Saturday, January 29, 2011

अंतिम साँसें !

लोकतंत्र
और आजादी
दोनों इस आस में
खड़े थे कि
मीडिया रूपी
अंतिम साँसें
उन्हें संजो लेंगे
बचा लेंगे
पर क्या करें
कब तक चलतीं
अंतिम साँसें
कभी तो उखड़ना था
चलो आज ही सही

अंतिम साँसें
जिन पे आस थी
विश्वास की अंतिम डोर थी
टूट गई डोर
बिखर गई आस
बिक गईं
बिकना ही था
आजादी की
अंतिम साँसों को

खरीददार जो खड़े थे
कुछ बिक रहे थे
कुछ खरीदे जा रहे थे
फिर कौन
रोक सकता था
बिकने से
अंतिम साँसों को
बिक गईं
सचमुच बिक गईं
अंतिम साँसें !

क्या करते
कोई दूजा विकल्प
भी नहीं था
बिकने के सिवाय !!
पर बिकने का
सिलसिला
रुका नहीं
एक के बाद एक
सब बिकते चले गए
सारी की सारी
अंतिम साँसें
बिक चुकी थीं !

शायद अब
आजादी भी
लोकतंत्र की भांति
निढाल हो
देख रही थी
उसे जीवित रखने वाली
अंतिम साँसों को
बिकते हुए !!!

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