Saturday, July 9, 2011

अचरज !

तुम करते रहो
अचरज
मुझे समझने
और समझाने में
भूलने, याद करने में
सच ! मैं
कुछ भी तो नहीं हूँ
सिवाय
एक अक्स के तेरे
कभी तू डूब जाता है
मुझमें
कभी कहता है मुझे
डूब जाने को
फर्क क्या है, तेरे, या मेरे
डूब जाने में
शायद, कुछ भी नहीं
फिर भी
होता है, तुझे, अचरज
हर घड़ी, हर पल
क्यों, किसलिए
सिर्फ इसलिए कि -
मैं, एक स्त्री हूँ ... !!

2 comments:

रश्मि प्रभा... said...

behtareen bhaw

BLOGPRAHARI said...

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