Saturday, March 26, 2011

फ़रिश्ते !!

सच ! तुम फ़रिश्ते बन
उतर आते हो जहन में मेरे
कब, कैसे, समा जाते हो
मुझमें, खबर नहीं होती
तुम्हारा मुझमें समा जाना
अदभुत सा लगता है मुझे
तुम्हारा वेग, हौलापन
सरसराता हुआ समागम
कोई कुदरती पहल हो जैसे
तुम्हारा मुझमें डूब जाना
मेरे अन्दर, और अन्दर
डूबकर फिर हिलौरें मारना
भीतर ही भीतर, और भीतर
मेरे अंग अंग में समा जाना
सच ! कहाँ, कहाँ नहीं
माथे, आँखें, होंठ, कान, गले
होते हुए, धीरे धीरे , लहरों सा
वक्ष, यौन, जांघ, पिंडलियों, तलुओं
से होते हुए, नितम्ब, कमर, पीठ
अंग अंग में हिलौरें भरना
किसी करिश्मे से कम नहीं होता
हर क्षण तुम मुझे, फ़रिश्ते
सच ! फ़रिश्ते ही लगते हो !!

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