रहे थे लडके व उसके माता-पिता ने बहुत अच्छे ढंग से स्वागत किया और बोले हमें आपके साथ रिश्तेदारी मंजूर है लेकिन एक छोटी सी समस्या है मेरे लडके को आपकी छोटी लडकी पसंद है और उसी से शादी करूंगा कह रहा है। लडकी का पिता प्रस्ताव सुनकर थोडी देर के लिये सन्न रह गया ...... फ़िर बैठे-बैठे ही मन के घोडे दौडाने लगा ..... लडका अच्छा है .....अमीर परिवार है ..... हवेली भी शानदार है .... व्यापार-कारोबार भी अच्छा है ...बगैरह-बगैरह ... उसने परिवार के सदस्यों की राय लिये बगैर ही छोटी लडकी के साथ शादी के लिये हां कह दी ........ हां सुनते ही खुशी का ठिकाना न रहा .... गले मिलने व जोर-शोर से स्वागत का दौर चल पडा ..... खुशी-खुशी विदा होने लगे ..... लडके के पिता ने लडडुओं की टोकरी व वस्त्र इत्यादि भेंट स्वरूप घर ले जाने हेतु दिये।

खुशी-खुशी लडकी का पिता घर पहुंचा रिश्ता तय होने की खुशी मे सबको मिठाई खिलाई ..... पूरा परिवार खुशी से झूम गया .... छोटी बहन-बडी बहन दोनों खुश थे गले लग कर छोटी ने बडी बहन को बधाई दी .......सब की खुशियां देख बाप ने थोडा सहमते हुए सच्चाई बताई ...... सच्चाई सुनकर सन्नाटा सा छा गया ........ दो-तीन दिन सन्नाटा पसरा रहा .... जब सन्नाटा टूटा तो "लालची बुढडे" का चेहरा गुस्से से तिलमिला गया उसे शादी की खुशियां "ना" मे बदलते दिखीं ..... छोटी लडकी ने शादी से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया .......परिवार के सभी इस रिश्ते के खिलाफ़ हो गये।

.....दो-तीन घंटे की गहमा-गहमी के बाद भी कोई बात नहीं बनी तब "लालची बुढडा" गुस्से ही गुस्से में घर से बाहर निकल गया ......... कुछ दूरी पर ही वह मुझसे टकरा गया ....... मैंने कहा क्या बात है भाई, गुस्से मे क्यों चेहरा लाल-पीला किये घूम रहे हो ........ उसने धीरे से सारा किस्सा सुनाया ..... देखो भाई साहब घर बालों ने मेरी "जुबान" नहीं रखी ..... मेरी इज्जत डुबाने में तुले हैं .... कितना अमीर परिवार है अब मैं उन्हे क्या जबाब दूंगा .... उसकी बातें सुनते-सुनते ही मेरे मन में ये विचार बिजली की तरह कौंधा ..... क्या "लंपट बाबू "है, लालच मे बडी की जगह छोटी लडकी की शादी तय कर आया ..... ।

...........अब क्या कहूं मुझसे भी रहा नहीं जाता कुछ-न-कुछ "कडुवा सच" मेरे मुंह से निकल ही जाता है ....... मैने कहा ..... दो-चार दिन के मेहमान हो, वैसे भी एक पैर "कबर" में है और दूसरा "कबर" के इर्द-गिर्द ही घूमते रहता है ... लालच मे मत पडो कोई दूसरा अच्छा लडका मिल जायेगा .....कहीं ऎसा होता है कि बडी की बात चल रही हो और कोई छोटी के लिये हां कह दे ..... घर जाओ, जिद छोडो बच्चों की हां मे ही "हां" है और "खुशी मे ही खुशी" ।

Tuesday, April 12, 2011

मर्जी के मालिक !

मानते
तो क्या करते
चलो, मान लिया
मानना था !
क्या रक्खा था
फिजूल की बहसों में
गुनाह हो जाता
गर
हम मानते
चलो अच्छा हुआ, जो हुआ
कोई तो खुश है
किसी को तो सुकून मिला !
पहले
कितने बुरे थे, हम
तर्क, वितर्क, कुतर्क
लगते थे करने
पर
बदल गए
समय, काल, हम !
चलो, काम आए
हम, आज किसी के
पहले
सुनते नहीं थे, किसी की
हुआ करते थे
मालिक, हम अपनी मर्जी के !!

खजाना !

दो भिखारी जिसमे एक अंधा व दूसरा लंगडा था दोनों दिन भर इधर-उधर घूम-घूम कर भीख मांग कर शाम को अपने मुकाम शिव मंदिर के पास पीपल के पेड के नीचे रात काटते थे यह सिलसिला पिछले सात-आठ सालों से चल रहा था इसलिये दोनों में गाडी मित्रता हो गई थी दोनों रात का खाना एक साथ मिल बांट कर ही खाते थे, दोनो ही सुख-दुख में एक-दूसरे के हमसफ़र थे।

एक दिन पास में ही माता के मंदिर के पास अंधा भीख मांग रहा था वहीं एक बीमार आदमी दर्द से कराह रहा था लगभग मरणासन अवस्था में था अंधा भिखारी उसके पास जाकर पानी पिलाने लगा और भीख में मिली खाने की बस्तुएं उसे खाने देने लगा ... दो बिस्किट खाते खाते उसकी सांस उखडने लगी ... मरते मरते उसने बताया कि वह "डाकू" था तथा उसने एक "खजाना" छिपाकर रखा है उसे निकाल लेना, खजाना का "राज" बताने के बाद वह मर गया ...

.... अंधा भिखारी सोच में पड गया .... शाम को उसने यह राज अपने मित्र लंगडे भिखारी को बताया ... दूसरे दिन सुबह दोनों उस मृतक के पास पंहुचे उसकी लाश वहीं पडी हुई थी दोनों ने मिलकर भीख में मिले पैसों से उसका कफ़न-दफ़न कराया और खजाने के राज पर विचार-विमर्श करने लगे ...

... पूरी रात दोनों खजाने के बारे में सोचते सोचते करवट बदलते रहे ... सुबह उठने पर दोनों आपस में बातचीत करते हुये ... यार जब हमको खजाने के बारे में सोच-सोच कर ही नींद नहीं आ रही है जब खजाना मिल जायेगा तब क्या होगा !!! .... बात तो सही है पर जब "खजाना" उस "डाकू" के किसी काम नहीं आया तो हमारे क्या काम आयेगा जबकि "डाकू" तो सबल था और हम दोनों असहाय हैं ...

... और फ़िर हमको दो जून की "रोटी" तो मिल ही रही है कहीं ऎसा न हो कि खजाने के चक्कर में अपनी रातों की नींद तक हराम हो जाये ... वैसे भी मरते समय उस "डाकू" के काम खजाना नहीं आया, काम आये तो हम लोग .... चलो ठीक है "नींद" खराब करने से अच्छा ऎसे ही गुजर-बसर करते हैं जब कभी जरुरत पडेगी तो "खजाने" के बारे में सोचेंगे ...... !!!

( इस कहानी में न जाने क्यूं मुझे खुद कुछ अधूरापन महसूस हो रहा है .... पर क्या समझ नहीं आ रहा ... कहानी की "थीम" या "क्लाइमैक्स" ....)

दानवीर सेठ !

एक सेठ जी को महान बनने का विचार मन में "गुलांटी" मार रहा था वे हर समय चिंता मे रहते थे कि कैसे "महान" बना जाये, इसी चिंता में उनका सोना-जगना , खाना-पीना अस्त-व्यस्त हो गया था। कंजूसी के कारण दान-दया का विचार भी ठीक से नहीं बन पा रहा था बैठे-बैठे उनकी नजर घर के एक हिस्से मे पडे कबाडखाने पर पड गई खबाडखाने के सामने घंटों बैठे रहे और वहीं से उन्हे "महान" बनने का "आईडिया" मिल गया। दूसरे दिन सुबह-सुबह सेठ जी कबाड से पन्द्रह-बीस टूटे-फ़ूटे बर्तन - लोटा, गिलास, थाली, प्लेट इत्यादि झोले मे रखकर निकल पडे, पास मे एक मंदिर के पास कुछ भिखारी लाईन लगाकर बैठे हुये थे, सेठ जी ने सभी बर्तन भिखारियों में बांट दिये, बांटकर सेठ जी जाने लगे तभी एक भिखारी ने खुद के पेट पर हाथ रखते हुये कहा "माई-बाप" कुछ खाने-पीने को भी मिल जाता तो हम गरीबों की जान में जान आ जाती, सेठ जी ने झुंझला कर कहा "सैकडों रुपये" के बर्तन दान में दे दिये अब क्या मेरी जान लेकर ही दम लोगे ....... झुंझलाते हुये सेठ जी जाने लगे ...... तभी पीछे से भूख से तडफ़ रहे भिखारियों ने ...सेठ जी ... सेठ जी कहते हुये बर्तन उसके ऊपर फ़ेंक दिये और बोले .... बडा आया "दानवीर" बनने।

भ्रष्टाचार का बोलबाला !

भ्रष्टाचार का चारों ओर बोल-बाला है और-तो-और लगभग सभी लोग इसमे ओत-प्रोत होकर डूब-डूब कर मजे ले रहे हैं, आलम तो ये है कि इस तरह होड मची हुई है कि कहीं भी कोई छोटा-मोटा भ्रष्टाचार का अवसर दिखाई देता है तो लोग उसे हडपने-गुटकने के लिये टूट पडते हैं, सच तो ये भी है कि हडपने के चक्कर मे कभी-कभी भ्रष्टाचारी आपस में ही टकरा जाते हैं और मामला उछल कर सार्वजनिक हो जाता है और कुछ दिनों तक हो-हल्ला, बबाल बना रहता है .......फ़िर धीरे से यह मसला किसी बडे भ्रष्टाचारी द्वारा "स्मूथली" हजम कर लिया जाता है .... समय के साथ-साथ हो-हल्ला मचाने वाले भी भूल जाते हैं और सिलसिला पुन: चल पडता है !

भ्रष्टाचार की यह स्थिति अब दुबी-छिपी नही है वरन सार्वजनिक हो गई है, लोग खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार कर रहे हैं कारण यह भी है कि अब भ्रष्टाचार को "बुरी नजर" से नही देखा जा रहा वरन ऎसे लोगों की पीठ थप-थपाई जा रही है और उन्हे नये-नये "ताज-ओ-तख़्त " से सम्मानित किया जा रहा है।

भ्रष्टाचार के प्रमाण ..... क्यों, किसलिये ..... क्या ये दिखाई नही दे रहा कि जब कोई अधिकारी-कर्मचारी नौकरी में भर्ती हुआ था तब वह गांव के छोटे से घर से पैदल चलकर बस में बैठकर आया था फ़िर आज ऎसा क्या हुआ कि वह शहर के सर्वसुविधायुक्त व सुसज्जित आलीशान घर में निवासरत है और अत्याधुनिक गाडियों में घूम रहा है ..... बिलकुल यही हाल नेताओं-मंत्रियों का भी है ...... क्यों, क्या इन लोगों की लाटरियां निकल आई हैं या फ़िर इन्हे कोई गडा खजाना मिल गया है?

भ्रष्टाचार की दास्तां तो कुछ इतनी सुहानी हो गई है कि .... बस मत पूछिये.... जितनी भ्रष्टाचारियों की वेतन नही है उससे कहीं ज्यादा उनके बच्चों की स्कूल फ़ीस है ...फ़िर स्कूल आने-जाने का डेकोरम क्या होगा !!!!!!

मुफ़्त की नसीहते !


तीन दोस्त बहुत दिनों बाद मिले ... मिलकर खुश हुये ... जिंदगी के सफ़र पर चर्चा शुरु ... क्या कर रहा है ... क्या हालचाल है ... सफ़र कुछ ऎसा था कि दो अमीर हो गये थे धन-दौलत बना ली थी तथा एक अपनी सामान्य जीवन शैली में ही गुजर-बसर कर रहा था ... उसकी भी बजह थी वह कहीं किसी के सामने झुका नहीं ... नतीजा भी वही हुआ जो अक्सर होते आया है, जो झुकते नहीं अपने ईमान पर अडिग होते हैं, जी-हजूरी व दण्डवत होने की परंपरा से दूर रहते हैं उन्हें कहीं-न-कहीं जिंदगी की "दौलती दुनिया" में पिछडना ही पडता है ...

... खैर ये कोई सुनने-सुनाने वाली बातें नहीं है लगभग सब जानते हैं .... हुआ ये कि दोनो सफ़ल दोस्त मिलकर तीसरे पर पिल पडे .... देख यार ये ईमानदारी व सत्यवादी परंपरा किताबों में ही अच्छी लगती है .... थोडा झुक कर, चापलूसी कर, समय-बेसमय पैर छूने में बुराई ही क्या है ... अपन जिनके पैर छूते हैं वे किन्हीं दूसरों के पैर छू-छू कर चल रहे होते हैं ये परंपरा सदियों से चली आ रही है ... चल छोड, ये बता नुक्सान किसका हो रहा है ... तेरा न, उनका क्या बिगड रहा है ... वो कहावत है "तरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू तरबूजे पर गिर जाये कटना तो तरबूजे को ही पडता है" ...

... देख यार अपने बीवी-बच्चों के लिये, शान-सौकत के लिये थोडा झुकने में बुराई ही क्या है ... देख आज हमने पचास-पचास लाख का बंगला बना लिया, दो-दो एयरकंडिशन गाडियां हैं बच्चों के भविष्य के लिये पच्चीस-पच्चीस लाख बैंक में जमा कर दिये ...और तू ... आज भी वहीं का वहीं है ... खैर छोडो बहुत दिनों बाद मिले हैं कुछ "इन्जाय" कर लेते हैं....

... सुनो यार बात जब निकल ही गई है तो मेरी भी सुन लो जिस काम को तुम लोग परंपरा कह रहे हो अर्थात किसी के भी पैर छू लेना, जी-हजूरी में उनके कुत्ते को नहाने बैठ जाना, चाय खत्म होने पर हाथ बढाकर कप ले लेना, और तो और जूते ऊठाकर दे देना बगैरह बगैरह .... आजकल लोग बने रहने के लिये किन किन मर्यादाओं को पार कर रहे हैं ये बताने की जरुरत नहीं समझता, तुम लोग भली-भांति जानते हो और कर भी रहे हो .... रही बात मेरी ... तो मैं अपनी जगह खुश हूं ... जानता हूं चाहकर भी मैं खुद को नहीं बदल सकता .... ये "मुफ़्त की नसीहतें" जरा संभाल के रखो अपने किसी चेले-चपाटे को दोगे तो कुछ पुण्य भी कमा लोगे !

Monday, April 11, 2011

भ्रष्टाचार : त्राहिमाम त्राहिमाम !

भ्रष्टाचार एक ऐसी जन समस्या है जिससे समूचा भारत वर्ष हलाकान है लगभग हरेक आम आदमी के जहन में भ्रष्टाचार का खौफ व्याप्त है कुछेक ख़ास लोगों को छोड़ दिया जाए तो समूचा देश त्राहिमाम त्राहिमाम है, भ्रष्टाचार कहने को तो एक समस्या ही है किन्तु मैं इसे एक साधारण समस्या न मानकर विकराल महामारी मान के चलता हूँ । ऐसा मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार एक महामारी है जिसकी चपेट में आकर बड़ी बड़ी योजनाएं, रूपरेखाएं, परियोजनाएं, साकार रूप लेने के पहले ही दम तोड़ती दिखाई देतीं हैं, इसके जीते जागते उदाहरण कामनवेल्थ गेम्स, आदर्श सोसायटी, २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले हैं । ये तो भ्रष्टाचार के बेहद साधारण उदाहरण हैं जिनकी चपेट में मात्र सरकारी धन का स्वाहा हुआ है, भ्रष्टाचार के असाधारण उदाहरण हम उन्हें मान सकते हैं जिनकी चपेट में आकर आम जनजीवन प्रत्यक्षरूप से प्रभावित होता है, ग्राम पंचायत, जनपद, नगर पंचायत क्षेत्र में चल रहीं सरकारी योजनाएं, नरेगा, पीएमजेएसवाय, मध्यान्ह भोजन, बीपीएल कार्ड योजना, आंगनबाडी केंद्र, इत्यादि योजनाओं में चल रहे तथाकथित भ्रष्टाचार की चपेट में सीधे तौर पर आम जनजीवन है । देश में शहरी व ग्रामीण दोनों क्षेत्र में भ्रष्टाचाररूपी वायरस फ़ैल चुका है जो दिन-ब-दिन लोकतंत्ररूपी ढांचे को क्षतिकारित कर रहा है, सिर्फ सरकारी क्षेत्रों में ही नहीं वरन व्यवसायिक व सामाजिक लगभग हरेक क्षेत्र में भ्रष्टाचार वृहद पैमाने पर फल-फूल रहा है, कालाबाजारी, जमाखोरी व मिलावटखोरी भी भ्रष्टाचार के ही नमूने हैं ।

भ्रष्टाचार रूपी महामारी पर जब जब चर्चा परिचर्चा होती है और वजह तलाशी जाती है कि आखिर इस महामारी की जड़ क्या है, कौन इसके लिए जिम्मेदार है, चर्चा शुरू तो होती है पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती है, चर्चा का दम तोड़ना महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता, वो इसलिए कि भ्रष्टाचार के लिए शुरुवाती स्तर पर भ्रष्ट राजनैतिक सिस्टम को जिम्मेदार ठहराया जाता है, फिर सरकारी मोहकमों को, फिर संयुक्तरूप से दोनों को अर्थात भ्रष्ट नेता-अफसर दोनों को जिम्मेदार माना जाता है, किन्तु चर्चा के अंतिम पड़ाव तक पहुंचते पहुंचते भ्रष्टाचार के लिए आम जनता को दोषी ठहरा दिया जाता है, आम जनता को दोषी ठहराने के पीछे जो तर्क दिए जाते हैं वह भी काबिले तारीफ होते हैं। काबिले तारीफ़ इसलिए कहूंगा, तर्क यह होता है कि यदि जनता रिश्वत देना बंद कर दे तो भ्रष्टाचार स्वमेव समाप्त हो जाएगा अर्थात जनता रिश्वत न दे, रिश्वत मांगने वालों का विरोध करे, कालाबाजारी व मिलावटखोरी का विरोध करे, भ्रष्टाचार से जनता लड़े तो भ्रष्टाचार की हिम्मत ही कहां जो पांव पसार सके। सीधे तौर पर कहें तो चर्चा-परिचर्चा पर भ्रष्टाचार के लिए आमजन को ही जिम्मेदार मान लिया जाता है तात्पर्य यह कि देश में व्याप्त भ्रष्ट व्यवस्थाओं के लिए कहीं न कहीं आम जनता ही जिम्मेदार है।

भ्रष्टाचार के लिए प्रत्यक्ष रूप से आमजन को जिम्मेदार मानते हुए अक्सर यह तर्क भी दिए जाते हैं कि ट्रेन में सफ़र करते समय आम आदमी रिजर्वेशन के लिए २००, ३००, ४००, रुपये बतौर रिश्वत क्यों देता है यदि रिश्वत न दे तो ट्रेन में व्याप्त भ्रष्टाचार स्वमेव समाप्त हो जाएगा । ठीक इसी प्रकार सड़क पर जब किसी आम नागरिक की गाडी ट्रेफिक पुलिस द्वारा रोक ली जाती है तब आमजन १००, २०० रुपये दे-ले कर बच निकलने का प्रयास करता है और सफल भी हो जाता है, यहां पर तर्क यह दिया जाता है आमजन आखिर रुपये देता क्यों है ? तात्पर्य यहां भी वह ही भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है । इसी क्रम में जब आमजन को जाति प्रमाणपत्र या निवास प्रमाणपत्र बनवाने के लिए हजार, पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं तब भी वह ही दोषी माना जाता है । हद की स्थिति यहां भी नजर आती है जब म्रत्यु प्रमाणपत्र बनवाने, पेंशन फ़ाइल को आगे बढ़वाने, इंश्योरेंश क्लेम के लिए, पोस्ट मार्डम के लिए तथा अन्य सभी तरह के प्रशासनिक कार्यवाहियों के क्रियान्वन के लिए रुपयों का जो अनैतिक लेन-देन होता है उसके लिए भी आमजन को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है ।

सच ! चलो कुछ पल को इन तर्कों को पढ़-सुन कर हम मान लेते हैं कि भ्रष्टाचार के लिए आमजन जिम्मेदार है सांथ ही सांथ यह सवाल भी उठता है कि इन गंभीर तर्कों को सुनकर हम आमजन को दोषी क्यों न मानें ! यहां पर मेरी विचारधारा व सोच इन तर्कों से ज़रा भिन्न है और आगे भी रहेगी, वजह यह है कि हम घटनाक्रम के सिर्फ एक पक्ष पर ध्यान दे रहे हैं कि आमजन ने रिश्वत के रूप में रुपये दिए हैं इसलिए वह जिम्मेदार है, किन्तु हम दूसरे पक्ष को नजर अंदाज कर देते हैं कि आमजन ने रुपये आखिर क्यों दिए ! क्या वह खुशी खुशी रुपये लुटा रहा था या उसके पास रुपयों की कोई खान निकल आई थी जिसे कहीं न कहीं तो खर्च करना ही था तो ऐसे ही सही, या फिर उसे कोई ऐसा अलादीन का जिन्न मिल गया था जो इस शर्त पर उसे रुपये दे रहा था कि आज के रुपये आज ही खर्च करने होंगे ! कुछ न कुछ ऐसी आश्चर्यजनक वजह तो जरुर ही होगी अन्यथा एक आम निरीह प्राणी क्यों रिश्वत देगा ! जहां तक मेरा मानना है कि उपरोक्त में से ऐसी कोई भी वजह नहीं है जिसके लिए आमजन को भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराया जाए, मेरा स्पष्ट नजरिया यह है कि आमजन अर्थात अपने देश का एक आम आदमी, वर्त्तमान मंहगाई के समय में जिसके जीवन-यापन के खुद ही लाले पड़े हुए हैं वह बेवजह रुपये क्यों बांटेगा, वह हालात से तंग आकर, मजबूर होकर, व्यवस्था से त्रस्त होकर, मरता क्या न करता वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए किसी भी तरह के भटकने व विलंब से बचने के लिए तथा सांथ ही सांथ तरह तरह के मुश्किल हालात से बचने के लिए ही ले-दे कर अपना काम निपटाना चाहकर इस भ्रष्ट उलझन में उलझ जाता है । एक आम आदमी वर्त्तमान भ्रष्टाचार के लिए कतई जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, और न ही वह जिम्मेदार है, अगर कोई जिम्मेदार है तो वे ख़ास सक्षम लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बना कर रखा हुआ है ! इन हालात को बयां करता एक शेर - "मजबूरियों को भ्रष्टाचार का नाम न दो यारो / सच ! सीना तनने लगेगा भ्रष्टाचारियों का !"

जन लोकपाल बिल !

जन लोकपाल बिल
एक पहरेदार
लोकतंत्र का रक्षक बनेगा
चलो, पहुंचो, पहुच जाओ
जंतर मंतर
अन्ना बैठा है वहां
आमरण अनशन पर
आज मौक़ा हंसी है
बढ़ो, लड़ लो
इनसे लड़ लो यारो
मारो, मार डालो 
भ्रष्टाचार को 
कहीं भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचारी
कल, शैतान बन जाएं !! 

Saturday, April 9, 2011

दुर्भावनाओं से ग्रसित नामी-गिरामी कलमकार !

हालांकि यह सवाल खडा करना कि कलमकार दुर्भावनाओं से ग्रसित होते हैं, खुद को सवालों के कठघरे में खडा करने जैसा है ! सवाल के उठने के सांथ ही आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ सकता है किन्तु आलोचनाओं से बचने या भागने के चक्कर में इस महत्वपूर्ण ज्वलंत विषय पर लिखने से खुद को रोक पाना मुश्किल है ! वर्त्तमान समय में फेसबुक पर नए, उभरते, संघर्षशील, स्थापित, कलमकारों से अक्सर सामना पड़ते रहता है सामना पड़ने से तात्पर्य रु--रु मुलाक़ात से नहीं है वरन उनके लेखन से सामना होने से है, जिसमें कवि, लेखक, आलोचक, समीक्षक, विश्लेषक, सभी तरह के कलमकार हैं जिसमें कुछेक मीडिया जगत से भी हैं !

फेसबुक पर सामान्यतौर पर छोटी-छोटी पोस्टों का चलन ज्यादा है दो लाइन, तीन लाइन में कलमकार जो उसकी मर्जी में आता है ठूंस देता है, प्रभावशाली कलमकारों के द्वारा ठूंस दी गई दो-तीन लाइनों को पढ़कर कभी कभी तो हंसी जाती है, हंसी इसलिए कि अगर कोई नया-नवेला कलमकार लिखे तो कोई बात नहीं किन्तु नामी-गिरामी लोग लिखें तो पढ़कर हंसी निकलना जायज है ! कभी कभी तो ऐसा लगता है कि इतना प्रतिष्ठित कलमकार और इतनी वाहियात लेखनी, जिसे पढ़कर अजीब सा महसूस हो, क्या करें वहां पर टिप्पणी की इच्छा होती है पर बड़ी मुश्किल से खुद को भिड़ने से रोकना पड़ता है, रोकना इसलिए कि यदि नहीं रुके तो टिप्पणी के परिणाम स्वरूप तना-तनी की पूर्णरूपेण संभावना रहेगी, तना-तनी हो ये और बात है !

इस चर्चा के असल मुद्दे पर आते हैं कि कलमकार दुर्भावनाओं से ग्रसित हैं यह कैसे जान पड़ता है ! तो सुनिए, जब एक जाना-माना स्थापित कलमकार, क्रिकेट टीम में खिलाड़ियों के चयन पर जातिगत चर्चानुमा पोस्ट ठेल दे कि फंला जाती के लोगों को स्थान नहीं है फंला जाती के लोगों को महत्त्व ज्यादा मिल रहा है वगैरह वगैरह ! ठीक इसी प्रकार कोई स्थापित चर्चित कलमकार यह पोस्ट लगा दे कि अन्ना हजारे के आन्दोलन का विरोध करते हैं, कोई यह लिखे कि जन लोकपाल के गठन से क्या भ्रष्टाचार मिट जाएगा, भईय्या कोई मुझे ये बताये कि क्रिकेट टीम के चयन में जात-पात की चर्चा का औचित्य क्या है, ठीक इसी प्रकार जब आप अन्ना हजारे जैसी सकारात्मक पहल नहीं कर सकते तो विरोध करने की जरुरत क्या है, भ्रष्टाचार मिटेगा या नहीं यह तो लोकपाल के गठन के बाद समझ आयेगा फिलहाल तो सारा का सारा देश भ्रष्टाचार की चपेट में है जब कोई सार्थक सकारात्मक पहल हो रही है तब सवाल खड़े करने की जरुरत क्या है !

ठीक इसी प्रकार यह सर्वविदित सत्य है कि वर्त्तमान में अपने देश में ईमानदार लोगों को तलाशना कठिन काम है, अब जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन में खड़े हैं वे कितने ईमानदार हैं या कितने बेईमान हैं इस सवाल को उठाने की जरुरत ही क्या है ! क्या बेईमान हैं तो अच्छे, सार्थक सकारात्मक कार्य में योगदान नहीं दे सकते, जरुर दे सकते हैं और देना ही चाहिए, अभी तक किसी ने पहल नहीं की थी इसलिए बेईमान थे किन्तु अब इमानदारी के रास्ते पर चल पड़े हैं ! अब इन बुद्धिमान कलमकारों को कौन समझाये कि रातों-रात तो कोई काम हो नहीं सकता, सार्थक सकारात्मक पहल तो करनी ही पड़ेगी, और जब कोई सार्थक सकारात्मक कदम उठा रहा है तो उसमें नुक्ताचीनी की जरुरत क्या है ! मेरा तो ऐसा मानना है कि कलमकारों को जातिगत, राजनैतिक, व्यक्तिगत सामाजिक दुर्भावनाओं से परे रहकर सार्थक सकारात्मक लेखन की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, और यदि आलोचना करना जरुरी ही है तो सभी पहलुओं पर गंभीर मनन-चिंतन के बाद ही पहल करनी चाहिए, कि क्षणिक वाह वाही के लिए जो मन में आये उसे ठोक दो !!

Friday, April 8, 2011

जन लोकपाल बिल : भ्रांतियों का दुष्प्रचार !

जन लोकपाल बिल को लेकर सारे भारत वर्ष में हलाकान मचा हुआ है, न्यूज चैनल्स, न्यूज पेपर्स, वेबसाईट, ब्लाग्स, फेसबुक, ट्वीटर, पत्रिकाओं, चर्चा मंचों तथा आमजन में बहस का मुद्दा बना हुआ है, जन लोकपाल बिल को लेकर चर्चा चिंता जायज है किन्तु ऐसा देखने, सुनने, पढ़ने में रहा है कि जन लोकपाल बिल को लेकर जो चर्चा होनी चाहिए वह चर्चा का मूल केंद्र बिंदु होकर मुद्दे से भटकाव की ओर है ! जन लोकपाल बिल को लेकर अब तक जो चर्चा देखने, सुनने, पढ़ने में मिल रही है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह बिल भ्रष्टाचार के विरुद्ध होकर देश के संचालन को लेकर है यहाँ मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि जहां तक मेरा मानना है कि यह जन लोकपाल बिल देश के संचालन को लेकर नहीं है और ही इसका हस्तक्षेप देश के प्रजातांत्रिक संचालन पर नकेल कसने को लेकर है, यह जन लोकपाल बिल स्पष्टरूप से, मूलरूप से भ्रष्टाचार के नियंत्रण को लेकर है

जन लोकपाल बिल को लेकर सत्ता सत्तासीन लोगों की चिंता जायज है कि कहीं यह बिल पारित होते ही देश के प्रजातांत्रिक संचालन में हस्तक्षेप करने लगे, यह भी पढ़ने सुनने में रहा है कि कहीं लोकपाल के पद पर बैठा व्यक्ति हिटलर की मानसिकता का निकल गया तो देश का संचालन अपने हांथ में लेकर देश का मुखिया बन कर बैठ जाएगा जिससे प्रजातांत्रिक ढांचा चरमरा जाएगा ये विचार बुद्धिजीवी लोगों के मन में आना जायज है और आना भी चाहिए किन्तु उन बुद्धिजीवियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जन लोकपाल का ढांचा जो तैयार किया गया है अथवा संशोधन उपरांत जो ढांचा साकार रूप लेगा वह जन लोकपाल रूपी ढांचा देश के संचालन के लिए होकर मात्र भ्रष्टाचार के नियंत्रण को लेकर होगा, सीधा सीधा तात्पर्य यह है कि जन लोकपाल सिर्फ, सिर्फ भ्रष्टाचार के नियंत्रण भ्रष्टाचारियों पर दंडात्मक प्रकिया के संचालन के लिए होगा

जन लोकपाल बिल को लेकर उपजी या उपजाई जा रही भ्रांतियों को लेकर मेरा स्पष्टतौर पर ऐसा मानना है कि यह महज दुष्प्रचार है कि यह बिल पारित होते ही देश का प्रजातांत्रिक ढांचा चरमरा जाएगा और जन लोकपाल के पद पर बैठा व्यक्ति देश का सर्वे-सर्वा बन जाएगा, हिटलर बन जाएगा, तानाशाही करने लगेगा, ऐसा कतई नहीं होगा और ही ऐसा होने की कोई गुंजाईश होगी जन लोकपाल के पद पर बैठे व्यक्ति को लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के संचालन में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होगा, जब हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होगा तब वह किस अधिकार से हस्तक्षेप का प्रयास करेगा, यह महज दुष्प्रचार करने वाली बातें हैं

देश में संचालित कार्यपालिका, व्यवस्थापिका न्यायपालिका के संचालन नियंत्रण पर जन लोकपाल का कोई अधिकार हस्तक्षेप नहीं होगा, अधिकार होगा तो सिर्फ इन व्यवस्थाओं में हो रहे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने पर होगा, भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने पर होगा यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि लोकतंत्र के किसी भी अंग को भ्रष्टाचार दुराचार करने की आजादी लोकतंत्र नहीं कही जा सकती, और यदि लोकतंत्र के किसी भी अंग में भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है तो उसके जिम्मेदार लोगों को दण्डित होना ही चाहिए फिर चाहे वे कार्यपालिका के हों, व्यवस्थापिका के हों या न्यायपालिका के

जन लोकपाल बिल का ढांचा भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन आन्दोलन के अगुवा आमरण अनशन पर बैठे समाजसेवी अन्ना हजारे के सहयोगियों द्वारा तैयार किया गया है तथा उनकी मांग है कि देश से भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए जन लोकपाल बिल का पारित किया जाना अत्यंत आवश्यक है, देश में बढ़ रहे निरंतर भ्रष्टाचार घोटालों ने निश्चित ही देश को शर्मसार किया है कामनवेल्थ घोटाला, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला ऐसे घोटाले हैं जिन्होंने भ्रष्ट सरकारों की कलई खोल कर रख दी है अपने देश में भ्रष्टाचार घोटालों की निरंतर बाढ़ आई हुई है, आमजन का जीना दुश्वार हुआ है, लोकतंत्र के सभी अंगों में भ्रष्टाचार जग जाहिर हैं, इन विकराल परिस्थितियों में जन लोकपाल बिल एक उम्मीद की किरण बनकर हमारे सामने है, सरकारों, जनप्रतिनीधियों, नौकरशाहों, बुद्धिजीवियों समस्त मीडिया जगत को जन लोकपाल बिल का समर्थन करना चाहिए जिससे भ्रष्टाचार मुक्त समाज राष्ट्र का निर्माण हो सके