Friday, January 28, 2011

जिज्ञासा

सच ! हाँ जानती हूँ, तुम मुझे
निर्वस्त्र देखना चाहते हो
घंटों निहारना चाहते हो
सिर से पैरों तक
फिर पैरों से सिर तक
आगे से, पीछे से
अकेले में, रौशनी में
तुम चाहते हो
देखना मुझे निर्वस्त्र
अपनी मद भरी आँखों से !

सच ! तुम कितने लालायित हो
मैंने एक-दो बार भांपा है
तुम्हारी नजरें स्थिर बन
ठहर सी जाती हैं
कभी कभी, मुझ पर
कपडे बदलते समय
और तो और
एक-दो बार तुमने
मुझे नहाते समय देखने का
असफल प्रयास भी किया
किन्तु, तुम सहम गए !

तुम्हारी सालों की लालसा
चाहती हूँ, कर दूं पूरी
पर क्या करूं
शर्म के कारण
सच ! चाहकर भी सहम जाती हूँ
कल तो मैंने
मन ही बना लिया था
पर चाहते चाहते
शर्म उतर आई मन में
रुक गई, ठहर गई
नहीं तो कल रात
तुम्हारी जिज्ञासा
हो गई होती पूरी !

सच ! अब मुझसे भी
तुम्हारी लालसा
व्याकुलता, देखी नहीं जाती
देखें, कब तक, शर्म
रोक सकती है मुझको
या फिर, किसी दिन
शर्माते, लजाते ही
अपनी आँखों को, मूँद कर
मैं तुमसे, चुपके से, कह दूंगी
लो, कर लो पूर्ण
चुपके से, धीरे से
अपनी जिज्ञासा पूरी !!

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