Sunday, September 11, 2011

जज्बात

तुम
जब जब आते हो
सामने मेरे
मैं खोल देती हूँ
खोल कर रख देती हूँ
सब कुछ, ताकि, तुम्हें
दिक्कत न हो
देखने, समझने में !

मैं
यह भी नहीं चाहती
कि -
तुम्हें, ज़रा भी संकोच हो
मुझे, समझने में 

इसलिए
कुछ छिपाती नहीं हूँ
अब, छिपाऊँ भी
तो, क्या छिपाऊँ, तुमसे
जो है, जैसा है
सब का सब सामने है !

तुम चाहो तो
देखकर
छूकर
पढ़कर
डूबकर
टटोल कर, उलट-पलट कर
जान लो, समझ लो
मेरे जज्बात ...
फिर, मत कहना
कि -
छिपाए थे
जज्बात ...
मैंने ... तुमसे !!

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही उम्दा ....बहुत ही उम्दा रचना .
सभी पंक्तियाँ एक से बढ़कर एक हैं .
आभार .