Sunday, July 3, 2011

कफ़न का टुकड़ा !

गर नहीं लड़ा मैं आज भयंकर तूफानों से
कल छोटी फूंको से भी मैं गिर सकता हूँ !

है कद-काठी मेरी, आज भले छोटी ही सही
पर जज्बातों के तपते तूफां लेकर चलता हूँ !

जब नहीं डरा, खुद के दहकते जज्वातों से
फिर कैसे झूठे अल्फाजों से डर सकता हूँ !

बंधने को बंध जाते, लोग प्रेम के बंधन में
मैं तो माँ धरती का कर्ज चुकाते चलता हूँ !

जब नहीं डरा लड़ने से, फिरंगी शैतानों से
फिर कैसे घर के हैवानों से डर सकता हूँ !

होंगे लोग मौत के डर से, घर से निकलें
मैं सिर पे बाँध कफ़न का टुकड़ा चलता हूँ !!

7 comments:

Unknown said...

वाह क्‍या बात है
बहुत अच्‍छा लिखा.


मेरा ब्‍लॉग - दुनाली

रश्मि प्रभा... said...

है कद-काठी मेरी, आज भले छोटी ही सही
पर जज्बातों के तपते तूफां लेकर चलता हूँ !
nihsandeh...

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

सुदर रचना उदय भाई...
सादर..

Udan Tashtari said...

वाह!! बहुत उम्दा रचना.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

ओजस्वी रचना....

हर शेर अर्थपूर्ण.....

अनामिका की सदायें ...... said...

ek sambal deti umda rachna.

गीता पंडित said...

होंगे लोग मौत के डर से, घर से न निकलें
मैं सिर पे बाँध कफ़न का टुकड़ा चलता हूँ !!


वाह....
नि:शब्द हूँ आपकी गज़ल पढकर...आभार...