Friday, January 7, 2011

अगर हम चाहते तो, बन परिंदे आसमाँ में उड गये होते !


इस तरह मुँह फेर कर जाना तेरा
देखना एक दिन तुझे तडफायेगा ।

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वो बन गये थे रहनुमा, मुफ्त में खिलौने बाँटकर
खिलौने जान ले-लेंगें, ये सोचा नहीं था । 

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ताउम्र समेटते रहे दौलती पत्थर
मौत आई तो मिटटी ही काम आई । 

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ये सच है तूने आँखों में समुन्दर को बसा रख्खा है
कितना गहरा है, ये तो डूबकर ही बता पायेंगे ।

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कुछ इस तरह अंदाजे बयाँ है तेरा
जिधर देखूँ, बस तू ही तू आता है नजर। 

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फूल कश्ती बन गये, आज तो मझधार में
जान मेरी बच गई, माँ तेरी दुआओं से। 

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अगर हम चाहते तो, बन परिंदे आसमाँ में उड गये होते
जमीं की सौंधी खुशबू और तेरी चाहतों ने, हमें उडने नहीं दिया। 

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खंदराओं में भटकने से , खुली जमीं का आसमाँ बेहतर
वहाँ होता सुकूं तो, हम भी आतंकी बन गये होते। 

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क्यों शर्म से उठती नहीं, पलकें तुम्हारी राह पर
फिर क्यों राह तकते हो, गुजर जाने के बाद। 

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कौन जाने, कब तलक, वो भटकता ही फिरे
आओ उसे हम ही बता दें ‘रास्ता-ए-मंजिलें’ ।

4 comments:

deepti sharma said...

bahut sunder rachna

kabhi yaha bhi aaye
www.deepti0sharma.blogspot.com

ZEAL said...

Lovely presentation !

rajesh singh kshatri said...

bahut sunder rachna.

Harshvardhan said...

bahut khoob.........