Tuesday, February 22, 2011

चादर हवाओं की !!

सर्द रातें बढ़ रही थीं
शीत भी गिरने लगी थी
जर्द पत्तों को बिछा कर
हमने बिछौना कर लिया था
बदन थक कर चूर चूर
और आँखें भी निढाल थीं
आसमां में दूधिया चाँदनी
चहूँ ओर मद्दम मद्दम
रौशनी बिखरी हुई थी
एक दिव्य स्वप्न
मेरे जहन में अंकुरित था
मुझे उसके खिलने की
लालसा, और बेसब्री थी
धीरे धीरे आँखें
थकान में मुंदने लगीं
मैं जर्द पत्तों के बिछौने पर
निढाल हो पसर गया
और ओढ़ ली चादर
मैंने हवाओं की !
ख़्वाब था, या हकीकत
क्या कहें
हम तो सो रहे थे
सो गए थे, ओढ़ कर
चादर हवाओं की !!

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

वाह श्याम जी ... बहुत जबरदस्त

BrijmohanShrivastava said...

एक नितांत प्राकृतिक रात थी वह ।पत्तेा का बिछौना और हवाओं की चादर । थकान से आखें मुंदने लगी यह बात बहुत ही सुन्दर लगी उसका कारण यह है कि आम तौर पर नीद न आने की शिकायत की जाती है मगर आपकी रचना के हिसाव से जिया जाये वही सही जीना है बोले तो धूप थी नसीब मंें तो धूप में लिया है दम चांदनी मिली तो हम चांदनी मे सो लिये । कुछ लिखने की लालसा हो कोई विचार अंकुरित हो रहा हो तो फिर किस को फुरसत सोचे कब सुबह हुई कब रात फिर विस्तर जर्द पत्तेंा का है या कि कीमख्वाव का