भ्रष्टाचार एक ऐसी जन समस्या है जिससे समूचा भारत वर्ष हलाकान है लगभग हरेक आम आदमी के जहन में भ्रष्टाचार का खौफ व्याप्त है कुछेक ख़ास लोगों को छोड़ दिया जाए तो समूचा देश त्राहिमाम त्राहिमाम है, भ्रष्टाचार कहने को तो एक समस्या ही है किन्तु मैं इसे एक साधारण समस्या न मानकर विकराल महामारी मान के चलता हूँ । ऐसा मेरा मानना है कि भ्रष्टाचार एक महामारी है जिसकी चपेट में आकर बड़ी बड़ी योजनाएं, रूपरेखाएं, परियोजनाएं, साकार रूप लेने के पहले ही दम तोड़ती दिखाई देतीं हैं, इसके जीते जागते उदाहरण कामनवेल्थ गेम्स, आदर्श सोसायटी, २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले हैं । ये तो भ्रष्टाचार के बेहद साधारण उदाहरण हैं जिनकी चपेट में मात्र सरकारी धन का स्वाहा हुआ है, भ्रष्टाचार के असाधारण उदाहरण हम उन्हें मान सकते हैं जिनकी चपेट में आकर आम जनजीवन प्रत्यक्षरूप से प्रभावित होता है, ग्राम पंचायत, जनपद, नगर पंचायत क्षेत्र में चल रहीं सरकारी योजनाएं, नरेगा, पीएमजेएसवाय, मध्यान्ह भोजन, बीपीएल कार्ड योजना, आंगनबाडी केंद्र, इत्यादि योजनाओं में चल रहे तथाकथित भ्रष्टाचार की चपेट में सीधे तौर पर आम जनजीवन है । देश में शहरी व ग्रामीण दोनों क्षेत्र में भ्रष्टाचाररूपी वायरस फ़ैल चुका है जो दिन-ब-दिन लोकतंत्ररूपी ढांचे को क्षतिकारित कर रहा है, सिर्फ सरकारी क्षेत्रों में ही नहीं वरन व्यवसायिक व सामाजिक लगभग हरेक क्षेत्र में भ्रष्टाचार वृहद पैमाने पर फल-फूल रहा है, कालाबाजारी, जमाखोरी व मिलावटखोरी भी भ्रष्टाचार के ही नमूने हैं ।
भ्रष्टाचार रूपी महामारी पर जब जब चर्चा परिचर्चा होती है और वजह तलाशी जाती है कि आखिर इस महामारी की जड़ क्या है, कौन इसके लिए जिम्मेदार है, चर्चा शुरू तो होती है पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले ही दम तोड़ती नजर आती है, चर्चा का दम तोड़ना महज इत्तेफाक नहीं कहा जा सकता, वो इसलिए कि भ्रष्टाचार के लिए शुरुवाती स्तर पर भ्रष्ट राजनैतिक सिस्टम को जिम्मेदार ठहराया जाता है, फिर सरकारी मोहकमों को, फिर संयुक्तरूप से दोनों को अर्थात भ्रष्ट नेता-अफसर दोनों को जिम्मेदार माना जाता है, किन्तु चर्चा के अंतिम पड़ाव तक पहुंचते पहुंचते भ्रष्टाचार के लिए आम जनता को दोषी ठहरा दिया जाता है, आम जनता को दोषी ठहराने के पीछे जो तर्क दिए जाते हैं वह भी काबिले तारीफ होते हैं। काबिले तारीफ़ इसलिए कहूंगा, तर्क यह होता है कि यदि जनता रिश्वत देना बंद कर दे तो भ्रष्टाचार स्वमेव समाप्त हो जाएगा अर्थात जनता रिश्वत न दे, रिश्वत मांगने वालों का विरोध करे, कालाबाजारी व मिलावटखोरी का विरोध करे, भ्रष्टाचार से जनता लड़े तो भ्रष्टाचार की हिम्मत ही कहां जो पांव पसार सके। सीधे तौर पर कहें तो चर्चा-परिचर्चा पर भ्रष्टाचार के लिए आमजन को ही जिम्मेदार मान लिया जाता है तात्पर्य यह कि देश में व्याप्त भ्रष्ट व्यवस्थाओं के लिए कहीं न कहीं आम जनता ही जिम्मेदार है।
भ्रष्टाचार के लिए प्रत्यक्ष रूप से आमजन को जिम्मेदार मानते हुए अक्सर यह तर्क भी दिए जाते हैं कि ट्रेन में सफ़र करते समय आम आदमी रिजर्वेशन के लिए २००, ३००, ४००, रुपये बतौर रिश्वत क्यों देता है यदि रिश्वत न दे तो ट्रेन में व्याप्त भ्रष्टाचार स्वमेव समाप्त हो जाएगा । ठीक इसी प्रकार सड़क पर जब किसी आम नागरिक की गाडी ट्रेफिक पुलिस द्वारा रोक ली जाती है तब आमजन १००, २०० रुपये दे-ले कर बच निकलने का प्रयास करता है और सफल भी हो जाता है, यहां पर तर्क यह दिया जाता है आमजन आखिर रुपये देता क्यों है ? तात्पर्य यहां भी वह ही भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है । इसी क्रम में जब आमजन को जाति प्रमाणपत्र या निवास प्रमाणपत्र बनवाने के लिए हजार, पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं तब भी वह ही दोषी माना जाता है । हद की स्थिति यहां भी नजर आती है जब म्रत्यु प्रमाणपत्र बनवाने, पेंशन फ़ाइल को आगे बढ़वाने, इंश्योरेंश क्लेम के लिए, पोस्ट मार्डम के लिए तथा अन्य सभी तरह के प्रशासनिक कार्यवाहियों के क्रियान्वन के लिए रुपयों का जो अनैतिक लेन-देन होता है उसके लिए भी आमजन को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है ।
सच ! चलो कुछ पल को इन तर्कों को पढ़-सुन कर हम मान लेते हैं कि भ्रष्टाचार के लिए आमजन जिम्मेदार है सांथ ही सांथ यह सवाल भी उठता है कि इन गंभीर तर्कों को सुनकर हम आमजन को दोषी क्यों न मानें ! यहां पर मेरी विचारधारा व सोच इन तर्कों से ज़रा भिन्न है और आगे भी रहेगी, वजह यह है कि हम घटनाक्रम के सिर्फ एक पक्ष पर ध्यान दे रहे हैं कि आमजन ने रिश्वत के रूप में रुपये दिए हैं इसलिए वह जिम्मेदार है, किन्तु हम दूसरे पक्ष को नजर अंदाज कर देते हैं कि आमजन ने रुपये आखिर क्यों दिए ! क्या वह खुशी खुशी रुपये लुटा रहा था या उसके पास रुपयों की कोई खान निकल आई थी जिसे कहीं न कहीं तो खर्च करना ही था तो ऐसे ही सही, या फिर उसे कोई ऐसा अलादीन का जिन्न मिल गया था जो इस शर्त पर उसे रुपये दे रहा था कि आज के रुपये आज ही खर्च करने होंगे ! कुछ न कुछ ऐसी आश्चर्यजनक वजह तो जरुर ही होगी अन्यथा एक आम निरीह प्राणी क्यों रिश्वत देगा ! जहां तक मेरा मानना है कि उपरोक्त में से ऐसी कोई भी वजह नहीं है जिसके लिए आमजन को भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराया जाए, मेरा स्पष्ट नजरिया यह है कि आमजन अर्थात अपने देश का एक आम आदमी, वर्त्तमान मंहगाई के समय में जिसके जीवन-यापन के खुद ही लाले पड़े हुए हैं वह बेवजह रुपये क्यों बांटेगा, वह हालात से तंग आकर, मजबूर होकर, व्यवस्था से त्रस्त होकर, मरता क्या न करता वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए किसी भी तरह के भटकने व विलंब से बचने के लिए तथा सांथ ही सांथ तरह तरह के मुश्किल हालात से बचने के लिए ही ले-दे कर अपना काम निपटाना चाहकर इस भ्रष्ट उलझन में उलझ जाता है । एक आम आदमी वर्त्तमान भ्रष्टाचार के लिए कतई जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, और न ही वह जिम्मेदार है, अगर कोई जिम्मेदार है तो वे ख़ास सक्षम लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बना कर रखा हुआ है ! इन हालात को बयां करता एक शेर - "मजबूरियों को भ्रष्टाचार का नाम न दो यारो / सच ! सीना तनने लगेगा भ्रष्टाचारियों का !"
1 comment:
doshi to sab hai,
रामनवमी पर्व की ढेरों बधाइयाँ एवं शुभ-कामनाएं
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