Tuesday, August 30, 2011

'राईट टू रिजेक्ट'

लोकतांत्रिक प्रणाली की सर्वाधिक मजबूत व सशक्त व्यवस्था यदि कोई है तो निसंदेह स्वतन्त्र चुनाव प्रणाली है, स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया निश्चित ही हमारे लोकतंत्र को मजबूती प्रदाय करती है, ये और बात है कि इस मजबूत प्रणाली को भी छल, बल व प्रलोभन के आधार पर प्रभावित किया जा सकता है यह भी कहना अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा कि जन समुदाय को छल, बल व प्रलोभन के आधार पर प्रभावित किया जाता रहा है, किया जा रहा है लेकिन फिर भी स्वतन्त्र चुनाव प्रणाली हमारे संविधान की सशक्तता की एक बेहद प्रभावशाली व बेहतरीन मिशाल है !

स्वतन्त्र चुनाव प्रणाली के माध्यम से जनता को अपने प्रतिनिधी चुनने का विशेषाधिकार प्रदाय किया गया है यह अधिकार इतना सशक्त व प्रभावी है कि समय समय पर अर्थात एक नियमित व निर्धारित अंतराल के बाद जनता स्वयं अपने लिए अपने पसंद का प्रतिनिधी चुन सकती है, सांथ ही सांथ यह भी प्रावधान है कि यदि जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधी से संतुष्ट नहीं है तो वह एक निर्धारित समयावधि के बाद उन्हें स्वमेव बदल सकती है, किन्तु इस बदलाव के लिए एक निर्धारित समय सीमा का इंतज़ार करना पड़ता है जो पांच साल बाद की होती है अर्थात आगामी चुनाव में ही बदलाव संभव होता है !

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई चुना हुआ प्रतिनिधी जन भावनाओं पर खरा नहीं उतरता है तब जनता को उसे हटाने अर्थात बदल देने का अधिकार मिलता है किन्तु वह अधिकार अगले चुनाव अर्थात पांच साल बाद ही मिलता है, इन पांच सालों तक वह चुना हुआ प्रतिनिधी अपने आप में स्वतंत्र होता है यदि वह चाहे तो जन भावनाओं का आदर करे, और न चाहे तो वह जन भावनाओं को नजर अंदाज कर दे ! इन परिस्थितियों में यह चुनाव प्रणाली अपने आप में सवालिया निशान खडा कर देती है, मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जब एक जनता द्वारा चुना हुआ प्रतिनिधी चुनाव जीतने के बाद खुद की मर्जी का मालिक हो जाए, दूसरे शब्दों में कहें तो 'बेलगाम घोड़ा' हो जाए तब निसंदेह वह चुना हुआ प्रतिनिधी 'लोकतंत्र रूपी बगिया' को चौपट ही करेगा !

निसंदेह इन परिस्थितियों में वह चुनाव जीता हुआ प्रतिनिधी जन भावनाओं का खुल्लम-खुल्ला मजाक उड़ायेगा, उस चुने हुए प्रतिनिधी का यह व्यवहार निश्चित ही स्वतन्त्र, निष्पक्ष व मजबूत लोकतंत्र के नजरिये से भी अहितकर होगा, यहाँ यह कहना भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वर्त्तमान में ऐसे हालात देखने व सुनने को मिल रहे हैं ! इन विकट परिस्थितियों के बारे में, इन विकट परिस्थितियों के लिए, हमें आज से ही घोर व सशक्त विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है, यदि समय रहते विचार-विमर्श कर सार्थक कदम नहीं उठाये गए तो निसंदेह हमारा लोकतंत्र दिन-व-दिन कमजोर होगा !

इस मुद्दे के सांथ सांथ एक और मुद्दा आज-कल लोगों के जेहन में उमड़ रहा है वह मुद्दा यह है कि इस स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव प्रणाली में कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि यदि चुनाव लड़ रहे सारे के सारे प्रत्यासियों में से, यदि कोई भी प्रत्यासी, मतदाता को पसंद नहीं है तब वह क्या करे अर्थात वह कौन-सा रास्ता चुने, मतदान में हिस्सा न लेने का या उपलब्ध प्रत्यासियों में से ही किसी प्रत्यासी को चुन लेने का, यहाँ पर मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि इन हालात में 'अंधों में काणे को राजा बनने' का सुअवसर मिल जाएगा तात्पर्य यह है जनता न चाहकर भी किसी न किसी के पक्ष में मतदान कर चुनाव जितवा देगी, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए, ये परिस्थितियाँ निसंदेह निरंतर लोकतंत्र को कमजोर करेंगी !

लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में यह भी प्रावधान होने चाहिए कि मतदान के समय जनता अर्थात मतदाता को जब कोई भी प्रत्यासी योग्य व उचित प्रतीत न लगे तब जनता अर्थात मतदाता उस प्रत्यासी या उन प्रत्यासियों को मतदान के समय ही 'रिजेक्ट' कर दे, यहाँ पर मेरे कहने का तात्पर्य स्पष्ट है कि जनता के पास 'राईट टू रिजेक्ट' के रूप में संवैधानिक अधिकार होना चाहिए, मैं यहाँ यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि यह प्रावधान आने से लोकतंत्र की गरिमा धूमिल नहीं होगी वरन लोकतंत्र और भी सशक्त, प्रभावी व आकर्षक होगा, यह प्रणाली हमारे लोकतंत्र को, हमारे संविधान को, हमारे देश को दुनिया के मंच पर बेहद प्रखर व सशक्त रूप में प्रस्तुत करेगी !

मैं यह नहीं कहता कि जिन जनमानस के जेहन में यह विचार उमड़ रहे हैं उसके पीछे उनका कोई निहित स्वार्थ भी समाहित होगा, शायद कतई नहीं, मेरा तो इस मुद्दे पर व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि 'राईट टू रिजेक्ट' का प्रावधान शीघ्र-अतिशीघ्र अमल में लाना लोकतंत्र को मजबूत करेगा ! आयेदिन हम देखते हैं, महसूस करते हैं कि वर्त्तमान में जो प्रत्यासी चुनाव मैदान में होते हैं उनकी व्यवहारिक व सामाजिक छबि कितनी सकारात्मक व नकारात्मक होती है, इन हालात में न चाहते हुए, न चाहकर भी, ऐसे प्रत्यासी चुनाव जीत कर आ जाते हैं जो अपने आप में एक सवालिया निशान होते हैं, खैर यह मुद्दा बहस व चर्चा का नहीं है और होना भी नहीं चाहिए क्योंकि आज अगर चर्चा होनी चाहिए तो 'राईट टू रिजेक्ट' पर होनी चाहिए क्योंकि यह वक्त की मांग है, वक्त की जरुरत है, इस मुद्दे पर मेरा व्यक्तिगत मानना है कि 'राईट टू रिजेक्ट' रूपी कदम अर्थात प्रावधान निसंदेह लोकतंत्र को मजबूत करेगा !

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