गर नहीं लड़ा मैं आज भयंकर तूफानों से
कल छोटी फूंको से भी मैं गिर सकता हूँ !
है कद-काठी मेरी, आज भले छोटी ही सही
पर जज्बातों के तपते तूफां लेकर चलता हूँ !
जब नहीं डरा, खुद के दहकते जज्वातों से
फिर कैसे झूठे अल्फाजों से डर सकता हूँ !
बंधने को बंध जाते, लोग प्रेम के बंधन में
मैं तो माँ धरती का कर्ज चुकाते चलता हूँ !
जब नहीं डरा लड़ने से, फिरंगी शैतानों से
फिर कैसे घर के हैवानों से डर सकता हूँ !
होंगे लोग मौत के डर से, घर से न निकलें
मैं सिर पे बाँध कफ़न का टुकड़ा चलता हूँ !!
कल छोटी फूंको से भी मैं गिर सकता हूँ !
है कद-काठी मेरी, आज भले छोटी ही सही
पर जज्बातों के तपते तूफां लेकर चलता हूँ !
जब नहीं डरा, खुद के दहकते जज्वातों से
फिर कैसे झूठे अल्फाजों से डर सकता हूँ !
बंधने को बंध जाते, लोग प्रेम के बंधन में
मैं तो माँ धरती का कर्ज चुकाते चलता हूँ !
जब नहीं डरा लड़ने से, फिरंगी शैतानों से
फिर कैसे घर के हैवानों से डर सकता हूँ !
होंगे लोग मौत के डर से, घर से न निकलें
मैं सिर पे बाँध कफ़न का टुकड़ा चलता हूँ !!
7 comments:
वाह क्या बात है
बहुत अच्छा लिखा.
मेरा ब्लॉग - दुनाली
है कद-काठी मेरी, आज भले छोटी ही सही
पर जज्बातों के तपते तूफां लेकर चलता हूँ !
nihsandeh...
सुदर रचना उदय भाई...
सादर..
वाह!! बहुत उम्दा रचना.
ओजस्वी रचना....
हर शेर अर्थपूर्ण.....
ek sambal deti umda rachna.
होंगे लोग मौत के डर से, घर से न निकलें
मैं सिर पे बाँध कफ़न का टुकड़ा चलता हूँ !!
वाह....
नि:शब्द हूँ आपकी गज़ल पढकर...आभार...
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