Monday, January 17, 2011

गाँधी के वतन में, अब कोई गाँधी नहीं है !

तेरी खामोशियों का, क्या मतलब समझें
तुझे उम्मीद है, या इंतजार है ।
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वक्त गुजरे, तो गुजर जाये
तेरे आने तक, इंतजार रहेगा हमको ।
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आसमां तक रोशनी चाहते क्यों हो
घरों के अंधेरे तो दूर हों पहले ।
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खुदा की सूरतें हैं क्या, खुदा की मूरतें हैं क्या
न तुम जाने, न हम जाने ।
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अंधेरे जिन्हे रास नही आते
उनकी राहों मे रौशनी खुद-व-खुद आ जाती है।
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चलो लिख दें इबारत कुछ इस तरह
जिसे पढकर रस्ते बदल जाएँ।
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वो भी तन्हा रह गए, हम भी तन्हा रह गए
उनकी खामोशियाँ, भी सिसकती रह गईं।
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फक्र कर पहले जमीं पर
फिर करेंगे आसमां पर।
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होते हैं हालात, मौत से बदतर
जो जीते-जी मौत दिखा देते हैं।
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हम जो लिख दें, तो समझ लो क्या लिखा है
तुम जो पढ लो, तो समझ लो क्या लिखा है।
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दौलतें बाँधकर पीठ पर ले जायेंगे
जमीं पे गददारी के निशां छोड जायेंगे।
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क्यूँ रोज उलझते-सुलझते हो मोहब्बत में
क्या हँसते-मुस्कुराते जीना खुशगवार नहीं ।
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तौबा कर लेते मोहब्बत से
गर तेरे इरादे भाँप जाते हम।
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चमचागिरी का दौर बेमिसाल है
चमचों-के-चमचे भी मालामाल हैं।
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रोज सपनों मे तुम यूँ ही चले आते हो
कहीं ऎसा तो नहीं, सामने आने से शर्माते हो।
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कदम-दर-कदम रास्ते घटते गए और फासले बढते गये
फिर हौसले बढते गये, और मंजिलें बढती गईं ।
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‘खुदा’ तो है ‘खुदा’ तब तक, जब तक हम ‘खुदा’ मानें
कहाँ है फिर ‘खुदा’, जब न ‘खुदा’ मानें !
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‘उदय’ जाने, अब हमारी चाहतें हैं क्या
अब तक जिसे चाहा, वही बेजुवाँ निकला।
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कहां अपनी, कहां गैरों की बस्ती है
जहां देखो, वहीं पे बम धमाके हैं।
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लिखते-लिखते क्या लिखा, क्या से क्या मैं हो गया
पहले जमीं , फिर आसमाँ, अब सारे जहां का हो गया।
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सजा-ए-मौत दे दे, या दे दे जिंदगी
चाहे अब न ही कह दे, मगर कुछ कह तो दे।
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बसा लो तुम हमें, अपने गिरेबां में
दिलों में अब, है आलम बेवफाई का।
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वो मिले, मिलते रहे तन्हाई में
भीड में, फिर वो जरा घबरा गये।
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आज दुआएँ भी हमारी, सुन लेगा ‘खुदा’
जमीं पे, गम के साये में, खुशी हम चाहते हैं।
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तुमने हमारी दोस्ती का, क्यूं इम्तिहां लिया
तुम इम्तिहां लेते रहे, और दूरियाँ बढती रहीं।
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मिट्टी के खिलौनों की दुकां, मैं अब कहां ढूंढू
बच्चों के जहन में भी, तमंच्चे-ही-तमंच्चे हैं।
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मेरे अंदर ही बैठा था ‘खुदा’, मदारी बनकर
दिखा रहा था करतब, मुझे बंदर बनाकर।
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कब तलक तुमको अंधेरे रास आयेंगे
झाँक लो बाहर, उजाले-ही-उजाले हैं ।
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छोड के वो मैकदा, तन्हा फिर हो गया
हम दोस्त नहीं , तो दुश्मन भी नहीं थे।
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हम भी करेंगे जिद, अमन के लिये
देखते हैं, तुम कितने कदम साथ चलते हो।
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दिखाते हो वहाँ क्यूँ दम, जहाँ पे बम नही फटते
बच्चों के खिलौने तोडकर, क्यूँ मुस्कुराते हो।
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‘मसीहे’ की तलाश में दर-दर भटकते फिरे
‘मसीहा’ जब मिला, तो अपने अन्दर ही मिला।
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हो शाम ऎसी कि तन्हाई न हो
मिले जब मोहब्बत तो रुसवाई न हो।
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प्यार हो, तो दूरियाँ अच्छी नहीं
दुश्मनी हो, तो फिर दोस्ती अच्छी नहीं।
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सत्य के पथ पर, अब कोई राही नहीं है
गाँधी के वतन में, अब कोई गाँधी नहीं है ।
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मेरी महफिल में तुम आये, आदाब करता हूँ
कटे ये शाम जन्नत सी, यही फरियाद करता हूँ ।

3 comments:

Kailash Sharma said...

सभी पंक्तियाँ बहुत सुन्दर..कुछ तो लाज़वाब हैं

Dr (Miss) Sharad Singh said...

....मार्मिक, हृदयस्पर्शी पंक्तियां हैं। अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें।

Ankur Jain said...

खुदा’ तो है ‘खुदा’ तब तक, जब तक हम ‘खुदा’ मानें
कहाँ है फिर ‘खुदा’, जब न ‘खुदा’ मानें !

bahut sundar.......