Tuesday, March 29, 2011

पथरीली राहें !!

मूंड खुजाते बैठ गया था
देख सफ़र की, पथरीली राहें
दरख़्त तले की शीतल छाया
लग रही थी, तपती मुझको
फिर चलना था , और
आगे बढ़ना था मुझको
राहें हों पथरीली, या तपती धरती हो
मेरी मंजल तक तो, चलना था मुझको
कुछ पल सहमा, सहम रहा था
देख सुलगती, पथरीली राहें
फिर हौसले को, मैंने
सोते, सोते से झंकझोर जगाया
पानी के छींटे, मारे माथे पर अपने
कदम उठाये, रखे धरा पर
पकड़ हौसला, और कदमों को
धीरे धीरे, था चल पडा मैं
पथरीली, तपती, सुलगती राहों पर
कदम, हौसले, धीरे धीरे
संग संग मेरे चल रहे थे
जीवन, और मेरी मंजिल की ओर !!

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

वाह ! श्याम जी,
इस कविता का तो जवाब नहीं !
विचारों के इतनी गहन अनुभूतियों को सटीक शब्द देना सबके बस की बात नहीं है !
कविता के भाव बड़े ही प्रभाव पूर्ण ढंग से संप्रेषित हो रहे हैं !