Tuesday, October 25, 2011

संपादक ... उफ़ ! क्या खूब डाकिये हैं !!

एक दिन एक राष्ट्रीय साहित्यिक गोष्ठी के दौरान, दो महाशय सूटेड-बूटेड आपस में चर्चा कर रहे थे, दोनों की बातों से स्पष्ट था कि - दोनों किसी मशहूर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादक हैं ... वहीं पर एक बाबा जी भी बैठे हुए थे जो उन दोनों की बातें बहुत गंभीरता पूर्वक सुन रहे थे ... दोनों महाशयों की बातें सुनते सुनते बाबा जी अचानक बीच में कूद पड़े, कूदते ही बाबा जी ने कहा - बुद्धिमान महाशयो, इस साहित्यिक गोष्ठी में शामिल होकर मुझे बेहद प्रसन्नता हो रही है यदि आप बुरा न मानें तो मैं आपसे कुछ जानना चाहता हूँ ... हाँ, पूछिए क्या बात है ... आपकी बातें सुनकर ऐंसा प्रतीत होता है कि आप दोनों सालों से संपादन का काम कर रहे हैं, और शायद आप पत्र-पत्रिकाओं के मालिक भी हैं ... हाँ, बिलकुल सही पहचाना ... अच्छा, आप ये बताइये - पत्र-पत्रिकाओं के लिए समाचार, कविता, कहानी, हास्य-व्यंग्य, आलोचना, समालोचना, संस्मरण, बगैरह-बगैरह, सब खुद-ब-खुद आपके चैंबर में पहुँच जाते होंगे, वो भी बिना किसी मेहनत के ? ... हाँ, सच कहा आपने, सब लोग लिख लिख के भेज देते हैं, उनमें से ही हम लोग काँट-छाँट कर ... बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया, बिलकुल ऐंसा ही मेरा भी अनुमान था, क्या कभी ऐंसा हुआ जो आपने - किसी श्रेष्ठ, प्रभावी व प्रसंशनीय लेखन को स्वत: तलाशा हो ? ... शायद नहीं, इतनी फुर्सत ही नहीं होती, और तलाश करने की जरुरत भी क्या है जब सारी श्रेष्ठ सामग्री स्वत: ही अपने पास पहुँच जाती है ... हाँ, सच कहा आपने, तो इसका मतलब मैं यह समझ लूं कि - आप लोग सिर्फ एक डाकिये हो, जो आई हुई चिट्ठियों को छाप-छाप कर संपादक कहला रहे हैं ? ... सुनते ही दोनों तिलमिला गए, कुछ कहते-सुनते, पर बाबा जी से उलझना उचित न समझ कर, दोनों वहां से उठकर चले गए ... बाबा जी खुद ही, खुद से बड़-बड़ाते हुए - लो भई, ये आज-कल के संपादक हैं जो इंटरनेटी फास्ट युग में भी - जहां एक से बढ़कर एक नए नए प्रभावशाली लेखक आ गए हैं वहां भी चैंबर में अपने भाई-भतीजों, चेलों-चपाटों की चिट्ठियों के भरोसे बैठे हैं ... संपादक ... उफ़ ! क्या खूब डाकिये हैं !!

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