Saturday, January 29, 2011

गर्म-जोशी !

क्या तेरे भीतर
बस इतनी ही गर्म-जोशी है
जो मुझे देखते - देखते
तू हो जाता है स्खलित

क्या अब भी तुझे
है घमंड
मर्द होने का
या कुछ बचा है
डींगें हांकने को

ये तेरा दोष नहीं
मेरा जिश्मानी हुनर है
जो तुझे कर देता है
पल पल में व्याकुल

हां मुझे खबर है
मेरे जिस्म के अंग
हैं कितने मादक
जिसे देखने को
तू रहता है कितना आतुर

पर क्यों
क्या तेरी जिज्ञासा
बस इतनी ही है
जो पल भर में
कर देती है
तुझको
स्खलित

जरा सोच जब तू देखेगा
मुझको
सिर से पैरों तक
निर्वस्त्र ..... तब तेरी आंखें
क्या रह पायेंगी स्थिर
या फ़िर तू मुझे देखते देखते
हो जायेगा फ़िर से स्खलित

क्या यहीं तक, है तेरी मर्दांगी
या फ़िर, अब भी, बचा है कुछ
डींगें हांकने को, दम भरने को
चुप क्यों है, कुछ कह दे
नहीं तो मर्दांगी, तुझे धिक्कारेगी

मत हो व्याकुल, तब भी मैं
तुझे उद्धेलित कर
सवार
कर लूंगी खुद पर
और तुझे पार लगा दूंगी
खुद स्खलित होकर !!

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