Friday, January 28, 2011

धधक रहा हूँ !

मौज हुई मौजों की यारा
किसान-मजदूर हुआ बेचारा
बस्ती भी बे-जान हो गई
शैतानों की शान हो गई
देख देख कर सोच रहा हूँ
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर अन्दर धधक रहा हूँ !

भरी सभा खामोश हो गई
दुस्शासन की मौज हो गई
अस्मत भी लाचार हो गई
लुट रही है, लूट रहे हैं
कब तक देखूं सोच रहा हूँ
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर अन्दर धधक रहा हूँ !

एक
भयानक तूफ़ान चल रहा
कैसे जीवन गुजर रहा है
कब सुबह - कब शाम हो रही
पता नहीं, क्या बेचैनी है
और क्यों पसरा सन्नाटा है
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर - अन्दर धधक रहा हूँ !

बाहर देखो सब चोर हुए हैं
मौज - मजे में चूर हुए हैं
नष्ट हो गई आन देश की
सत्ता भी अब भ्रष्ट हो गई
ये पीड़ा भी सता रही है
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर - अन्दर धधक रहा हूँ !

कतरा - कतरा व्याकुल है
कब निकलूं ये सोच रहा है
कब तक मैं जज्बातों को
शब्दों के अल्फाजों से
बाहर शोले पटक रहा हूँ
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर - अन्दर धधक रहा हूँ !!

1 comment:

Kailash Sharma said...

बाहर देखो सब चोर हुए हैं
मौज - मजे में चूर हुए हैं
नष्ट हो गई आन देश की
सत्ता भी अब भ्रष्ट हो गई
ये पीड़ा भी सता रही है
भभक रहा हूँ , दहक रहा हूँ
अन्दर - अन्दर धधक रहा हूँ !

आज हरेक ईमानदार इंसान अंदर से धधक रहा है...ज़रूरत है इस अंगारे को शोला बनाने की..बहुत सार्थक और भावपूर्ण..मन को छू गयी..