तुम दौड़कर
सिमट आईं
बांहों में
मैं खामोश
खुद को, और तुम्हें
सहेजता
तुम निढाल हुईं
बिखरने लगीं
रेत सी
समेटना, संभालना पडा
तुम्हें, बांहों में
कैसे बिखरने देता
सच, चाहत जो है !!
सिमट आईं
बांहों में
मैं खामोश
खुद को, और तुम्हें
सहेजता
तुम निढाल हुईं
बिखरने लगीं
रेत सी
समेटना, संभालना पडा
तुम्हें, बांहों में
कैसे बिखरने देता
सच, चाहत जो है !!
1 comment:
Sayad, yahi sachi chaht h.......
बहुत खूब
www.anjaan45.blogspot.com
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