दो भिखारी जिसमे एक अंधा व दूसरा लंगडा था दोनों दिन भर इधर-उधर घूम-घूम कर भीख मांग कर शाम को अपने मुकाम शिव मंदिर के पास पीपल के पेड के नीचे रात काटते थे यह सिलसिला पिछले सात-आठ सालों से चल रहा था इसलिये दोनों में गाडी मित्रता हो गई थी दोनों रात का खाना एक साथ मिल बांट कर ही खाते थे, दोनो ही सुख-दुख में एक-दूसरे के हमसफ़र थे।
एक दिन पास में ही माता के मंदिर के पास अंधा भीख मांग रहा था वहीं एक बीमार आदमी दर्द से कराह रहा था लगभग मरणासन अवस्था में था अंधा भिखारी उसके पास जाकर पानी पिलाने लगा और भीख में मिली खाने की बस्तुएं उसे खाने देने लगा ... दो बिस्किट खाते खाते उसकी सांस उखडने लगी ... मरते मरते उसने बताया कि वह "डाकू" था तथा उसने एक "खजाना" छिपाकर रखा है उसे निकाल लेना, खजाना का "राज" बताने के बाद वह मर गया ...
.... अंधा भिखारी सोच में पड गया .... शाम को उसने यह राज अपने मित्र लंगडे भिखारी को बताया ... दूसरे दिन सुबह दोनों उस मृतक के पास पंहुचे उसकी लाश वहीं पडी हुई थी दोनों ने मिलकर भीख में मिले पैसों से उसका कफ़न-दफ़न कराया और खजाने के राज पर विचार-विमर्श करने लगे ...
... पूरी रात दोनों खजाने के बारे में सोचते सोचते करवट बदलते रहे ... सुबह उठने पर दोनों आपस में बातचीत करते हुये ... यार जब हमको खजाने के बारे में सोच-सोच कर ही नींद नहीं आ रही है जब खजाना मिल जायेगा तब क्या होगा !!! .... बात तो सही है पर जब "खजाना" उस "डाकू" के किसी काम नहीं आया तो हमारे क्या काम आयेगा जबकि "डाकू" तो सबल था और हम दोनों असहाय हैं ...
... और फ़िर हमको दो जून की "रोटी" तो मिल ही रही है कहीं ऎसा न हो कि खजाने के चक्कर में अपनी रातों की नींद तक हराम हो जाये ... वैसे भी मरते समय उस "डाकू" के काम खजाना नहीं आया, काम आये तो हम लोग .... चलो ठीक है "नींद" खराब करने से अच्छा ऎसे ही गुजर-बसर करते हैं जब कभी जरुरत पडेगी तो "खजाने" के बारे में सोचेंगे ...... !!!
( इस कहानी में न जाने क्यूं मुझे खुद कुछ अधूरापन महसूस हो रहा है .... पर क्या समझ नहीं आ रहा ... कहानी की "थीम" या "क्लाइमैक्स" ....)
एक दिन पास में ही माता के मंदिर के पास अंधा भीख मांग रहा था वहीं एक बीमार आदमी दर्द से कराह रहा था लगभग मरणासन अवस्था में था अंधा भिखारी उसके पास जाकर पानी पिलाने लगा और भीख में मिली खाने की बस्तुएं उसे खाने देने लगा ... दो बिस्किट खाते खाते उसकी सांस उखडने लगी ... मरते मरते उसने बताया कि वह "डाकू" था तथा उसने एक "खजाना" छिपाकर रखा है उसे निकाल लेना, खजाना का "राज" बताने के बाद वह मर गया ...
.... अंधा भिखारी सोच में पड गया .... शाम को उसने यह राज अपने मित्र लंगडे भिखारी को बताया ... दूसरे दिन सुबह दोनों उस मृतक के पास पंहुचे उसकी लाश वहीं पडी हुई थी दोनों ने मिलकर भीख में मिले पैसों से उसका कफ़न-दफ़न कराया और खजाने के राज पर विचार-विमर्श करने लगे ...
... पूरी रात दोनों खजाने के बारे में सोचते सोचते करवट बदलते रहे ... सुबह उठने पर दोनों आपस में बातचीत करते हुये ... यार जब हमको खजाने के बारे में सोच-सोच कर ही नींद नहीं आ रही है जब खजाना मिल जायेगा तब क्या होगा !!! .... बात तो सही है पर जब "खजाना" उस "डाकू" के किसी काम नहीं आया तो हमारे क्या काम आयेगा जबकि "डाकू" तो सबल था और हम दोनों असहाय हैं ...
... और फ़िर हमको दो जून की "रोटी" तो मिल ही रही है कहीं ऎसा न हो कि खजाने के चक्कर में अपनी रातों की नींद तक हराम हो जाये ... वैसे भी मरते समय उस "डाकू" के काम खजाना नहीं आया, काम आये तो हम लोग .... चलो ठीक है "नींद" खराब करने से अच्छा ऎसे ही गुजर-बसर करते हैं जब कभी जरुरत पडेगी तो "खजाने" के बारे में सोचेंगे ...... !!!
( इस कहानी में न जाने क्यूं मुझे खुद कुछ अधूरापन महसूस हो रहा है .... पर क्या समझ नहीं आ रहा ... कहानी की "थीम" या "क्लाइमैक्स" ....)
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