Friday, November 11, 2011

एक सिक्के के दो पहलु : जायज-नाजायज !

एक पहलु ...
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जिनसे मुझे कुछ, या यूँ कहूँ
कोई उम्मीद होती है
तब
मैं खुद-ब-खुद -
वहां पहुँच जाता हूँ !

वहां पहुच कर -
मैं यह भी नहीं देखता
कि -
मेरा आना -
जायज है या नहीं !

जहां उम्मीदें अपनी हों
वहां क्या जायज -
और क्या नाजायज !!

दूसरा पहलु ...
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जिनसे मुझे, या यूँ कहूँ
कुछ उम्मीदें हैं
उनके पास मुझे, खुद-ब-खुद
पहुँच जाना चाहिए !

वहां पहुच कर
मुझे यह भी नहीं देखना चाहिए
कि -
मेरा आना, जायज है या नहीं !
जहां, उम्मीदें अपनी हों
वहां -
क्या जायज, क्या नाजायज ?

पर, मेरे ख्याल
मेरे ही जीवन में -
हकीकत रूप नहीं ले पाते हैं
क्यूँ, क्योंकि -
मैं, खुद के सामने, कभी भी
नाजायज को, जायज नहीं ठहरा पाता हूँ !!

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